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खेत-मंडी-उपभोक्ता के बीच अनाजों के भाव में कई गुना अंतर को समझना जरूरी

बिहार के समस्तीपुर जिले की एक खबर अभी सुर्खियों में है। दरअसल, एक किसान ने कई बीघे में उपजी गोभी पर ट्रक्टर चलवा दिया। आस-पास के लोग इस खबर को सुनकर गोभी को लूटने के लिए खेतों में दौड़ पड़े। वजह, सुनकर हैरानी होगी। किसान के मुताबिक, उस गोभी को एक रूपये किलो बिचौलिये ने खरीदने की बात कही। इसपर किसान ने जोड़-घटाव और गुणा करके देखा तो बेचने के बाद लागत भी भी निकलना मुश्किल था। जबकि, शहर में अभी भी गोभी 20-25 रूपये किलो बिक रही है। गुस्से में उस किसान ने अपने खेतों में ट्रैक्टर चलवाने का आदेश दे दिया। खबर इस तरह वायरल हुई कि केन्द्र सरकार हरकत में आ गई। आनन-फानन में केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दस रूपये किलो के भाव से गोभी को दिल्ली भिजवाया। लेकिन हर किसानों की नसीब ऐसी नहीं होती। उन्हें औने-पौने दामों पर ही अपने अनाजों को बेचने पड़ते हैं।

खेत से निकलकर बाजार तक पहुंचते-पहुंचते अनाजों एवं सब्जियों की कीमत में इतनी बड़ी अंतर को किसान अपने कलेजे पर पत्थर रखकर ही झेल पाते होंगे। क्योंकि अनाज उपजाने वालों को कीमत तय करने का अधिकार नहीं है।
अभी भी खेतों से निकला दो-तीन रूपये किलो आलू जब उपभोक्ता तक पहुंचता है तो उसकी कीमत औसतन तीस-चालीस रूपये पहुंच जाती है। इसमें किसानों का कहां भला हुआ? यह सारा खेल मंडी और उसे नियंत्रित करने वाले बिचौलियों का है जिसपर सरकार ने लगाम लगाने का फैसला किया है। यह तय है कि नये कृषि कानून के लागू होने के बाद मंडी का स्वरूप बदल जायेगा जो इस व्यवसाय से जुड़े बिचौलिये नहीं चाहते।

खेत-मंडी-बाजार से होते हुए उपभोक्ता तक पहुुचने वाले अनाजों की कीमतों में लदान एवं अन्य भाड़े को मिलाकर 4-5 फीसदी तक के अंतर को जरूरी भी माना जा सकता है। लेकिन 2 रूपये किलो आलू खरीदकर बाजार में उसकी कीमत 20-25 रूपये तक तय कर दो, यह उपभोक्ताओं से लूट नहीं सीधे-सीधे उनकी जेब पर डाका है। इतने बड़े अंतर को पाटने का अब तक सरकार के पास कोई तय फार्मूला नहीं रहा है। केन्द्र सरकार इसी अंतर को औसत दर बनाकर पाटने की कोशिश में है अथवा किसानों को छूट देना चाहती है कि वह जहां चाहे, जिसे चाहे अपना अनाज बेचने के लिए स्वतंत्र है।

पिछले सात दशकों में केन्द्र में सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस की सरकार रही है। उदारीकरण के नाम पर बाजार को बिचौलियों के हाथों में सौंपने की प्रवृत्ति आज की देन नही है। सात दशकों में भी किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं आये तो इसके लिए सरकारी सिस्टम को कैसे नहीं जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अब केन्द्र की मोदी सरकार ने कई दशकों से चली आ रही उस सिस्टम में कोई सुधार करने का फैसला किया है तो इसमें किसानों का घाटा कहीं से भी नहीं दिख रहा है। हां इस नये कृषि कानून से बिचौलियों की परेशानी बढ़ सकती है।

केन्द्र सरकार का कहना है कि यह कानून बिचौलियों को रोकने के लिए बनाया गया हैं। नये एपीएमसी एक्ट और एमएसपी से किसानों को भला होगा। अब वह अपना अनाज कहीं भी और किसी से भी बेचने को स्वतंत्र हैं। लेकिन कुछ किसान सरकार के इस नये कानूस से सहमत नहीं है। उन्हें भविष्य में पूंजीपतियों से अपनी जमीन छीनने का डर सता रहा है। भविष्य में प्राइवेटाइजेशन को लेकर किसानों की शंका को और बढ़ा दी है।

जबकि, सरकार किसानों को आश्वस्त कर रही है कि इस काूनन में कहीं भी जमीन का जिक्र नही है। किसानों के हितों के लिए कानून बनाया गया है जो बिचौलियों से उन्हें निजात दिलायेगा और मंडी पर किसानों की निर्भरता भी खत्म होगी।
छोटे शहरों में किसानों के अनाजों की गुणवत्ता को कम बताकर उसे औने-पौने दाम पर बिचौलिये मंडी में बेच देते हैं, इसमें बिचौलियों को मंडी से भरपूर कमीशन मिलता है। फिर मंडी संचालक अपने हिसाब से उसे बाजार में भेजते हैं। इसमें सबसे बड़ा घाटा किसानों का होता हैं। क्योकि वह अपने अनाज को बेचने के लिए मंडी पर निर्भर है।

जबकि, किसानों के लिए मंडी के साथ-साथ एक अन्य प्लेटफार्म भी सरकार उपलब्ध करा दी है वह है खुला बाजार। जहां किसान अपने हिसाब से अपने अनाज को बेच सकते हैं। मंडी संचालक भी अपने हितों को ध्यान में रखकर कई यूनियन अथवा संगठन बना लेते हैं जिनकी शर्तो को कारोबारियों को मानना पड़ता है। जिनमें शर्त यह भी होती है मंडी से ही कारोबारियों को अनाज अथवा अन्य कृषि उत्पादों को खरीदना है। किसान से डायरेक्ट कोई भी व्यापारी अनाज अथवा अन्य खाद्य सामग्री को नहीं खरीद सकता है। अगर कोई व्यापारी ऐसा करता है कि संगठन उसपर जुर्माना ठोक देता है। इसलिए किसान अपने अनाज को बेचने के लिए एकमात्र मंडी पर ही निर्भर रहते हैं और उसके लिए उन्हें बिचौलियों का सहारा लेना पड़ता है। यह व्यवहारिक है और छोटे-छोटे शहरों की मंडियों में अपने अनाज को बेचने के लिए किसानों को बिचौलियों के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा जा सकता है।

टीवी चैनलों अथवा बंद एसी कमरे में देश की अर्थव्यवस्था का आकलन करने वालों को कभी-कभी पगडंडियों पर भी चलना चाहिए। जिससे देश के बाजारों की वास्तविक स्थिति और किसानों की दशा का भी पता उन्हें चल सके।
सरकार खाद्य पदार्थ पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को आधार बना देती है जो हर साल उपर नीचे होता रहता है। इसे स्थायी तौर पर अथवा लम्बी अवधि के लिए फिक्स नहीं किया जा सकता। जबकि किसान एमएसपी को फिक्स करने की मांग कर रहे हैं। यह कैजुअल्टी पर आधारित है। अगर ऐसा होता है तो किसानों को और घाटा उठाना पड़ सकता है।

अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट भी सरकार और किसानो को आपसी समन्वय स्थापित कर मामले को सुलझाने का निर्देश दिया है। क्योंकि दिल्ली एवं आस-पास के इलाकों से सड़क मार्ग से गुजरने वालें लोगों को किसान आंदोलन के कारण काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार ने चौकसी बरतते हुए संबंधित हाइवे को बंद कर दिया है जिससे दिल्ली से हाइवे से होकर उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा एवं उससे होते हुए आगे का सफर तय करना राहगीरों के लिए काफी मुश्किल है।

आंदोलन के कारण जाम हो चुकी सड़कों को खाली कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। इसपर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि, किसानों को आंदोलन करने का हक है लेकिन वह सड़क जाम नहीं कर सकते है। आम आदमी को होने वाली परेशानियों को समझते हुए किसानों को आंदोलन का तरीका बदलने पर विचार करना चाहिए।

सरकार के साथ किसानों की अब तक कई दौर की वार्ता हो चुकी है लेकिन इसका हल अब तक नहीं निकला है। क्योंकि किसान नये कृषि कानून को रद्द करने की मांग पर अड़े हैं। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो आंदोलनकारी एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। बल्कि अब रेल का चक्का जाम करने एवं हरियाणा से दिल्ली में दूध एवं अन्य जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति रोकने की बात कर रहे हैं। अगर जल्द इसका समाधान नहीं निकल पाया तो दिल्ली में हालात बिगड़ सकते हैं।

बहरहाल, वाटरप्रूफ टेन्ट, हटीर, बर्गर, पेटीज, पिज्जा, चौमिन, मैगी, गाजर का हलवा, पनीर, पास्ता, चाय कॉफी, शूप, सैलून, जिमखाना, इंटरटेनमेंट के साधन, मोदी विरोधी नारे, अर्बन नक्सलियों और देश द्रोहियों के पोस्टर किसान आंदोलन की शोभा बढ़ा रहे हैं।

अब इस आंदोलन में कई राजनीतिक दल का झंडा दिखने लगा है। कई राजनीतिक दल के प्रमुख अथवा पार्टी के शीर्ष नेता वहां पहुुंचकर किसानों के हित में और केन्द्र सरकार के विरोध में भाषण देकर इसे भूनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहे। 2021 में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और यह मुद्दा देश के किसानों से जुड़ा है। इसलिए उन राज्यों में यह मुद्दा चुनावों में मुख्य रूप से छाया रहेगा।

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