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श्री गुरु नानक शाह फकीर ! हिंदुओं के गुरु, मुसलमानों के पीर !!

पंजाब की धरती पर पन्द्रहवीं सदी में जन्में गुरु नानक देव जी महाराज एक महान् क्रांतिकारी, युग प्रवर्तक और अंधविश्वास, ढोंग- ढकोसला ,जादू टोना आदि समाज में फैले कुप्रथा के प्रबल विरोधी थे। उनके उपदेश अति प्रेरणादायक, उत्साहवर्धक एवं मार्गदर्शक होते थे। उन्होंने उन दिनों प्रचलित सभी धर्म हिंदू-मुस्लिम, बौद्ध, जैन, नाथ ,योगी, यति आदि संप्रदायों में फैली भ्रांतियों पर कस कर प्रहार किया था। समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, छुआ-छूत और जातिवाद के भेदभाव को भी मिटाने का उन्होंने प्रयास किया था।
इनका जन्म पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में हुआ था ,जो आज ननकाना साहिब (पाकिस्तान) से जाना जाता है । वहां कार्तिक पूर्णिमा संवत् 1526 तदनुसार 1469 ईस्वी को एक खत्री परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम कल्याण दास पटवारी था, जो मेहता कालू नाम से जाने जाते थे और इनकी माता तृप्ता थीं । 16 वर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह  सुलक्षीणी नामक कन्या से हुई थी, जो बटाला की रहने वाली थीं। इन्हें दो पुत्र श्रीचंद और लख्मी चंद थे। इनकी एक बड़ी बहन नानकी नाम की इनसे 5 वर्ष की बड़ी थीं । इनके जन्म का होना अति शुभकारी माना गया है। कहा गया है कि जिस प्रकार पूनम का चांद निकलते अंधकार समाप्त हो जाता है और सूरज निकलते तारे सभी छुप जाते हैं, उसी प्रकार इनके जन्म लेते ही समाज में फैली सारी भ्रांतियां रूपी अंधकार प्रकाश में बदल गई ।
“मिटी धुंध जग चानन होया,जीउ कर सूरज निकलया,
तारे छूपे अंधेर पलोया।”
गुरु नानक देव सिखों के प्रथम गुरु माने गए हैं । इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव, नानक शाह आदि नामों से संबोधित करते हैं । ये एक प्रबल समाज सुधारक, देशभक्त, गृहस्थ, योगी , दार्शनिक, धर्म सुधारक आदि गुणों के पुरोधा माने जाते हैं। इनके पुत्र में भी वे गुण मौजूद थे।
साधुओं का एक संप्रदाय “उदासी संप्रदाय”  है, जिसमें इस संप्रदाय की ही कुछ शिक्षाएं सिख-पंथ से ली गई हैं । इसके संस्थापक इनके पुत्र श्री चंद जी माने जाते हैं । इस पंथ के माननेवाले लोग सनातन धर्म को मानते हैं और पंच- प्रकृति में विश्वास रखते हैं । ये पंच प्रकृति हैं– जल ,अग्नि, पृथ्वी ,वायु और आकाश। इसकी ये पूजा करते हैं। इनके अनुयायी सांसारिक बातों की ओर से तटस्थ रहते हैं। इनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति तथा भोली- भाली स्वभाव के कारण गुरु अमर दास और गुरु हर गोविंद ने इन्हें जैन धर्म द्वारा प्रभावित माना है, जबकि गुरु हर गोविंद के पुत्र बाबा गुराँदिता ने इस पंथ के विकास और प्रचार में भरपूर सहयोग दिया था।
नानक देव जी निर्गुण के उपासक थे। उन्होंने इसका प्रचार- प्रसार किया और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान है और वह सत्य है। इसके प्रचार-प्रसार हेतु उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएं भी की उनमें -हरिद्वार, अयोध्या, प्रयागराज, काशी, गया, पटना, असम, पुष्कर, दिल्ली, पानीपत, कुरुक्षेत्र, पूरी, रामेश्वरम्, द्वारका, लाहौर, मुल्तान आदि प्रमुख हैं। उन्होंने भाईचारा, एकता, और जातिवाद को मिटाने के लिए कुछ आवश्यक उपदेश और कदम उठाये।
उनके उपदेशों में 10 निम्नलिखित उपदेश हैं-
 पहला- ईश्वर एक है, वह सर्वत्र विद्यमान है और हम सबका पिता वही है।
 दूसरा- लोभ को त्याग कर अपने हाथों से मेहनत कर न्यायोचित तरीके से धन अर्जन करना चाहिए।
 तीसरा- कभी भी किसी का हक नहीं छीनना चाहिए और ईमानदारी की कमाई से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए। चौथा- धनको जेब तक ही सीमित रखना चाहिए उसे अपने हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए।
 पांचवा- स्त्री जाति का आदर करना चाहिए।
 छठा- तनाव मुक्त रहकर अपने कर्मों को निरंतर करते रहना चाहिए तथा सदैव प्रसन्न भी रहना चाहिए।
 सातवां- संसार को जीतने से पहले स्वयं आपने विकारों पर विजय पाना चाहिए।
आठवां-अहंकार मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए। विनम्र होकर सेवा भाव से जीवन व्यतीत करना चाहिए।
नौवां- गुरु नानक देव जी पूरे संसार को एक घर मानते थे और संसार में रहने वालों को परिवार का हिस्सा।
दशवां- लोगों को प्रेम, एकता, समता,भाईचारा और आध्यात्मिक ज्योति का संदेश देना चाहिए। ये थे उनके संसार को दिए मूल संदेश।  सन् 1504 से 1507 ई. के बीच गुरु नानक देव जी ने सुल्तानपुर के नवाब दौलत खान के यहां मोदी के रूप में नौकरी करने लगे। बचे हुए समय में वे प्रभु में भक्ति, कीर्तन आदि में रुचि लेते थे। तब एक दिन उन्होंने इससे दूर हट कर नौकरी को त्याग दी और भाई बालाजी तथा मरदाना जी को साथ लेकर वे तीर्थ यात्रा पर वर्ष 1507 के सितंबर माह में उदासी वस्त्रों को अंगीकार कर पूरब दिशा की ओर निकले पड़े , जो इनकी पहली “उदासी यात्रा” कहलाती है ।
सर्वप्रथम ये व्यास नदी पार कर एनमाबाद- गोईदबाल में प्रवचन देते हुए लाहौर पहुंचे,जहां उन्होंने राग”आशा दी-वार” की रचना की।  इसके बाद वे हरिद्वार में वैशाखी के अवसर पर पहुंचे, जहां वे विद्वानों और ज्ञानियों के बीच निरर्थक रीति-रिवाजों तथा कर्मकांडों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने पितरों के नाम पर सूर्य को जल का अर्घ्य अर्पण करने और और उनसे आशा करना कि यह जल उनके पिता को मिलेगा, यह उतना ही असंभव है जितना कि पश्चिम की ओर मुख करके अंजलि भर पानी को खेतों में पहुंचाना है। लगभग इसी प्रकार की भ्रांतियों का समाधान अपने प्रवचनों के माध्यम से देते हुए गढ़वाल, बरेली, लखनऊ, कानपुर होते हुए वे प्रयाग- त्रिवेणी पहुंचे, जहां उन्होंने उपदेश दिया कि जिस प्रकार तीन नदियों के संगम से त्रिवेणी बनी उसी प्रकार मन,चित्त और बुद्धि की संगत से वास्तविक जीवन की त्रिवेणी बनती है। यहाँ के बाद वे अयोध्या होते हुए वाराणसी पहुंचे। वाराणसी में एक विद्वान पंडित चतरदास से मिले। उन्होंने उनसे प्रश्न किया कि आप किस प्रकार के धर्म प्रचारक और ज्ञान गोष्टी के ज्ञाता है ? ना तो आप साधुओं के वस्त्र धारण किए हुए हैं और नहीं तो आपके गले में किसी प्रकार की कंठी माला ही है। तब गुरु नानक देव जी ने उन्हें समझाया कि वाह्य पहनावा, दिखावटी कंठी माला से परे वास्तविक ज्ञान एवं आस्था ही जीवन में मुख्य है। उसी प्रकार शुद्धता के नाम पर दिखावटीपन और छुआछूत अलग से बना। आडंबरपूर्ण अतिथि को भोजन शुद्ध नहीं होता है बल्कि आत्मीयता, प्रेम सद्भाव अतिथि सत्कार ही सत्य है।
वाराणसी में ये भक्त रविदास और मगर गांव के भक्त कबीर से भी मिले। ये दोनों इनके ही विचारधारा के समाज सुधारक थे। ये दोनों जनता को अंधकारमय कुएं से निकालकर सत्य का दर्शन करा रहे थे। इनकी वाणी से प्रभावित हो गुरु नानक देव जी उनके उपदेशों को अपने श्री गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल भी किया है।
 इसके बाद वे गया तीर्थ पहुंचे। यहां वे भाई मरदाना जी को साथ लेकर 1508 ई० में बैसाखी के अवसर पर सासाराम, नवीनगर आदि स्थानों होते हुए पधारे । इन स्थानों में उन्होंने उदासी संस्थाओं की स्थापना भी की। गया की पवित्र भूमि में  उन्होंने- “दीवा एको नाम–/” नामक प्रसिद्ध वाणी उच्चारण किया जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब के 358 (अंक) में सम्मिलित है। यहां  गुरु नानक देव जी प्रमुख विद्वानों के बीच ईश्वरीय चर्चा एवं प्रवचन सत्संग किए। वह स्थान आज भी गया में “उदासी गुरुद्वारा” पवित्र “नानकशाही संगत” के रूप में शाहमीर तक्या में विद्यमान है। उन्होंने यहां पिंडदान से ज्यादा मानव समाज में व्याप्त कुरीतियों को त्यागने और परोपकार पर बल दिया ।
वे पास के बोधगया स्थित मठ में भी गए, जहां महंत श्री गिरी के यहां अतिथि के रूप में रहे। उल्लेखनीय है कि श्री देव गिरि की तीसरी पीढ़ी महंत श्री भगत गिरी अपने 360 महंत समूह के साथ इनके शिष्य रुप में सम्मिलित हुए जो आज भी ये भगत भगवान के रूप में जाने जाते हैं।
यहां से वे रजौली गए और भूतल शाह पीर से कुछ समय धर्म चर्चा में बिताए। कुछ समय और भूतल शाह के आग्रह पर वहां रुके। वहां भूतल शाह ने उनकी संगत की स्थापना कर उसे उन्होंने बड़ी संगत का दर्जा दिया और अपनी जमीन की दरगाह का छोटी संगत का दर्जा दिया। आज भी वहां एक भूतल शाह की दरगाह और एक  बड़ी संगत श्री गुरुद्वारा के नाम से जाना जाता है। किसी भी शुभ कार्य पर पहले बड़ी संगत और बाद छोटी संगत यानी (दरगाह) का आशीर्वाद लोग लेते हैं ।
इसके बाद वे राजगीर, पटना, हाजीपुर, मुंगेर, भागलपुर आदि जगहों में भी गए और वहां उन्होंने उदासी संगत (गद्दी) की स्थापना की। अंत में देश व विदेशों की यात्रा समाप्त कर वे करतारपुर पहुंचकर उदासी वस्त्र उतारकर साधारण गृहस्थ का रूप धारण किया। वर्ष 1540 ईस्वी में वे अपने जीवन के अंतिम चरण में एक बार बटाला भी गए और वहां से वापस आकर अपने जीवन शिष्य लहंगा जी को अपनी “गुरु गद्दी” सौंप दी साथ ही उनका नामकरण ‘गुरु अंगद देव जी’ दिया और उन्हें आशीर्वाद दिया।
 गुरु नानक देव जी का शरीर त्याग 22 सितंबर 1540 को करतारपुर में हुआ। संसार में यही एक पूर्ण पुरुष हुए जिनका अंतिम संस्कार दो रीतियों से हुआ था- “हिंदू एवं मुसलमान”। एकता एवं सद्भावना का प्रतीक स्वरूप समाधि स्थल और मकबरा दोनों की एक ही दीवार है,जहाँ अपनी मान्यताओं के अनुसार दोनों समुदाय के लोग उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसी कारण यह कहा गया है  कि —
“श्री गुरु नानक शाह फकीर,
 हिंदुओं के गुरु, मुसलमानों के पीर।”

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