April 2, 2025

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साम्राज्य का विस्तार करने के लिए मगध सम्राट बिंबिसार ने नायाब तरकीब अपनायी…

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भारत के राजवंशों की कहानी पार्ट- 3

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मगध सम्राट बिंबिसार यद्यपि महात्मा बुद्ध के अनुयायी थे, किंतु अन्य धर्मों के प्रति भी वे बड़े सहिष्णु थे। बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में उन्हें ब्राह्मण को हित करने वाला राजा बताया है। उन्होंने ‘कुटदंत’ नामक ब्राह्मण को खानमुत्त गांव तथा ‘सोनदंड’ ब्राह्मण को चंपा नगर की आय दान में दे रखी थी।

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मगध नरेश बिंबिसार ने अपनी सत्ता कायम रखने तथा बिहार की संस्कृति और साम्राज्य को विस्तार करने के लिए एक नया नायाब तरीका ढूंढ निकाला, जिसका सहारा लेकर पड़ोसी शक्तिशाली राज्यों से उन्होंने मित्रता कायम कर ली। वह नायाब तरीका था,” विवाह संबंध”। उन दिनों मगध के अलावा तीन अन्य बड़े शक्तिशाली राज्य थे, जिससे लोग लोहा लेने में भय खाते थे। वे थे- कोशल, अवंती और वत्स।

बिंबिसार एक कुशल प्रशासक, राजनीतिक,कूटनीतिक तथा बलशाली राजा थे। उन्होंने सर्वप्रथम “कोशल” के शासक ‘महाकोशल’ की पुत्री राज कुमारी”कोशाला” जो प्रसेनजीत की बहन थी, उससे विवाह किया। इस विवाह से उन्हें कोशल राज्य से मधुर संबंध हो गए तथा दहेज में उन्हें “काशी” का सल्तनत मिल गया। इससे राजस्व में उन्हें बहुत ज्यादा वृद्धि हुई। दूसरा विवाह उन्होंने “वैशाली” के ‘लिच्छवी’ राजा ‘चेटक’ की पुत्री “चेल्लना” से किया। इससे लिच्छवियों का साथ उन्हें मिला, जो एक शक्तिशाली राज्य था।

तीसरा विवाह उन्होंने “मद्र” देश (पंजाब) की राजकुमारी “खेमा” से किया। इससे उनकी सैन्य शक्ति और बढ़ गई।
इन विवाहों से मगध की प्रतिष्ठा तो बढ़ी ही साथ ही उनकी सामरिक शक्ति में भी चार चांद लग गये। इतिहासकार डॉक्टर आर. एस. त्रिपाठी कहते हैं कि-” इन विवाहों से न केवल बिंबिसार के समकालीन राजकुलों पर प्रभाव पड़ा,वरन् यह सत्य है कि इन्हीं की पृष्ठभूमि पर मगध साम्राज्य की अट्टालिका खड़ी हुई।”-‘हिस्ट्री ऑफ असिएंट इंडिया’ पेज- 2,3 ।

बौद्ध ग्रंथ “धम्मपदट्ठ कथा” के अनुसार इनका साम्राज्य 300 योजन में फैला था, वहीं बौद्ध ग्रंथ “विनय पिटक” के अनुसार उनके साम्राज्य में नगरों की संख्या बहुत अधिक थी। राजधानी “गिरिव्रज” थी। चीनी यात्री ‘फाहियान’ के अनुसार अग्निकांड की घटनाएं यहां बहुदा होने के कारण उन्होंने एक नये नगर की स्थापना की, जो “राजगृह” कहलाया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उन्होंने मगध को सर्वशक्तिमान राज्य बना दिया।

मान्यता है उनके राज्य में 80,000 गांव थे। ” मूल रूप से मगध की शत्रुता ‘अवंती’ से थी। वहां के राजा चंडप्रद्योत महासेन थे। उनसे बिंबिसार की लड़ाई हुई थी,किंतु दोनों के बीच अंत में मित्रता हो गई थी। चंडप्रद्योत को ‘पीलिया’ रोग हो गया था। उससे वे काफी ग्रसित थे, तब बिंबिसार ने उनके पास अपने राज्य-वैद्य “जीवक” को उज्जैन भेजकर उन्हे स्वस्थ्य करवा दिया था।

गंधार के राजा को चंडप्रद्योत के साथ एक बार युद्ध हुआ था। वहां के राजा ने बिंबिसार के पास साथ देने हेतु एक दूत मंडल भेजी थी, किंतु बिंबिसार द्वारा बहाना बनाकर साथ नहीं देने के कारण वह हार गया था। इससे उसे कुशल प्रशासक एवं भारीकूटनीतिज्ञ भी थे।

उनके राज्य के उच्च अधिकारी अनेक वर्गों में विभक्ति थे। सामान्य मामलों के देखभाल करने वाले को “सब्बथक” कहा जाता था और सेना नायक को “महामत्त”। ह्वेनसांग ने उनके द्वारा ‘बिंबिसार मार्ग’ तथा ‘बिंबिसार पुल’ निर्माण करने की बात कही है। पूरी शक्ति उन्हे स्वयं प्राप्त होने के बावजूद भी वे निरंकुश शासक नहीं थे। राजकीय समस्याओं का निदान वे गांव के प्रमुखों यानी ग्रामिकों की सलाह के बाद ही किया करते थे। भूमि कर के रूप में कृषकों से मात्र 1/6 भाग ही लिया करते थे। वे प्रजा के सुख के लिए ‘इहलोक’ और ‘परलोक ‘दोनों के लिए स्वयं अपने को उत्तरदायी समझते थे। इस कारण वे “धर्मराज” भी कहलाए।

बिंबिसार यद्यपि महात्मा बुद्ध के अनुयायी थे, किंतु अन्य धर्मों के प्रति भी वे बड़े सहिष्णु थे। बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में उन्हें ब्राह्मण को हित करने वाला राजा बताया है। उन्होंने ‘कुटदंत’ नामक ब्राह्मण को खानमुत्त गांव तथा ‘सोनदंड’ ब्राह्मण को चंपा नगर की आय दान में दे रखी थी। फिर भी जैन श्रोतों से ज्ञात होता है कि वे अपनी पत्नी और स्वजनों के साथ जैन मुनि महावीर स्वामी से भी मिलने गए थे। फिर भी इतना योग्य प्रतापी राजा होते हुए,उनकी मृत्यु बहुत ही दुःखद परिस्थिति में हुई। जैन ग्रंर्थों के अनुसार उनका पुत्र “अजातशत्रु” ने उन्हें कारागार में बंद कर दिया था। बाद अपनी माता “चेल्लना” के कहने पर जब वह उन्हें मुक्त करने के लिए कारागार पहुंचा तो भय से उन्होंने आत्महत्या कर ली।

बौद्ध ग्रंथों में अजातशत्रु को “पितृहंता” कहा गया है। ‘विनय पिटक’ के अनुसार चचेरे भाई ” देवव्रत ” के द्वारा भड़काये जाने के कारण “अजातशत्रु” ने अपने पिता को बंदी बनाया था। ‘बौद्ध ग्रंथ’ से यह पता चलता है कि बाद में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध के सामने अपने अपराध को स्वीकार किया था और उसने कहा था कि राज्यलोभ की लालसा से देवव्रत के बहकावे में आकर मैंने यह कुकृत्य कार्य किया था। फिर वह “बौद्ध धर्म” को स्वीकार कर लेता है और बौद्ध धर्म को राज्य संरक्षण देता है। इतना ही नहीं वह राजगृह में “प्रथम बौद्ध संगीति” भी करवाता है।

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