“मगध के राजवंशों का आरंभिक इतिहास अंधकार में छिपा है। इस कारण मगध का प्रारंभिक इतिहास ‘हर्यंक कुल’ के प्रसिद्ध राजा “बिंबिसार” से प्रारंभ होता है। “मगध” को दिग्विजय और उत्कर्ष के जिस मार्ग पर उसने अग्रसर किया, वह तभी समाप्त हुआ जब “कलिंग विजय” के उपरांत “अशोक” ने अपनी तलवार को म्यान में शांति दी।”- साभार: डॉक्टर हेमचंद्र राय चौधरी, “नंद मौर्य युगीन भारत”, पृष्ठ संख्या- 2-3.
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प्राचीन काल में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की सत्ता देश में कायम थी, जिसे मगध के प्रतापी राजाओं ने इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर मगध साम्राज्य को अति बलशाली और विशाल बनाया। लगभग संपूर्ण उत्तरी भारत मगध साम्राज्य का अंग बन गया। इसका मूल श्रेय ऐसे तो मौर्य वंश के राजाओं को जाता है, किंतु इसके पूर्व भी अनेक शासकों ने अपने बाहुबल और वीरता से मगध साम्राज्य को प्रभुत्वशाली बनाया था। महात्मा बुद्ध के जमाने में मगध साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर था। उन दिनों मगध, कोशल, अवंती और वत्स ये चार प्रमुख राजतंत्र प्रसिद्ध थे।
मगध पर शासन करने वालों में प्राचीनतम राजवंश “वृहद्रथ” वंश को महाभारत और पुराण स्रोतों से पता चलता है। प्राग् ऐतिहासिक काल में ‘चेदी राज’ “बसु” का पुत्र बृहद्रथ ने ही राजगीर (गिरिवज्र) को अपनी राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। इसे ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। इसकी सीमा उत्तर में गंगा नदी, दक्षिण में विंध्याचल पर्वतमाला, पूर्व में चंपा नदी तथा पश्चिम में सोन नदी थी।
वृहद्रथ वंश का सबसे प्रतापी राजा महाभारत कालीन “जरासंध” था, जो वृहद्रथ का पुत्र था। वह अत्यंत पराक्रमी और बलशाली था। हरिवंश पुराण के अनुसार उसने कोशल, चेदि, काशी, बंग, कलिंग, सौबीर, मद्र, पांड्य, कश्मीर और गांधार के राजाओं को हराया था। यही कारण था कि जरासंध को “देवेंद्र” के समान तेज वाला तथा महाबली और महाबाहु के रूप में पुराणों में वर्णन आया है।
महाभारत में भी जरासंध के लिए कहा गया है कि “जिस प्रकार सिंह महाहस्तियों को पकड़ कर गिरिराज कन्दरा में बंद कर देता है, उसी प्रकार ‘जरासंध’ ने भी दिग्गज राजाओं को परास्त कर उन्हें “गिरिवज्र” में कैद कर रखा था। ‘हरिवंश पुराण’ में वर्णन आया है कि “जरासंध” के भय से श्री कृष्ण को मथुरा छोड़कर”द्वारका”‘ में शरण लेनी पड़ी थी।
जरासंध की मृत्यु के बाद मगध राज का पतन हो गया। फिर भी वृहद्रथ वंश के अनेक शासकों ने कुछ समय तक मगध पर शासन करते रहे। मगध राज का अंतिम शासक “रिपुंजय” था, जिसकी हत्या उसके मंत्री “पुलिक” ने ही कर दी थी और अपने पुत्र को मगध का शासक नियुक्त कर दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार आश्चर्य तो यह है कि “मगध के राजवंशों का आरंभिक इतिहास अंधकार में छिपा है। इस कारण मगध का प्रारंभिक इतिहास ‘हर्यंक कुल’ के प्रसिद्ध राजा “बिंबिसार” से प्रारंभ होता है। “मगध” को दिग्विजय और उत्कर्ष के जिस मार्ग पर उसने अग्रसर किया, वह तभी समाप्त हुआ जब “कलिंग विजय” के उपरांत “अशोक” ने अपनी तलवार को म्यान में शांति दी।”- साभार: डॉक्टर हेमचंद्र राय चौधरी, “नंद मौर्य युगीन भारत”, पृष्ठ संख्या- 2-3.
माना जाता है कि “बिंबिसार” ‘मगध के राज सिंहासन’ पर 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक बना रहा और उसके समय से ही मगध का उत्कर्ष प्रारंभ हुआ। वह एक सुयोग्य तथा शक्तिशाली शासक था। “सुमंगल विलासिनी” ग्रंथ के अनुसार वह “सैणिय” अर्थात ‘श्रेणिक’ महती सेना वाला नाम से भी प्रसिद्ध था। वह चक्रवर्ती सम्राटों के आदर्शों से प्रभावित और प्रेरित था। इस कारण उसकी महत्वाकांक्षा सर्वभौम साम्राज्य की स्थापना की थी।
“बौद्ध साहित्य” के अनुसार बिम्बिसार’हर्यंक वंश’ का था। किंतु कुछ विद्वानों ने उसे पुराणों के अनुसार शिशुनाग वंश का बतलाया है,जो गलत प्रतीत होता है। शिशुनाग का पुत्र ‘कालाशोक’ ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाई थी, जबकि बिंबिसार के शासनकाल तक पाटलिपुत्र का कोई अस्तित्व नहीं था। पाटलिपुत्र की स्थापना बिंबिसार का ही बाद का वंशज ‘उदयन’ ने की थी। “महालंकारवत्थु” नामक ग्रंथ के अनुसार शिशुनाग के बाद राजगृह की अवनति होती चली गई। जबकि बिंबिसार और अजातशत्रु के राज्य काल में राजगृह अति उन्नत अवस्था में था।
शिशुनाग ने ‘राजगृह’ की जगह “वैशाली” को अपनी राजधानी बनाई थी। इससे स्पष्ट होता है कि बिंबिसार शिशुनाग वंश का नहीं, बल्कि हर्यंक वंश का ही था। बौद्ध ग्रंथ “महावंश”के अनुसार बिंबिसार के पिता का नाम ‘भाति’ या ‘भातिय’ था। उसने अपने पुत्र बिंबिसार को 15 वर्ष की अल्प आयु में ही मगध के राज सिंहासन पर उसके पिता ने उसे आरुढ़ कर दिया था। कहा यह भी जाता है कि उसने 52 वर्षों तक राज किया, किंतु इसमेँ मतभेद है।
डॉक्टर “स्मिथ” के अनुसार बिंबिसार ने 582 ईसा पूर्व से 554 ईसा पूर्व तक शासन किया, परंतु कुछ अन्य विद्वानों ने इनका शासन काल 603 ईसा पूर्व से 551 ईसा पूर्व बताया है,जबकि डॉक्टर ‘राधा कुमुद मुखर्जी’ और डॉक्टर ‘हेमचंद राय चौधरी’ ने इनके शासन काल को 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक को माना है, संदर्भ:- “द एज ऑफ इंपीरियल यूनिटी”- पेज 37.