Thursday, May 22, 2025
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एनआरसी: साम्प्रदायिक एजेंडे में शामिल कौन ?

यह सच है कि कोई भी देश अवैध नागरिकों को अपने यहां शरण नहीं देना चाहता। हर देश शरणार्थी को लेकर कुछ नियम बनाता है जिसके दायरे में ही शरणार्थियों को रहना पड़ता है। लेकिन भारत में अवैध तरीके से प्रवेश करने वाले लोग कुछ दिन शरणार्थी बनकर रहते हैं फिर यहां भारतीय नागरिक होने का दावा ठोकने लगते हैं। उसकी वजह यहां के कुछ ऐसे नेता है जो अवैध नागरिकों, अल्पसंख्यकों, जातिवादी एवं साम्प्रदायिक एजेंडे केे बल पर सत्ता का सुख पाना चाहते हैं। इन्हीं पार्टियों और नेताओं की वजह से भारत घुसपैठियों के लिए सॉफ्ट कॉर्नर बनता जा रहा है। भौगोलिक स्तर पर भारत कई ऐसी समस्याओं से घिरा है जिसे वोट बैंक की खातिर इस देश के नेता हमेशा दरकिनार करते रहे हैं।

असम में जारी किया गया एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन) अब राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बन गया है। विपक्षी दल तो इसे चुनावी मुद्दा बनाने की सोच रहे हैं। इस मुद्दे पर कुछ पार्टियां चुनावी मैदान में भी उतरेंगी। विपक्षी पार्टियों के बीच धू्रवीकरण भी तेजी से होता दिख रहा है। विपक्षी दल विरोध तो जरूर कर रहे हैंं लेकिन इस राष्ट्रहित से जुडे मुद्दे पर ठोस तर्क रखने में असमर्थ दिख रहे हैं। वे अपनी पार्टी हित और पार्टी लाइन से अलग कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। उनके पास सिर्फ पीएम नरेन्द्र मोदी को पानी पी-पी कर कोसना ही एकमात्र विकल्प बचा है।
देश की जनता यह तमाशा देख रही है कि वोट बैंक के लिए आज के नेता कहां तक गिर सकते हैं। वोट बैंक के लिए उन्हें देश में घुसपैठिये भी स्वीकार्य है जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बार-बार खतरा बन रहे हैं। फिर उनके लिए उन नेताओं का घड़ियाली आंसू बहाना कहां तक जायज है।

विपक्षी दल वोट बैंक को लेकर एनआरसी के मसले पर मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चाबंदी की तैयारी में जुटे हैं। जबकि केन्द्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और गाइडलाइन के आधार पर एनआरसी में डेटा को शामिल किया गया है। जिसमें 40 लाख लोग एनआरसी की लिस्ट से बाहर हो गये हैं। भारत सरकार के अनुसार ये वो लोग है जो भारतीयता का प्रमाण नहीं दे सके। इसलिए उन्हंें एनआरसी की लिस्ट से बाहर रखा गया है। हालांकि उन्हें अवसर दिया गया है कि मैनुअल मिस्टेक के कारण अगर जिनके नाम लिस्ट में नहीं हैं तो वे वैलिड डाक्यूमेंट्स के आधार पर अपना नाम शामिल करा सकते हैं।

बहरहाल, ये मसला आज का नहीं है। राजीव गांधी के जमाने से चलते हुए मोदी सरकार के शासनकाल में असम में एनआरसी का काम पूरा हुआ। पिछले पांच दशक से यह मसला सियासी नफा-नुकसान के कारण पूरा नहीं हो सका था। लेकिन बीजेपी ने असम विधानसभा चुनाव के दौरान ही घोषणा पत्र में कहा था कि असम से घुसपैठियों को निकाला जायेगा। इसका श्रेय बीजेपी लेना चाहती है और दिया जाना भी चाहिए। कम से कम बीजेपी सरकार में इतना तो स्पष्ट हो गया कि असम में 40 लाख लोग घुसैपठ के तौर पर रह रहे हैं। निशाना बांग्लादेशियों पर है जो असम ही नहीं देश भर में लाखों की संख्या में अवैध तरीके से रह रहे हैं। आजीविका की तलाश में भारत में आने के बाद यही बस जाने की मानसिकता बांग्लादेशियों एवं अन्य पड़ोसी देशों के लोगों में शुरू से रही है। यह सुरक्षा का सबसे गंभीर मुद्दा है। लेकिन इन तमाम मुद्दे को दरकिनार कर विपक्षी पार्टियां बीजेपी पर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने का आरोप लगा रही है। विपक्ष के आरोप हैं कि केन्द्र में बीजेपी की सरकार जानबूझकर एक विशेष वर्ग को निशाना बना रही है और अपने ही देश में उन्हें बाहरी बताने का षडयंत्र रच रही है।

शरणार्थी और घुसपैठ दो अलग मसले हैं और दोनों में बहुत फर्क है, जिसे विपक्षी पार्टियों को समझने की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य इस देश का है कि यहां राष्ट्रवाद पर घुसैपठ हावी होते दिखता है। अगर ऐसा नहीं है तो देश की अधिकांश विपक्षी पार्टियां यह समझने को तैयार क्यांें नहीं हैं कि असम में आबादी संतुलन बिगड़ने के कारण वहां की जनता ने घुसपैठ का विरोध करना शुरू किया और सुप्रीम कोर्ट से इसमें निर्णायक हस्तक्षेप की मांग की थी।
असम की जनता ने यह कहकर विरोध किया था कि राज्य में उनका हक बाहरी अर्थात घुसैपठिये छिन रहे हैं। 90 के दशक में इसी मुद्दे पर असम गण परिषद की सरकार बनी और प्रफूल्ल महंत मुख्यमंत्री बने। उसके बाद वहां कई बार कांग्रेस की सरकार बनी और यह मसला फाइलों में दबकर रह गया।

ये सरकारी तंत्र को भी पता है कि असम की सीमा में बांग्लादेश से अवैध तरीके से बांग्लादेशी प्रवेश कर जाते हैं। मीडिया के माध्यम से कई बार इसका खुलासा भी हुआ है कि घुसपैठ कर भारत की सीमा में प्रवेश कर ये बांग्लादेशी अवैध गतिविधियों में भी लिप्त हैं। बांग्लादेश से सटे भारत के कई सीमावर्ती एवं निकटस्थ राज्यों में अवैध बांग्लादेशियों के होने के प्रमाण भी मीडिया और सुरक्षा तंत्र को समय-समय पर मिलते रहे हैं। राष्ट्रीय खुफिया तंत्र का यहा तक मानना है कि अवैध बांग्लादेशी असम के अलावा अन्य सीमावर्ती राज्यांें मे भी पैर फैला रहे हैं।

विपक्षी दलों को इसपर इतनी हाय तौबा मचाना कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता। जो भारतीय नागरिक होगा वह दो-तीन पीढ़ियों के दस्तावेज भारत सरकार के सामने प्रस्तुत कर देगा। लेकिन जो भारत के नागरिक नहीं हैं, जो अवैध तरीके से भारत में निर्वासन कर रहे हैं, वह पीढ़ियों के तो क्या खुद के भी भारतीय नागरिक होने के सबूत पेश नहीं कर पायेंगे।
कोई नेता गृह यु़द्ध की तो कोई आपसी वैमनस्य की बात कर रहे हैैं। कुछ नेता तो खुलकर उन 40 लाख लोगों के पक्ष के खड़े दिख रहे हैं जो भारतीय नागरिक होने के प्रमाण नहीं जुटा पा रहे हैं। सरकार यह भी मान रही है कि तकनीकी स्तर पर कुछ खामियां हो सकती है जिससे कुछ लोगों के नाम एनआरसी की लिस्ट में छूट गये होंगे। उन्हें दोबारा मौका दिया गया है वह संबंधित कार्यालय में जाकर अपना नाम मूल दस्तावेजों के साथ जुड़वा सकते हैं। तो इसमें विपक्षी दल को दिक्क्त कहां हो रही यह समझ से बाहर है।

पिछले तीन-चार दशकों में असम में बड़ी संख्या में अवैध तरीके से बांग्लादेशी पहुंचे हैं। उन बांग्लादेशियों से राजनीतिक हितों को साधने के लिए वहां के कुछ स्थानीय नेताओं ने उन्हें भारतीय साबित करने के लिए हर हथकंडे अपनाये जो भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सही नहीं थे। उनके वोट उन नेताओं के लिए खास मायने रखने लगे और ये सभी अवैध नागरिक/बांग्लादेशी उन नेताओं के लिए चुनाव में ट्रम्प कार्ड साबित होने लगे। असम के कुछ इलाकों में जिन्हें सरकार ने अवैध नागरिक घोषित कर दिया है, उनके बल पर तो कई नेताओं ने सत्ता का स्वाद चखा है। विवाद की वजह ये भी है कि 40 लाख लोगों की नागरिकता खत्म होने के बाद अब वहां सियासी समीकरण बदलने की संभावना दिख रही है। जिनके ये वोट बैंक रहे हैं उन नेताओं के पेट में दर्द होना स्वाभाविक है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के माहौल बनाये जा रहे हैं जिससे दबाव में आकर केन्द्र सरकार एनआरसी को ठंढे वस्ते में डाल दे। मगर ऐसा होने की संभावना कम है। क्योंकि केन्द्र में मोदी सरकार है।

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