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भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने में सातवाहन काल की अमूल्य देन

मेगास्थनीज यात्री ने सातवाहन का विवरण एक शक्तिशाली राजा के रूप में अपने यात्रा वृतांत में किया है। उसके अनुसार सातवाहन के पास विशाल सेना थी और उसने 30 बड़े नगर बसाये थे। आंध्र प्रदेश के उन तीस प्रमुख शहरों में आज का हैदराबाद, सिकंदराबाद, इब्राहिम पाटन, फरुखनगर, हुजूर नगर, महबूबाबाद, करीमनगर, आसीफाबाद, अदिलाबाद, निजामाबाद, महबूबनगर, निजाम सागर आदि हैंइन शहरों के पूर्व नाम मुस्लिम काल में बदल दिये गये। 

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“सातवाहन राज” ई. पूर्व 60 से 203 ई. तक मानी गई है। जबकि यह राज करीब तीन सौ वर्षों से ज्यादा तक रही। ‘अन्ध्र’ एक द्रविड़ जाती थी, जो गोदावरी तथा कृष्णा नदी के बीच निवास करती थी। बाद में यह आर्यों में सम्मिलित कर ली गई। इस जाति के बारे में “ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ” में वर्णन मिलता है।

प्राप्त स्रोतों के अनुसार विश्वामित्र के वंशजों ने गोदावरी और कृष्णा के बीच जाकर आर्येतर स्त्रियों से विवाह किया और उससे जो जाति उत्पन्न हुई वह “अन्ध्र” कहलायी। यह अपने को द्रविड़ और आर्य के मिश्रण से बने होने के कारण अपने को ‘ब्राह्मण’ मानते थे।

आंध्र प्रदेश का नाम भी इन्हीं के वहां बसे होने के कारण माना जाता है। इस अन्ध्र जाति में एक सशक्त राजकुमार सातवाहन अथवा शालिवाहन नामक हुआ। उसके वंशज ‘सातवाहन’ कहलाए। इस वंश का प्रथम प्रतापी राजा सिमुक, सिंसुक अथवा शिशुक हुए, जिन्होंने ईसा पूर्व पहली सदी में दक्षिण पश्चिम तथा दक्षिण पूर्व भारत में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

मेगास्थनीज यात्री ने इस राजा का विवरण एक शक्तिशाली राजा के रूप में अपने यात्रा वृतांत में किया है। उसके अनुसार सातवाहन के पास विशाल सेना थी और उसने 30 बड़े नगर बसाये थे। आंध्र प्रदेश के उन तीस प्रमुख शहरों में आज का हैदराबाद, सिकंदराबाद, इब्राहिम पाटन, फरुखनगर, हुजूर नगर, महबूबाबाद, करीमनगर, आसीफाबाद, अंदिलाबाद, निजामाबाद, महबूबनगर, निजाम सागर आदि हैं, इन शहरों के पूर्व नाम मुस्लिम काल में बदल दिये गये। ।

किंतु, दुर्भाग्य तो यह भी है कि सातवाहन काल के महान् सम्राटों का कोई भी प्रमाण प्रारंभिक काल का यहाँ उपलब्ध नहीं मिलता। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि चूंकि उनका प्रशासनिक शासकीय राजधानी महाराष्ट्र में थी और दूसरे यह कि वहां के नगरों के नामों की तरह ही मुस्लिम काल में उनके सारे प्रमाणों को भी मिटा दिया गया हो।अंध्र की प्राचीन राजधानी उस काल में “श्री काकुलम” में थी।

यह तो सर्वविदित है कि महान् चक्रवर्ती सम्राट अशोक का काल जब समाप्त हुआ, तो उसके बेटे ने साफ कह दिया था कि हमें ऐसा राज नहीं चाहिए, जहां भारी खून- खराबा के बाद राज मिला हो। जबकि हम सभी यह भी जानते हैं कि प्राचीन भारत में अफगानिस्तान, ईरान, इराक, ब्रह्मा आदि देश अशोक काल में उसके एक छत्र-राज के अंतर्गत थे। तभी तो उसने अपने समस्त राज- क्षेत्र में ‘बौद्ध धर्म’ स्वीकारने के बाद सोलह हजार स्तंभों में शिलालेख ब्राह्मी, पाली, इरामिक भाषाओं में गड़वाये थे, वही आज खुदाई में मिलने के बाद विलुप्त भारत के इतिहास को उजागर किया है।

दक्षिणपथ से जब मौर्यों का अधिकार समाप्त हो गया तब ‘अंध्र-सत्ता’ पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ी और उसकी राजधानी गोदावरी के किनारे “पैठन” अर्थात प्रतिष्ठान हो गई। इधर आने पर उनका सिंह वाहन होने से ये “सातवाहन” कहलाने लगे। वायु पुराण में इस वंश के 19 राजाओं का उल्लेख मिलता है, जबकि मतस्य से पुराण के अनुसार तीस राजाओं का वर्णन मिलता है। इनके वंशजों के मुख्य शाखा ने 19 शासकों द्वारा तीन सौ वर्षों तक तथा उप शाखा के 11 शासको द्वारा एक सौ वर्षों के आगे तक राज करने का उल्लेख भी मिलता है। इस प्रकार चार सौ वर्षों तक इनका शासन काल माना जाता है।

‘कण्व वंश’ के शासन का अंत ईसापूर्व 27 में हुआ था। उसके बाद इन लोगों का शासन यहां स्थापित हुआ। डॉक्टर आर.के. मुखर्जी के अनुसार ईसापूर्व 30 से 250 ई. तक इनका शासन काल रहा। आंध्र वंश अर्थात् सातवाहन का प्रथम राजा सिमुक था, जिसने ईसापूर्व 60 से ईसापूर्व 37 में शुगों और कण्वों की शक्ति को नाश कर अंध्र वंश की स्थापना की। सिमुक ने 23 वर्षों तक कुल राज किया। फिर उसका भाई कृष्ण व कान्ह गद्दी पर बैठा। उसके समय तक आंध्र वंश का राज्य पूर्व से पश्चिमी समुद्र तक फैल गया और उसने 18 वर्षों तक राज किया।

बाद इसी वंश में ‘शातकर्णी’प्रथम एक प्रतापी राजा हुआ। उसने महाराष्ट्र के महारथी की पुत्री “नायनिका” से विवाह किया, जिससे उसकी शक्ति और भी बढ़ गई तथा वह लगभग संपूर्ण दक्षिणापथ का अधिकारी बन गया। ‘नानाघाट’अभिलेख से पता चलता है कि वह “अप्रतिहत चक्र दक्षिणापथ पति” भी कहा गया है। इससे पूर्वी मालवा पर भी उसका नियंत्रण होने का संकेत मिलता है। इसने दो-दो बार अश्वमेध यज्ञ भी करवाये।

‘सांची अभिलेख’ में भी राजा शातकर्णी का वर्णन मिलता है। साथ ही शातकर्णी ने मालव शैली की दो गोल मुद्राएं भी चलाई थी। शातकर्णी ने मालवा, नर्मदा के दक्षिणी क्षेत्र, विदर्भ तथा मध्य भारत आदि प्रदेशों को जीतकर बड़ा साम्राज्य बनाया था। उत्तरी कोंकण, काठियावाड़ और डेक्कन भी उसके राज्य के अंतर्गत थे।”खारवेल” के हाथी गुंफा अभिलेख में भी शातकर्णी का उल्लेख मिलता है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह “प्राकृत” भाषा के महान् कवि थे। उसने “गाथा सप्तशती” नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी। उनके राजसभा में ‘वृहत्कथा’ के लेखक “गुणाढ्य” और संस्कृत व्याकरण “कातंत्र” के लेखक जैसे विद्वान भी थे। उन्होंने मात्र नौ वर्षों तक ही शासन किया। किन्तु इनकी प्रसिद्धि काफी देश में थी। इनके बाद “सोपारा” जैसे प्रसिद्ध बंदरगाह भी सुरक्षित नहीं बचे। विदेशियों का आक्रमण काफी उसके बाद होने लगा।

शातकर्णी के बाद उनका पुत्र वाशिष्ठि पुत्र “श्रीपुलुमावी” शासक बना, जो 130 ईस्वी में गद्दी पर बैठा। वह पिता की ही भांति काफी पराक्रमी और विजेता था। आंध्र प्रदेश पर एकछत्र राज्य उसका सदा बना रहा। वह मध्य भारत में भी काफी प्रसिद्ध रहा। उसकी काफी मुद्राएं इन क्षेत्रों में खुदाई से मिली है। वह “दक्षिणापथपति” एवं “दक्षिणापथेश्वर” नामों से भी प्रसिद्ध रहे। इन्होंने मात्र 15 वर्षों तक ही राज्य किया। फिर भी इन्होंने ‘नवानगर’ नामक नगर की स्थापना की और अपने काल में प्रसिद्ध “अमरावती-स्तूप” का विस्तार भी किया।

सातवाहन काल के महान् राजाओं में “हाला” का नाम 17 वें राजा के रूप में आता है। उसने भी “गाथा सप्तशती” अथवा “सत्तसई” नामक प्रेम ग्रंथ की रचना की। ‘हाला’ राजा का उल्लेख ‘लीलावती ग्रंथ’ में भी मिलता है। ‘यज्ञश्री’ सातवाहन वंश का अंतिम राजा माना जाता है। उसने 165 ई. से 194 ई. तक राज किया। उसने अपने खोये हुए प्रदेशों को पश्चिमी क्षत्रपों व शकों से प्राप्त कर लिया। सातवाहन के जमाने में टैगारा और प्रतिष्ठान प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। साथ ही इस काल में कोंडापुर, माधवपुर और वनवासी जैसे महत्वपूर्ण शहरी केंद्र भी थे। सातवाहन काल में ब्राह्मण और बौद्ध भिक्षुओं को दी गई भूमि को कर मुक्त कर दिया गया था।

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