कर्नाटक में शह-मात के खेल में बीजेपी कांग्रेस से मात खा गई। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की सारी रणनीतियां धरी की धरी रह गई। वजह चाहे जो भी हो, कर्नाटक में बीजेपी जीत कर भी हार गई है। विधायकों की खरीद-बिक्री न होने के कारण सरकार बनाने से बीजेपी चूक गई। शह-मात के खेल में पहली बार बीजेपी को लोगों ने विपक्ष से मात खाते देखा है। अन्यथा जहां उम्मीद नहीं थी अर्थात संख्या बल में भी कम होने के बावजदू वहां भी गैर कांग्रेसी दलों के सहयोग से बीजेपी ने सरकार बनायी है। लेकिन कर्नाटक में ऐसा नहीं हो सका। कर्नाटक में कांग्रेस और जद (एस) की गठबंधन सरकार बनने के बाद विपक्ष इतना उत्सहित है कि उसने शायद बड़ी जंग फतह कर ली हो।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम में अनुमान से भी कम सीटें आने के बाद कांग्रेस ने जद (एस) के सामने एक पत्ता फेक दिया। पत्ता भी ऐसा जिसपर शायद जद (एस ) को भी विश्वास ना हो। कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का ऑफर देकर कांग्रेस ने सेफ गोल किया है। अगर बीजेपी को कर्नाटक की सत्ता से बाहर रखना है कि कांग्रेस कोई और विकल्प नहीं था।
जबकि, जल्दीबाजी में वी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में बीजेपी ने कर्नाटक में सरकार बना ली। लेकिन वह सरकार महज ढाई दिन ही चली। क्योंकि बहुमत हासिल करना येदियुरप्पा के लिए आसान नहीं था।
महज दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार के जीतने के कारण इतना तो यह हो गया था कि येदियुरप्पा की सरकार तभी बचेगी जब कांग्रेस या जद (एस) के विधायकों का समर्थन हासिल हो। लेकिन दोनों पार्टियों ने येदियुरप्पा के विश्वास मत हासिल करने तक अपने-अपने विधायकों को रिसॉर्ट में छिपाये रखा। ताकि उनके कोई भी विधायक बीजेपी को समर्थन न दे पाये। बहुमत का जुगाड़ नहीं होने के कारण येदियुरप्पा ने फ्लोर टेस्ट से पहले ही इस्तीफा दे दिया। कहा जा रहा है कि यह बीजेपी की नैतिक हार है। बीजेपी की इस हार को कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल अभी से भुनाने में जुट गये हैं। एक मजबूत विपक्ष की कवायद फिर जोर पकड़ने लगी है। कांग्रेस-जद (एस) की गठबंधन सरकार में कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनाये गये हैं। लेकिन मलाईदार विभागों के बंटवारें को लेकर कांग्रेस और जद (एस) के बीच रस्साकस्सी अब खुलकर सामने आ रही है। इस गठबंधन सरकार को लेकर कुमारस्वामी ने अपने संबोधन में कई बार कहा कि उनके लिए सरकार चलाना बड़ी चुनौती है और यह सरकार पांच साल तक चल पायेगी इसकी संभावना कम है।
बहरहाल, आने वाले दिनों में कर्नाटक के सियासी हालत क्या होंगे इसपर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह बीजेपी एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विपक्षी एकजुटता का अहसास जरूर करा दिया। एक मंच पर धूरविरोधी नेता भी एक दूसरे से गलबहियां करते दिखे। भले ही गलबहियां मजबूरी में ही हों। लेकिन कर्नाटक के सियासी नाटक में ही 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नई पटकथा लिख दी गई है। कांग्रेेस, सपा, बसपा, राजद, तृणमूल कांग्रेस एवं कई अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने एक मंच पर आकर मोदी सरकार को खुलेआम चुनौती दे दी है।
राजनैतिक एवं वैचारिक मतभेदों के कारण जो नेता एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे, लेकिन उनके सामने हालात ऐसे हैं कि बिना एकजूट हुए बीजेपी अर्थात मोदी को टक्कर देने में खुद को असमर्थ पा रहे है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक पिछले चार सालों में बीजेपी के विस्तार ने कई नेताओं की नींद उड़ा दी है। जबकि कई सियासी पार्टियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगे हैं। अपनी सियासी जमीन को बचाने के लिए वे सभी वैचारिक मतभेदों को भूलकर एक मंच पर आये हैं। कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में उन सभी की मौजूदगी ने संकेत दे दिया है कि 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी बनाम तमाम कथित सेक्युलर पार्टी होने की संभावना है। बीजेपी की ओर से 2019 का चेहरा नरेन्द्र मोदी ही होंगे लेकिन विपक्षी घटक से मोदी के खिलाफ किस चेहरे को सामने लाया जाता है यह देखना अभी बाकी है।
बहरहाल, कर्नाटक में कांग्रेस और जद (एस ) की गठबंधन सरकार बनने के बाद विपक्षी एकजुटता और मोदी विरोधी नेताओं में ऊर्जा का संचार हुआ है। वहीं कई अन्य दल भी उस मंच से जुड़ने की फिराक में हैं और वक्त का इंतजार कर रहे हैं। जबकि केन्द्र सरकार की नीतियों से परेशान बीजेपी के घटक दल भी मोदी सरकार से नाराज दिख रहे हैं। शिवसेना ने तो अगला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का एलान बहुत पहले ही कर दिया है। जबकि कई मौके की तलाश में हैं।
बिहार में जनता दल (यू) और बीजेपी की गठबंधन सरकार में अनबन की खबरें आ रही हैं। महागठबंधन ने पुनः नीतीश कुमार को वापस आने का ऑफर दे दिया है, जिससे नीतीश कुमार असमंजस में दिख रहे हैं। वहीं एनडीए घटक दल में शामिल रालोसपा और लोजपा पर तो बीजेपी को भी भरोसा नहीं है कि 2019 में उन्हें इन दलों का साथ मिल सकता है। क्योंकि ये दोनों दल पहले भी सीटों को लेकर बगावत कर चुके हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में सीटों को लेकर लोजपा और रालोसपा की तल्खी बीजेपी के साथ बढ़ गई थी जो आज भी कभी कभार दिख जाती है। कभी एनडीए में शामिल रहे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी पहले ही महागठबंधन की गोद में जा बैठे हैं। जबकि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिये जाने से नाराज राज्य के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडु ने हाल ही में एनडीए के साथ राजनीतिक रिश्ते को समाप्त किया है। तेलुगु देशम पार्टी के सांसदों ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिलाकर देखा जाये तो 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विपक्ष से तगड़ी चुनौती मिलने वाली है। केन्द्र सरकार की नीतियों से देश में उपजे हालात के कारण पार्टी कैडरों में भी अब निराशा झलकने लगी हैं। क्योकि जनता के साथ सवाल-जबाव में ये सभी असजहज महसूस कर रहे हैं। क्योंकि देश की वर्तमान स्थितियां कुछ अलग ही बयां कर रही है जबकि केन्द्र सरकार की नीतियां कुछ और। स्थितियों और नीतियों के बीच सामंजस्य नहीं बैठ पा रहे हैं। नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटाइजेशन, महंगाई, पेट्रोल, डीजल एवं अन्य ज्वलंत मुद्दे मोदी सरकार को आने वाले दिनों में और परेशान कर सकते हैं। विपक्षी दल इसी का फायदा उठाने की रणनीति तैयार कर रहे हैं। विपक्षी मोर्चा जितना मजबूत होगा मोदी सरकार की चुनौती उतनी ही बढ़ेगी।