Tuesday, November 4, 2025
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मीडिया दर्शनः हाशिये पर चले गये गंभीर मुद्दे

पत्रकारिता की बुनियाद समाचार और विचार हैं। राष्ट्र और समाज के हितों के लिए इन दोनों के बीच मौलिकता होनी चाहिए। लेकिन आज विचारों की प्रस्तुति समाचारों से भिन्न होती दिख रही है। इन दोनों के बीच मौलिकता का अभाव ही पत्रकारिता के तय मानदंडों को आघात कर रहा है।

तथाकथित पत्रकारों ने शासन के इर्द-गिर्द ही पत्रकारिता का पैमाना तय कर लिया है।

पिछले कुछ सालों में मीडिया का चरित्र बहुत बदल गया है। भारत का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला पत्रकारिता का स्तम्भ कमजोर हुआ है। कभी शासन में दरबारी का रोल अहम हुआ करता था आज उसकी जगह तथाकथित पत्रकारों ने ले ली है। आज सबसे बड़ा सवाल है कि मीडिया शासन पर हावी है या शासन मीडिया पर। मीडिया चैनलों पर बेसिर पैर की डिबेट और सत्ता के हितों को ध्यान में रखते हुए पत्रकारिता करने से आज के निष्पक्ष पत्रकारों के सामने धर्म संकट खड़ा हो गया है। यहां तक की उनके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। स्पष्ट तौर पर कहें आज के दौर में मीडिया का रोल जयचंद और मीरजाफर से भी खतरनाक है, जो सत्ता की चाकरी भी करना चाहता है और अपनी बढ़त बनाये रखने के लिए अर्थात अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए दूसरों की जड़ें भी काट रहा है। पत्रकारिता का ऐसा दौर पहले कभी नहीं देखा गया।

आज के तथाकथित पत्रकारों ने शासन के इर्द-गिर्द ही पत्रकारिता का पैमाना तय कर लिया है। आज प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो, सोशल मीडिया पर तथाकथित खबरें भ्रमित करती हैं। फेक न्यूज के प्रसार बढ़ने से पत्रकारिता कलंकित हो रही है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग पत्रकारिता को बदनाम कर रहा है। तथाकथित न्यूज एंकरों की भूमिका अब सरकारों/ शासन प्रतिनिधियों के पीआर के रूप में दिखती है। न्यूज चैनल के कुछ एंकर गैरजरूरी मुद्दों को उछालकर गंभीर मुद्दों से जनता का ध्यान हटा रहे हैं।

देश के सामने गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी … जैसे बड़े मुद्दे आज हाशिये पर चले गये हैं। पत्रकारों के निजी हितों और शासन-प्रशासन के शीर्ष पदस्थ से सम्पर्क बढ़ाने की लालसा ने भी मीडिया का बेड़ा गर्क किया है। आज जिसकी जितनी ऊंची पहुंच, उसकी उतनी ऊंची साख के तौर पर देखी जा रही है।

सत्ता का एक चरित्र होता है। चाहे वह राजतंत्र का हो, लोकतंत्र का हो या फिर तानाशाही का। शासनतंत्र को अपने खिलाफ कुछ भी पसंद नहीं। इसलिए आज के दौर में कुछ तथाकथित पत्रकार सत्ता की गोद में बैठना ज्यादा पसंद कर रहा है।जबकि, सच कहने और सच पूछने वाला पत्रकार मीडिया बिरादरी में ही बदनाम हो जाता है। ऐसा हाल के दिनों में देखने को मिल रहा है। अगर सरकार और समाज के सामने सच रखने का माध्यम ही गलत होने लगे तो फिर किससे उम्मीद की जा सकती है।

पत्रकारों का किसी विषय-वस्तु पर अपने-अपने तरीके से नजरिया पेश करना अच्छी बात है और ऐसा होना भी चाहिए। यही पत्रकारिता का मूल धर्म भी है, लेकिन जब पत्रकार पक्षापात का चश्मा पहनकर नजरिया पेश करने लगे तो यह पत्रकारिता के लिए खतरनाक चलन है।

पत्रकारिता की बुनियाद समाचार और विचार हैं। राष्ट्र और समाज के हितों के लिए इन दोनों के बीच मौलिकता होनी चाहिए। लेकिन आज विचारों की प्रस्तुति समाचारों से भिन्न होती दिख रही है। इन दोनों के बीच मौलिकता का अभाव ही पत्रकारिता के तय मानदंडों को आघात कर रहा है। प्रतिक्रियाएं आधारभूत तत्व को ही प्रभावित करती है। किसी घटना के संदर्भ में चित्रण, विवरण और शब्दों के चयन अगर मेल नहीं खाते तो यह समझ लेना चाहिए कि इसमें कुछ न कुछ लोचा है। या तो पत्रकार उस सच को छिपाना चाह रहा है या फिर उसे बढ़ा चढ़ाकर पेश कर रहा है। आज इसी फर्क को समझने की जरूरत है कि उक्त पत्रकार किसके लिए पत्रकारिता कर रहा है ? राष्ट्र के लिए, समाज के लिए, शासन-प्रशासन के लिए या फिर अपने हितों की पूर्ति के लिए ?

 

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