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पालघर विमर्श: एक अर्नब इस राह में…

न्यूज चैनल रिपब्लिक भारत के एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी ने जब कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी से साधुओं की लिंचिंग पर सवाल किया तो मधुमक्खी की तरह सेक्युलर गैंग उनपर टूट पड़ा है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि भविष्य में कोई पत्रकार कांग्रेस से उनकी छद्म सेक्युलर राजनीति पर कोई सवाल नहीं उठा सके। सोनिया गांधी से सवाल पूछने के कारण अर्नब गोस्वामी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाली कांग्रेस पार्टी को आज खुद से सवाल करने की जरूरत है कि, नैतिकता के इस दोहरे मानदण्ड से पार्टी को क्या हासिल होने वाला है?

महाराष्ट्र के पालघर में दो हिन्दू संतों की हत्या ने शासन-प्रशासन को कटघरे में खड़ा कर दिया है। क्योंकि दोनों साधुओं और एक ड्राइवर की मॉब लिंचिंग पुलिस की उपस्थिति में हुई है। सरकार इसे भरसक छिपाने की कोशिश करे कि यह शासन-प्रशासन की नाकामी नहीं है, लेकिन वस्तुस्थिति को देखने-समझने वाले इसे नकार नहीं रहे हैं।

महाराष्ट्र में कथित राष्ट्रवादी और सेक्युलर पार्टी की मिलीजुली सरकार चल रही है। लिहाजा हर घटनाओं में शासनिक-प्रशासनिक कार्रवाई का भी मिला जुला असर दिख रहा है। इस घटना ने मुंबई पुलिस की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगा दिया है।

महाराष्ट्र सरकार में साझीदार कांग्रेस से जब न्यूज चैनल रिपब्लिक भारत के एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी ने कई सवाल कर दिये तो इस पार्टी के सिपहसलार आग बबूला हो उठे।  सरकार में एक साझीदार पार्टी की भी जिम्मेदारी बनती है इसलिए सवाल तो पूछना जायज है।

क्योंकि, आंतंकियों की मौत पर आंसू बहाने वाली कांग्रेस चीफ सोनिया गांधी पालघर पर चुप्पी साध ली है, और अब तक उनकी तरफ से एक बयान अथवा प्रेस रिलीज तक नहीं जारी किया गया है। अखलाख, पहलू खान, तबरेज अंसारी पर मीडिया के समक्ष रोदन करने वाली यह पार्टी आज अगर पालघर पर खामोश है तो सवाल हो उठना लाजिमी है कि, क्या धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ने वाली कांग्रेस को सिर्फ विशेष समुदाय के हित में बोलना अच्छा लगता है। जब किसी मुसलमान अथवा गैर हिन्दू की देश में लिंचिंग होती है तो सभी सेक्युलर एवं वामपंथी दल इसे असहिष्णुता करार देते है। लेकिन जब लिचिंग में किसी हिन्दू की मौत होती है तो ये सभी संवेदना प्रकट करने से भी परहेज करते हैं।

जब अर्नब गोस्वामी ने सोनिया गांधी की चुप्पी पर सवाल किया तो कांग्रेस पार्टी की ओर से उनके खिलाफ कई एफआईआर दर्ज करा दिये गये।  कांग्रेसियों का मानना है कि कोई पत्रकार सोनिया गांधी से सवाल कैसे कर सकता है ? सोनिया गांधी तो कांग्रेस की राजमाता हैं।

एफआईआर के संदर्भ में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का कहना है कि अर्नब की भाषा सोनिया गांधी के प्रति अपमानजनक थी और यह संविधान के खिलाफ है। अर्नब गोस्वामी से मुंबई पुलिस ने 12 घंटे तक पूछताछ की है।

जबकि, रिपब्लिक भारत की डिबेट को देखा जाये तो अर्नब गोस्वामी ने वाजिब सवाल किया है और उन्होंने सिर्फ इतनी ही गलती की है कि वह सोनिया गांधी से उनका असली नाम एंटोनियो माइनो कहकर सवाल किया है। अर्नब ने डिबेट के दौरान सवाल किया कि अगर पालघर में हिन्दू साधु की जगह किसी मौलाना या पादरी की मॉब लिंचिंग में हत्या हो गई होती तो क्या सोनिया गांधी उर्फ एंटोनियो माइनो खामोश रहती ?

सवाल से झल्लाई कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई । अर्नब गोस्वामी के खिलाफ सोनिया गांधी की ओर से केस लड़ने वाले ज्यादातर वकील पार्टी के उच्च पदों पर काबिज हैं।

कांग्रेस ने मीडिया की आवाज को दबाने के लिए जो कदम उठाया है वह कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता है। इतना ही नहीं अर्नब गोस्वामी की कार पर हमला भी किया गया जिसपर वह खुलकर कह रहे हैं कि हमला कांग्रेस ने कराया है।कहना यह उचित होगा कि अर्नब गोस्वामी का मुद्दा कांग्रेस के लिए गले की फांस बनता दिख रहा है और अब यह पार्टी बीच का रास्ता तलाश रही है।

अगर भाषा की मर्यादा को ही अर्नब गोस्वामी के खिलाफ केस को आधार मानकर चले तो कांग्रेस को भी अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है। कांग्रेस के कई ऐसे नेता अपने बयानों के कारण पूरी पार्टी को कई बार शर्मसार कर चुके हैं और वह खुलेआम मंच पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपशब्द कह चुके हैं। कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दीजिए, सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने भी कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के शीर्ष नेताओं को को अपशब्द कहा है, लेकिन बीजेपी ने इसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता मानते हुए कभी गंभीरता से नहीं लिया।

भाषा की मर्यादा और वैचारिकता की इतनी चिंता है तो कांग्रेस पार्टी को नरेन्द्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के दिये बयान को भी गंभीरता से लेने की जरूरत है। कांग्रेस को दूसरों के अपमान का भी ख्याल रखना चाहिए।

जबकि, पालघर में दो साधू और एक ड्राइवर की लिंचिंग में मारा जाना अधिकांश मीडिया की नजर में बहुत छोटी घटना है। इस मामले पर देश के बड़े-बड़े पत्रकारों ने विमर्श करना भी उचित नहीं समझा अथवा कुछ पत्रकारों ने सिर्फ इसपर औपचारिकता निभाई है।

देश को यह जानना जरूरी है कि छोटी-छोटी घटनाओं को साम्प्रदायिक एंगल देने वाले पत्रकार इस मामले पर चुप क्यों हैं ? इतना ही नहीं सेक्युलर जमात के कई पत्रकारों के मुंह में दही जम गया है। सवाल पूछने वाले ही आज सवालों के घेरे में हैं।

हर छोटी-छोटी घटनाओं के लिए मोदी सरकार एवं बीजेपी नेतृत्व राज्य सरकारों की कार्यशैली पर सवाल खड़ा करने वाले पत्रकार महाराष्ट्र सरकार से इतनी बड़ी घटना पर सवाल पूछना भी उचित नहीं समझ रहे हैं। वह इस घटना की वजह को भीड़ और अफवाह  के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं।

एक अकेला अर्नब गोस्वामी ने जब सोनिया गांधी से सवाल किया तो मधुमक्खी की तरह सेक्युलर गैंग उनपर टूट पड़ा है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि भविष्य में कोई पत्रकार कांग्रेस से उनकी छद्म सेक्युलर राजनीति पर कोई सवाल नहीं उठा सके।

कांग्रेस ने डर की राजनीति कर सियासत का लम्बा सफर तय किया है। कांग्रेस अल्पसंख्यकों को बीजेपी,  हिन्दुत्व और असहिष्णुता का डर दिखाकर मुस्लिम वोट एकतरफा करने का भरसक प्रयास आज तक कर रही है। अब मीडिया को कोर्ट-मुकदमे का डर दिखाकर सच को दबाना चाह रही है। हाशिये पर जाती हुए कांग्रेस दिग्भ्रमित तो हो चुकी है। नैतिकता की दुहाई देने वाली कांग्रेस की सारी नैतिकता वहां खत्म हो जाती जब मोदी सरकार को घेरने का एक बहाना मिल जाये।

सोनिया गांधी से साधुओं की लिंचिंग पर सवाल पूछने के कारण अर्नब गोस्वामी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाली कांग्रेस पार्टी को आज खुद से सवाल करने की जरूरत है कि, नैतिकता के इस दोहरे मानदण्ड से पार्टी को क्या हासिल होने वाला है?

क्योंकि अर्नब गोस्वामी डंके की चोट पर कह रहे हैं कि वह पीछे हटने वाले नहीं हैं। आश्चर्य यह है कि पीसीआई छोड़कर शीर्ष मीडिया संगठन इस मसले पर खामोश है। जबकि इस दौर में सभी मीडिया चैनलों और मीडिया संगठनों को कांग्रेस की इस हरकत को मौखिक अथवा लिखित विरोध करने की जरूरत है। ताकि भविष्य में कोई राजनीतिक पार्टी कोर्ट-मुकदमे का डर दिखाकर मीडिया की आवाज को दबाने की हिम्मत नहीं करे।

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