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सियासी रंग में रंगने लगा हिजाब मामलाः समता की बात करते-करते…

ड्रेस कोड समानता और एकरूपता का प्रतीक है। इसे धर्म और राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। इस देश में कई सारे ज्वलंत मुद्दे सियासतदानों की अनदेखी के कारण हाशिये पर हैं। लेकिन हम सभी उस मुद्दे पर बेवजह सिर फटौव्वल कर रहे हैं जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है। ड्रेस कोड के पीछे एक धारणा यह भी है कि शैक्षणिक संस्थान में हर तबके के छात्र पढ़ते हैं। अलग-अलग आस्था और विचारधारा वाले भी साथ पढ़ाई करते हैं। पढ़ाई के दौरान और शैक्षणिक परिसर में किसी भी छात्र में असहजता का बोध नहीं हों, ड्रेस कोड इन असहजताओं से भी बचाता है।

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कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं द्वारा सरकारी शैक्षणिक संस्थानो में हिजाब पहनकर आने का मामला कोर्ट में पहुंच गया है। आज कल मीडिया चैनलों में डिबेट का यह मुख्य मुद्दा है और इस चुनावी बेला में विपक्षी दल इसे भूनाने की तैयारी में जुट गये हैं। संयोग देखिए कि इस मामले को ऐसे समय उछाला जा रहा है जब पांच राज्यों में विभिन्न चरणों में विधानसभा चुनाव शुरू हो चुके हैं। यूनिफार्म से जुड़े इस मुद्दे पर कुछ नेता सियासत की जमीन तलाशने लगे हैं। इसे ना राजनीतिक रंग देने की जरूरत है और ना ही धार्मिक। क्योंकि यह मामला विशुद्ध शैक्षणिक है। लेकिन इस मामले को तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। इस मामले पर सियासत के खिलाड़ी अपने नफा-नुकसान देखकर ही बयान दे रहे हैं। यह मामला पांच राज्यों के चुनाव परिणाम को भी प्रभावित कर सकता है।

इस मामले में पहले ही कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया की संलिप्पता उजागर हो गई है, जो पीएफआई से संबद्ध है, जिसपर देशविरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं। सीएए आंदोलन के समय पीएफआई पर विदेशी फंडिंग को शाहीन बाग में इस्तेमाल करने के भी आरोप लगे हैं। अब मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण करने वाली एक बड़ी राजनीतिक पार्टी हिजाब मामले में खुलकर मैदान में आ गई है। इस मामले को तेजी से लपकते हुए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने एक बयान देकर इसे सियासी मुद्दा भी बना दिया है। प्रियंका गांधी ने कहा है कि यह छात्राओं की मर्जी पर निर्भर है कि हिजाब पहनेंगी या बिकिनी।

प्रियंका गांधी के बयान को कई लोगों ने भर्त्सना की है। हर शैक्षणिक संस्थान की ड्रेस कोड से भी आइडेंटिटी होती है। तो संस्थानों में अन्य पोशाकों का कोई विकल्प ही नहीं है। घर पर अथवा अपनी निजी जिंदगी में कोई क्या पहन रहा है इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। लेकिन जहां ड्रेस कोड लागू है वहां आपको संस्थानों के नियमों का अनुपालन करना ही पड़ेगा। हर मानक स्तर के शैक्षणिक संस्थानों में ड्रेस कोड लागू हैं। चाहे वह प्राईवेट हों या सरकारी। उनके कुछ नियम कायदे हैं, रूल रेगुलेशन है, जिन्हें सभी छात्र-छात्राओं को मानना पड़ता है। शैक्षणिक कार्य से जुड़ी टाइम टेबल से लेकर ड्रेस कोड तक, हर संस्थान के अलग-अलग होते हैं। यह शैक्षणिक संस्थानों पर निर्भर करते हैं कि उनके ड्रेस कोड क्या होंगे। इस मामले में किसी दखंलंदाजी भी नहीं चलती।

इतना ही नहीं, ड्रेस कोड समानता और एकरूपता का प्रतीक है। इसे धर्म और राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। इस देश में कई सारे ज्वलंत मुद्दे सियासतदानों की अनदेखी के कारण हाशिये पर हैं। लेकिन हम सभी उस मुद्दे पर बेवजह सिर फटौव्वल कर रहे हैं जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है।

ड्रेस कोड के पीछे एक धारणा यह भी है कि शैक्षणिक संस्थान में हर तबके के छात्र पढ़ते हैं। अलग-अलग आस्था और विचारधारा वाले भी साथ पढ़ाई करते हैं। पढ़ाई के दौरान और शैक्षणिक परिसर में किसी भी छात्र में असहजता का बोध नहीं हों, ड्रेस कोड इन असहजताओं से भी बचाता है। इसलिए सभी शैक्षणिक संस्थानो में सभी छात्र-छात्राओ को ड्रेस कोड का पालन करना अनिवार्य कर दिया जाता है और हम सभी ने इसका पालन किया है। ड्रेस कोड का उल्लघन करने पर, किसी अन्य तरह के पोशाक पहनकर स्कूल जाने पर सजा का प्रावधान था। हर धर्म, मजहब, पंथ, समुदाय के छात्र-छात्राओं को इसका पालन करते हुए देखा है। किसी तरह के विवाद से इसका कोई मतलब ही नहीं बनता है। लेकिन यहां तो मामले को तूल देना है। टूलकिट बनना है।

जब आपके पास संविधान का दिया हुआ फंडामेंटल राइट है तो सरकारी पैसे पर संविधान के अनुसार चलने वाले शैक्षणिक संस्थानों के पास भी कुछ मौलिक अधिकार हैं। कुतर्को और दलीलों के आधार पर इस लोकतांत्रिक देश में हम अपनी बात सही नहीं ठहरा सकते है। नीतिगत स्तर पर यह भी देखना पड़ेगा कि कहीं हमारी मांग तो गलत नहीं है। कोर्ट वहीं सलाह देगा को संविधान प्रदत शैक्षणिक संस्थान के हित में होगा। शैक्षणिक संस्थानों में धर्म की लकीरें खींचना और मजहब की दीवार खड़ी करना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है।

यह मामला इतना तूल पकड़ा है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसला आने से पूर्व ही इस पर बहस के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसपर त्वरित संज्ञान लेने से साफ मना कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इस मामले पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद सुनवाई करेंगे।

कई सरकारी और निजी कार्मिक संस्थानों में डेस कोड का पालन करना अनिवार्य है। पुलिस, आर्मी, मेडिकल, नर्सिंग, एवियन, स्पोटर््स, कारपारेट और आईटी आदि सेक्टर में ड्रेस कोड से ही उनकी आइडेंटिफिकेशन होती है। वहां हर धर्म, मजहब, पंथ और समुदाय के कर्मचारी एक साथ काम करते देखे जाते हैं।

यह मामला अब सियासती रंग में पूरी तरह रंग चुका है। कुछ राजनीतिक दल चुनाव में नुकसान होने के डर से वेट एंड वॉच की नीति अपना रहे है। जबकि कुछ दल इसके समर्थन और विरोध में पूरी तरह मैदान में आ चुके हैं। हम सभी समता की बात करते-करते, भारत को किस राह पर लेकर जा रहे हैं, यह राजनीतिक चिंतन के साथ-साथ आत्ममंथन का भी विषय है।  निष्कर्षतः राष्ट्र प्रथम । धर्म, मजहब, आस्था, विश्वास, परम्पराएं धारणाएं… ये सभी सबऑर्डिनेट हैं।