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यूपी विधानसभा चुनाव: सियासी पिच पर जाति, साम्प्रदायिकता और अवसरवाद का खेल

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव चुनावी बिसात पर सियासी गोटियां बिछ गई है। प्रदेश में सात चरणों में चुनाव होना है। 10 मार्च को तय हो जायेगा कि यूपी की सत्ता की चाबी किसके हाथ में होगी। इस दौरान दलों के बीच गठजोड़ और नेताओं के पाला बदलने का खेल चालू है। अपराधियों, माफियाओं की आवभगत खूब हो रही है। समाज और कानून की नजर में अपराधी, माफिया, गुंडा, मवाली को टिकट देकर पार्टियोें के प्रमुख नियमों और मर्यादाओं की तिलांजलि दे रही हैं। छोटे दलों को अपने पाले में लाने की भी होड़ मची है। अवसरवाद का चोला ओढ़कर राजनीति करने वाले उन नेताओं के पास राज्य को आगे ले जाने का कोई विजन नहीं है। चुनावी मौसम में जितना हो सकते अपने को भुना पाना ही अपनी सबसे बड़ी कामयाबी मानते हैं।

इस बार सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के सामने अनेकों चुनौतियां हैं। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का दंश भी बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है। कोरोना काल से भले ही हम उबर रहे हैं लेकिन महंगाई ने जीना मुहाल कर दिया है। महंगाई को लेकर सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा देखा जा सकता है। हालांकि, यह राष्ट्रीय मुद्दा है, लेकिन राष्ट्रीय मुद्दे विधानसभा चुनाव में भी समीकरण बिगाड़ने का काम करते रहे हैं। विपक्ष ने कमरतोड़ महंगाई के लिए बीजेपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। केन्द्र सरकार ने नये कृषि कानून भले ही वापस ले लिये लेकिन इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में होने वाले चुनाव परिणाम पर दिख सकता है। नये कृषि कानून के वापस लिये जाने के बाद भी किसान बीेजेपी से नाराज दिख रहे हैं।

बीजेपी सरकार और किसानों के बीच नाराजगी का फायदा कई पार्टियां उठना चाह रही हैं। पश्चिमी यूपी की कई सीटें जाट (किसान) बहुल हैं और यहां सरकार के प्रति किसानों का विरोध स्पष्ट रूप से दिख रहा है। इन क्षेत्रों में दलितों और ओबीसी की भी संख्या ज्यादा है। लिहाजा इन सीटों पर सपा-बसपा की नजर भी टिकी है। वहीं कांग्रेस भी इस बार जोर-आजमाइश में पीछे नहीं दिख रही है।

यूपी में प्रियंका गांधी की लीडरशिप में कांग्रेस में कुछ परिवर्तन होने की उम्मीद दिख रही है। यूपी के मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए कांग्रेस वायदों की झड़ी लगा रही है। कांग्रेस को इससे कितना फायदा होगा यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा।

यूपी में जाति और साम्प्रदायिकता की धूरी पर शह-मात का सियासी खेल शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम 100 सीटों ंपर चुनाव लड़ रही है। जिससे यह तय है कि वह सभी सीटें मुस्लिम बहुत क्षेत्रों में होगी। इसका सबसे ज्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ सकता है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के मुसलमान समाजवादी पार्टी के कोर वोटर्स रहे हैं।

मुस्लिम और ओबीसी वोट के सहारे ही समाजवादी पार्टी सत्ता का सफर तय करती रही हैं, लेकिन इस बार मुस्लिम वोट के बिखरने से रोक पाने में समाजवादी पार्टी कितना सफल हो पायेगी, यह भी चुनाव परिणाम ही तय करेगा। सूत्र बताते हैं कि यूपी के मुसलमानों का सपा से मोहभंग रहा है और इस बार औवैसी की पार्टी पर भी मुसलमान दांव लगा सकते हैं।
मुस्लिम वोटर्स को एक धूरी पर लाने की कोशिश एआईएमआईएम कर रही है। एआईएमआईएम के यूपी में चुनावी मैदान में उतरने से वहां के मुसलमान अब संशय में हैं कि वह किसका साथ छोड़े और किसका दामन पकड़ेें। राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो ज्यादातर मुसलमान समाजवादी के साथ ही रहना चाहते हैं। जबकि नयी पीढ़ी के मुसलमानों का झुकाव ओवैसी की पार्टी की ओर ज्यादा दिख रहा है। सर्वे बताते हैं मुस्लिम बहुल इलाकों को समाजवादी पार्टी को एआईएमआईएम से कड़ी टक्कर मिलने वाली हैै।

दलितों की राजनीति करने वाली बसपा प्रमुख सधी हुई चाल चल रही हैं। हालांकि कई सर्वे में बसपा को प्रदेश में चौथे नंबर पर रखा जा रहा है। 2012 के बाद यूपी के दलित वोटों के बिखराव से बसपा लगातार कमजोर होती गई। बसपा को कोर वोट बिखरकर कई दलों में चला गया है। और इस बार भी यही माना जा रहा है कि दलितों के वोट कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभायेंगे।

बहरलहाल, यूपी में चुनाव से पहले ही कई पार्टियां जीत का दावा ठोक रही हैं। लेकिन सच यह भी है कि कई दल तो चुनावी रेस में अभी से ही पिछड़ते दिख रहें हैं और सहयोगी दलों के साथ हर तरह के समझौते करने को तैयार हैं। जो डंके की चोट पर जीतने का दावा कर रहे हैं, सत्ता में आने के बाद अपने विरोधियों को देख लेने की धमकी दे रहे हैं, अपने जहरीले बयान से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा रहे हैं… यूपी के साइलेंट वोटर्स उन नेताओं के मंशूबों पर पानी भी फेर सकते हैं। इसे जानने के लिए 10 मार्च तक इंतजार करना पड़ेगा। क्योंकि, सर्वे कुछ और कहते है और जमीनी हकीकत कुछ और है।

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