महाराजा कैप्टन गोपाल शरण के जमाने में टिकारी राज का दशहरा काफी मशहूर हो गया था। सज्जित दूर्गामहल में दशहरे के अवसर पर स्थापित दुर्गा की मूर्ति का दर्शन करने के लिये देश और विदेशों से भी ब्रिटेन,फ्रांस आदि से श्रद्धालु तथा मेहमान पहुंचते थे। उन मेहमानों को ठहरने व खाने-पीने और सारी सुख-सुबिधाओं को उपलब्ध कराने के लिये टिकारी डाकबंगले के पूरब पास बने सुंदर राजकीय अतिथिशाला में व्यवस्था रहती थी। अतिथिशाला का मुख्य द्वार इतना सुन्दर और ऊंचा था कि किसी भी देश के हाथी पर सवार होकर आने वाले राजा व मेहमान सीधे अतिथिशाला में हाथी पर सवार ही प्रवेश करते थे।
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बिहार में टिकारी राज का दशहरा ब्रिटिश जमाने में काफी लोक प्रिय और प्रसिद्ध था। इसका श्रेय टिकारी के अंतिम महाराजा कैप्टन गोपाल शरण को जाता है। चूंकि महाराजा का अभिन्न संबंध ‘यूनाइटेड किंगडम’ और ‘ब्रिटिश डोमिनियन’ के राजा तथा भारत के सम्राट “किंग जॉन फ्रेडरिक- अर्नेस्ट अल्बर्ट जार्ज पंचम” और क्वीन मैरी की शाही जोड़ी से थी।
उस काल में टिकारी नगर तथा टिकारी राज के विशाल राजमहल के बारे में “ग्लोरी ऑफ गया” में ‘ग्लिंपसेज आफ हिस्ट्री एंड आर्कियोलॉजी’ के संपादक डॉक्टर उपेंद्र ठाकुर, नरेश बनर्जी एवं नसीम अख्तर ने टिकारी की महत्ता को बताते हुए लिखा है कि प्राचीन जमाने में यह एक प्रसिद्ध नगर था, जो विशेष रूप से महाराजा टिकारी के नाम से प्रसिद्ध था।
उन्होंने इस किले की प्राचीनता और विशेषता के बारे में यह भी बताया कि यह किला शहर के पश्चिम में एन.बी.पी. ग्रे-वेयर और ब्लैक-वेयर के प्राचीन ऊंचे टीले पर बना है। यहां से कॉपर के पंच-मार्क सिक्के भी मिले हैं,जो इसकी प्राचीनता को दर्शाते हैं। यह किला पांच तल्लों में निर्मित है,जिसपर चूने के मोटे प्लास्टर चढ़े हैं। बावन आंगन का यह राजमहल राज में बने अपने विद्यूत-ग्रीड से प्रकाशित होता था।
इस राजमहल का प्रवेश द्वार नौ फूट ऊंचा था,जो राज में कृषि खेत की पैमाइश का पैमाना के रूप में छह हाथ लग्गी का प्रतीक स्वरूप था। राजमहल के भीतर आयुधशाला,रंग महल, रानी महल,संगमरमर का तीन स्तरीय खजाना,देवालय,मंदिर के ऊपर मस्तूल के भीतर का आग्नेय अस्त्र आदि महल की विशेषता थी। राजमहल के भीतर के राजदरबार,राज-ध्वज आदि भी अति दर्शनीय थे।
महल के प्रवेश द्वार की बांयी ओर सीढ़ी से सटे बने पक्के पिंजरे में नौ हाथ का गर्जना करता बंगाल-टाइगर सुशोभित था। सामने के विशाल मैदान में दूर्गा-पूजा के अवसर पर अपनी कला को दिखाने के लिये आये कलाकारों द्वारा नाच-तमाशों का प्रदर्शन लोगों का मन मोहता रहता था। इसी मैदान के उत्तरी छोर पर राज का उष्ट्रशाला, हस्तीशाला और अश्वशाला भी शोभायमान था।
मैदान के पूरब राज महल के उत्तरी कोने पर काष्ठ के बने लौह-कील से जड़े विशाल मजबूत खूबसूरत गेट दुश्मनों से रक्षा के लिये लगे हुये थे। उसके पीछे गेट के भीतर प्रवेश करते ही करीब एक दर्जन यहां भी व्याघ्र पक्के पिंजरों में किलोल करते रहते थे। पीछे के मैदान में “मीना-बाजार” आकर्षण का बड़ा केंद्र होता था,जहाँ देशी- विदेशी व्यापारी हीरे, मोती,मूंगे और जवाहरात आदि के व्यापार करने के लिये आते थे।
उसी के पास आम लोगों द्वारा कहा जाने वाला “सतघरवा” नामक सीमेंट का बना एक भूल-भूलैया नक्शा था,जिसपर लोग घूम-घूम कर उस पर चढ़कर चक्कर लगाते थेऔर अपने को धन्य समझते थे। उसे नासमझ तथा अतिक्रमणकारी उसके अस्तित्व को ही मिटा रखा है। शोधकर्ता किले की अपने ही लोगों द्वारा बर्बादी देख अचंभित रह जाते हैं। वास्तव में वह कोई साधारण नक्शा नहीं था,बल्कि वह उस मैदान के भीतर में बने गुप्त सैनिकों के ठीकानों का नक्शा था,जिसे देखकर वहां से सैनिक बाहर निकलने के मार्ग के संकेत को जान पाते थे।
ठीक इसी के पीछे के भव्य, सुन्दर और रंगीन टेराकोटा से चित्रित एवं सज्जित महल में प्रतिवर्ष बंगाल से आये मूर्तिकार कलाकारों द्वारा निर्मित दुर्गा की भव्य आकर्षक प्रतिमा स्थापित होती थी,जिसे देखने देश-विदेश के मेहमानों तथा श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती थी।
महाराजा कैप्टन गोपाल शरण के जमाने में टिकारी राज का दशहरा काफी मशहूर हो गया था। सज्जित दूर्गामहल में दशहरे के अवसर पर स्थापित दुर्गा की मूर्ति को देखने और दर्शन करने के लिये देश और विदेशों से भी ब्रिटेन,फ्रांस आदि से श्रद्धालु तथा मेहमान पहुंचते थे। उन मेहमानों को ठहरने व खाने-पीने और सारी सुख-सुबिधाओं को उपलब्ध कराने के लिये टिकारी डाकबंगले के पूरब पास बने सुंदर राजकीय अतिथिशाला में व्यवस्था रहती थी।अतिथिशाला का मुख्य द्वार इतना सुन्दर और ऊंचा था कि किसी भी देश के हाथी पर सवार होकर आने वाले राजा व मेहमान सीधे अतिथिशाला में हाथी पर सवार ही प्रवेश करते थे।
टिकारी महराजा का गहरा संबंध उन दिनों विभिन्न देशों के मेहमानों से विशेष रूप से था। यों तो यहां का दशहरा राजा मित्रजीत सिंह के जमाने से ही मशहूर था,परन्तु टिकारी राज के अंतिम राजा प्रसिद्ध महाराजा कैप्टन गोपाल शरण सिंह के जमाने में इसकी प्रसिद्धि चरम पर हो गई थी।
सामने के परिसर में पीछे विशेष मेहमानों के रहने के लिए बने महल थे। पास के बड़े तालाब में कमल के फूल खिले रहते थे,जिसे निहारने महल की रानियाँ भी आती और आनंद उठाती थीं। उसी के सामने ठीक पूरबी कोने पर ब्रिटिश महिला मेहमानों के रहने के महल थे,जो ब्रिटिश ओप में बने थे।
आम दरबार की दायीं ओर एक बड़े कूप के ऊपर सुशोभित सोने का नाग था, जिसे दशर्न और स्पर्श करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता था। मैं भी अपने चाचा जी, जो कलकत्ता से दशहरा के अवसर पर आते थे, उनके साथ दशहरा देखने जाता था और नाग को श्पर्श करते तथा महल में घूम-घूम कर सभी स्थलों का दर्शन कर आनंद उठाते थे। दूर्गा पूजा में हमारे घर भी काफी मेहमान आते थे, उनके लिये हमारे घर सुबह से जो खाना बनना प्रारंभ होता था, वह रात्रि में ही समाप्त होता था।
टिकारी राज एक रहस्यमय महल था। इसी कारण हिंदी साहित्य के पुरोधा और हिंदी को आगे बढ़ाने में श्रेयकर भूमिका निभाने वाले देवनंदन प्रसाद खत्री जो इस राजमहल के दीवान थे,की रहस्यमयी पुस्तक चन्द्रकांता की कथा इसी महल से जुड़ी रहस्य की कथाओं पर आधारित है।
भूलभूलैया के पास ही दाय़ीं ओर गुप्त महल से बाहर जाने का एक मार्ग था,जो अब ध्वस्त हो गया है,उस मार्ग का संबंध भीतर ही भीतर सैन्य को बाहर जाने का था। उसीके पास एक विशाल कूप था,जिस कूप के भीतर पश्चिमी दीवार में ढाई किलो का ताला लगा हुआ रहता था,जो भीतर के खजाने तक जाने का मार्ग था। उसे भी लोगों ने समाप्त कर दिया है।
दशहरे के अंतिम दिन ‘शाही-जुलूस’ निकलता था,जिसे देखने के लिये लोगों की भारी भीड़ उमड़ती थी।
सबसे आगे बारूद भरे आवाज करने वाले बंदूक से आवाज करते दो संतरी चलते थे। उसके पीछे ऊँट पर सवार नगाड़ा बजाने वाले, फिर घुड़सवार सैनिक, उसके पीछे सजे-धजे हाथियों के रंगीन हौदों पर विदेशी मेहमान होते थे। महाराजा कैप्टन गोपाल शरण स्वयं अपने राज के रत्न जटित बारादरी पर सवार रहते ; जिसे रंगीन परिधान पहने आठ कहार ले चलते थे। अपने राजा का दर्शन करने के लिए लोग उतावले रहते थे।फिर बैंड बाजे के पीछे सजे रथ पर दूर्गा की मूर्ति होती थी,जिस पर श्रद्धालुगण माला-प्रसाद चढ़ाते और अपने को धन्य समझकर घर को वापस लौटते थे।