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चरमपंथ की भेंट चढ़ गई विकसित सभ्यताएं

विश्व की प्राचीनतम समुन्नत और सुसंस्कृत सभ्यताएं जो हजारों वर्षों तक मानव को प्रेम, करुणा, शांति, सद्भावना और राष्ट्र प्रेम की भावना को जागृत करती रही, उसे लूटेरे, बर्बर् ,अत्याचारी और आक्रमणकारियों ने सर्वनाश कर दिया। इनमें मंगोल, मुगल, पुर्तगाली, शक, हुण, पिंडारी और अंग्रेज आदि प्रमुख हैं। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में मिस्र, रोम, यूनान, ईरान, हड़प्पा चीन,मेसोपोटामिया, सुमेरिया, बेबीलोनिया, हिब्रू, चौल्डियन,हित्ती, फिनिशन, एजियन असीरिया आदि प्रमुख रूप से आती हैं।

हमारा समृद्ध ‘भारत’ जो प्राचीन जमाने में “सोने की चिड़िया” कही जाती थी, उस भारत को साढ़े चार सौ साल तक पुर्तगाली,साढ़े तीन सौ साल तक मुगल और दो सौ साल तक अंग्रेजों ने यहां की सभ्यता, संस्कृति, भाषा, बोली और धन-दौलत आदि सभी का दोहन किया तथा लूट कर अपने देश ले गये।

भारत की खोज में निकला पुर्तगाली समुद्री यात्री “वास्कोडिगामा” 8 जुलाई 1497 को पुर्तगाल से तीन जहाज और 170 व्यक्तियों को साथ लेकर ‘सैन-ग्रेबियल’, ‘साओ-राफायोयल’ और ‘बेरीयो’ नामक समुद्री जहाज को साथ लेकर 17 मई 1498 को भारत के “कालिकोड”अब (कालीकट) नामक तट पर पहुंचा। उसे भारत का ही एक गुजराती व्यापारी ‘अब्दुल मजीद’ ने तत्कालिन कालिकोड के राजा “जमोरिन” से बिना समक्षे व्यापार का अधिकार दिला दिया। इसका विरोध वहां के पूर्व से स्थापित अरबी व्यापारियों ने की, किन्तु उनकी एक न चली और वह अपने व्यापार में जुट गया। इसी के करीब 5 साल बाद पूर्व भारत का समुद्री मार्ग खोजने के लिए “सेंट-कोलंबस” भी यूरोप से भारत आया।

उधर ‘गोवा’ में पुर्तगालियों ने जो 1510 ई. में कब्जा जमाया, वह एक लंबे समय के अंतराल के बाद भी भारत की आजादी के चौदह वर्ष बाद जब भारतीय सेनाओं ने वहां 36 घंटे की सैनिक कार्रवाई की, उसके बाद 19 दिसंबर 1961 को पुर्तगालियों से भारत को मुक्ति मिली। तब से आज गोवा में 19 दिसंबर को प्रति वर्ष “गोवा मुक्ति-दिवस” बड़े.धूम धाम से मनाया जाता है। गोवा पुर्तगालियों का एक उपनिवेश था।

आज गोवा अपने सुंदर समुद्री-तट, प्रसिद्ध स्थापत्य-कला और पर्यटन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। गोवा बिना संघर्ष के ही 1510 में जब भारत में मुगलों का राज था, तब ‘अल्फासो-द-अलबुकर्क’ के नेतृत्व में पुर्तगालियों ने इस शहर पर कब्जा जमाया था,जो सन् 1600 से 1775 तक इनका स्वर्णिम काल रहा।

फिर 1809 ई. से 1815 ई. तक नेपोलियन के कब्जे में गोवा आ गया। उसके बाद अंग्रेजों ने “एंग्लो-पुर्तगाली- गठबंधन” कर इसे अपने क्षेत्र में ले लिया। अंग्रेजों ने यहां भी वहां के संसाधनों को खूब लूटा।

फिर 1956 ई. में बाबर ने जब दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। उसके बाद इस वंश का अंतिम शासक बहादुर शाह हुआ।दिल्ली के सिंहासन से उसे हटाए जाने तक यानी 1526 ई.से 1700 ई.तक के काल में भारत के अधिकांश भागों में मुगल का ही शासन रहा।

मुगलों ने ही भारत में सर्वप्रथम “जमीदारी-प्रथा” की शुरुआत की थी। वे कुलीनों अर्थात जमींदारों से राजस्व की वसूली किसानों की उपज से लेकर बादशाह की खजाने में जमा करते थे। ‘मंशबदारों’ को सिर्फ वेतन अथवा जागीर दी जाती थी।

“पर्शिया” ही आज का ‘ईरान’ है। सिंधु घाटी के पश्चिम से लेकर दजला- फरात नदियों की घाटी तक का भाग ईरान का पठार है। अत्रेक नदी रुस से इसे अलग करती है। इसका उत्तरी पूर्वी भाग खुरासान, बीच का भाग गर्लीन और उत्तर पश्चिम का भाग अजर-बेजान है। पड़ोसी देशों से और विभिन्न मार्गों से इसे जुड़ा रहने के कारण यह सुरक्षित नहीं है। बीच का भाग इसका रेगिस्तान है। इसके पश्चिमी- दक्षिणी भाग में सांस्कृतिक विकसित नगर थे। उनमें ‘सूसा’ तथा ‘एकबाथना’ प्रमुख हैं।

उत्तर में बलूचिस्तान के सटे होने से इसे “फारसी बलूचिस्तान” भी कहते हैं। पूरावशेषों के पाये जाने के आधार पर यहां के निवासी भारोपीय शाखा के आर्य माने जाते हैं। कहा जाता है कि आर्य अपने मूल स्थान से दो भागों में विभक्त होकर चले थे, जिसमें एक दल पश्चिमी यूरोप की ओर  तथा दूसरा ईरान और भारत की ओर आया। उसमें इंडो-ईरानियन शाखा ईरान में बसी और एक भारत में प्रवेश की। इन्हें ‘इंडो- ईरानियन’ कहना ज्यादा सही है, क्योंकि ये आर्य हिंदूकुश को केंद्र बनाकर ईरान और भारत की सीमा पर बसे थे। जहां से यूरोप की ओर जनसंख्या बढ़ने के कारण एक वर्ग निचली मैदान भाग की ओर भारत में आया। भारत में बसने वाले ये “वैदिक आर्य” कहलाये तथा ईरान में बसने वाले “ईरानी आर्य” से जाने गये। इसी कारण ईरानी और भारतीय देवताओं में बहुत अधिक समानता है। इनमें भाषा का संबंध तथा सांस्कृतिक परंपराएं भी लगभग मिलती है।1935 में ‘पर्शिया’ का नाम बदल कर “ईरान” हो गया।

सामाजिक जीवन अन्य सभ्यताओं की तरह ही वर्गों में विभक्त था। संयुक्त परिवार की व्यवस्था थी। नारियों की स्थिति अत्यंत समुन्नत थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। शिष्टाचार का  विशेष महत्व था। यहां की मूल भाषा ईरानी थी। जुरथुस्त्र धर्म यहां प्रचलित था। इसमें  अन्धविश्वास , बलिप्रथा, बहुदेववाद ,पुरोहित वाद आदि का विरोध किया गया। इस दृष्टि से यह धर्म अत्यधिक व्यवहारिक और नैतिक मूल्यों पर आधारित था।

विद्वान ‘काटेर’ के अनुसार- “इट इज ए रिलिजन औफ कलचर, औफ स्पिरिचुअल एंड मोरल प्रोग्रेस।” इस धर्म ने सृष्टि की उत्पत्ति में चार तत्व को ही माना। क्षिति, जल, पावक और समीर। पांचवें तत्व गगन को नहीं माना। इसी कारण इस धर्म के मानने वाले अपने शवों को ऊंचे खंभों पर रखते थे। वे मानते थे, कि यदि शव को पृथ्वी में गाड़ा जाएगा तब पृथ्वी अपवित्र हो जाएगी। स्वर्ग- नरक की भी मान्यता यहां थी। वर्तमान में यह धर्म अपनी कर्मभूमि से समाप्त हो गई है। नए धर्म का प्रचलन है।

‘हड़प्पा सभ्यता’ भारत में सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों के किनारे स्थित विभिन्न केंद्रों में श्रृंखलाबद्ध रूप में पनपी, जो “सिंधु घाटी सभ्यता” के नाम से जानी जाती है। यह सभ्यता विश्व की पुरातन सभ्यताओं में अति महत्वपूर्ण मानी गई है।मिश्र की सभ्यता जिस प्रकार नील नदी, मेसोपोटामिया की सभ्यता जिस प्रकार दजलाऔर फरात, चीन की सभ्यता ह्वांगहो, यांगटिसिक्यांग नदियों के किनारे पनपी उसी प्रकार भारत में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के किनारे हड़प्पा सभ्यता का विकास एक विस्तृत भू-भाग में हुआ। उसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारतीय प्रायद्वीप के भाग शामिल हैं।

अफगानिस्तान में मंडीगॉक तथा सोरतूगई ये दो मुख्य पुरास्थल हैं। वहीं पाकिस्तान के बलूचिस्तान, पंजाब में हड़प्पा, डेरा इस्माइल खान, जमील पुर, रहमान ढेरी आदि मुख्य पुरा स्थल  हैं। सिंध प्रांत में मोहनजोदड़ो, चुनहुदाड़ो, अमेरी, कोटदीजी आदि मुख्य सभ्यता के केंद्र रहे ।  भारत के पंजाब में रोपड़, कोटलानिंहग खान, संघोल वाड़ा। हरियाणा के बाणावली, राखीगढ़ी तथा सिसवल।  जम्मू- कश्मीर में मांडा, उत्तर प्रदेश में मेरठ के आलमगीर का बड़ा गांव एवं हुलास। राजस्थान का कालीबंगा, गुजरात का रंगपुर, लोथल, रोजदी, सुरकोटदा। मध्य प्रदेश का दंगवाड़ा और एरन एवं महाराष्ट्र के दैमाबाद सभ्यता के मुख्य केंद्र रहे हैं।

इन ऐतिहासिक पुरास्थलों की खुदाई में मिले भग्नावशेषों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इन क्षेत्रों के पूरे नगर नियोजित थे। सभी जगहों पर एक ही प्रकार की नालियां, सड़कें, भवन आदि के निर्माण शैली मिलती है। नगर प्रायः परकोटो से घिरे थे। इसका एक स्पष्ट उदाहरण हड़प्पा की नागरीय व्यवस्था में  मिलती है।

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