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जनादेश-2019: जात-जमात और वंशवाद की राजनीति को जनता ने नकारा

2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम ने जातिवादी और वंशवादी राजनीति करने वाले कई राजनीतिक दलों का सुपड़ा साफ कर दिया है। जबकि कई हाशिये पर पहुंच गये हैं। इस जनादेश का आकलन कई एक्जिट पोल में किया गया था। 11 में से 10 एक्जिट पोल में पूर्ण बहुमत से केन्द्र में एनडीए की दोबारा वापसी के आकलन किये गये थे। हालांकि एक्जिट पोल के आकलन को विरोधी दलों ने फर्जी करार दिया था। लेकिन चुनाव परिणाम में ज्यादातर एक्जिट पोल के आकलन सही पाये गये।

भारतीय इतिहास में ऐसे बहुत कम आम चुनाव हुए हैं जहां किसी पार्टी या गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हुए हैं। जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद नरेन्द्र मोदी ऐसे नेता बने जिनके नाम पर चुनाव लड़ा गया और वह पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाने में सफल हुए। इस जनादेश ने देश-दुनिया को चौकाया है।

यह एक ऐतिहासिक जनादेश है जो राजनीतिक स्थिरता के साथ-साथ देश को नई दिशा देने में सहायक होगा। देश की जनता ने पुनः पीएम नरेन्द्र मोदी पर भरोसा जताते हुए एनडीए गठबंधन के खाते में उम्मीद से भी ज्यादा वोट दे दिया। यह भी सच है कि इस बार जनता ने न बीजेपी के नाम पर वोट दिया है और ना ही बीजेपी एवं घटक दलों के प्रत्याशियों को उनके नाम पर वोट मिले है। जनता ने सिर्फ मोदी को दोबारा केन्द्र की सत्ता में लाने के लिए वोट दिया है।

जबकि, मोदी को केन्द्र की सत्ता से बाहर करने के लिए विरोधियों की एकजुटता इस बार देखने लायक थी। वैचारिक मेल नहीं होने के बावजूद विरोधी दल एक मंच पर आये और मोदी विरोधी रणनीति में शाामिल हुए। चाहे यूपी का सपा-बसपा गठबंधन हो या बिहार में राजद, रालोसपा, हम, वीआईपी सहित अन्य अवसरवादी दलों का महगठबंधन। या फिर तानाशाही का प्रतीक बनती जा रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी हों। अथवा पीएम बनने की चाहत में तीसरे फ्रंट की वकालत करने वाले और विरोधी दलों की एकजुटता का बीड़ा उठाते दिखने वाले केसीआर एवं चंद्रबाबू नायडू हों। इस जनादेश ने उन सभी को उनकी राजनीतिक हैसियत का अहसास करा दिया है।  विशेषकर यूपी, बिहार और बंगाल के नतीजों ने जातिवाद, वंशवाद और जमात की राजनीति करने वालों पर करारी चोट की है।

बीजेपी को जातीय चक्रव्यूह में फंसाने और मोदी को केन्द्र की सत्ता में दोबारा आने से रोकने के लिए तमाम कवायदे यहीं से शुरू हुई थी। इन राज्यों में मोदी विरोधी नेताओं ने ध्रूवीकरण और तुष्टिकरण को चुनाव जीतने का आधार बनाया था। देश की जनता यह अच्छी तरह समझ रही थी कि जातिवादी और वंशवादी राजनीति करने वाले नेताओं के पास विकास का कोई मॉडल नहीं है। ये सभी सिर्फ अपने हितों को साधने के लिए एक साथ आये हैं। जबकि इन दलों के पास इस बात पर अंतिम समय तक सहमति नहीं बन पायी मोदी का विकल्प कौन होगा।

जनता में यह भी संदेश गया कि इनके पास तो पीएम के लायक चेहरा ही नही है। जनता ने इन अवसरवादी नेताओं को इसलिए भी नकारा कि, अगर चुनाव परिणाम के बाद इन दलों से ही पीएम के कई दावेदार सामने आ जायें तो देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो जायेगा, जो विकास के पथ पर अग्रसर भारत के हित में नहीं है। आम चुनाव के कुछ दिन पहले विपक्षी गठबंधन के तरफ से कई नेताओं ने पीएम बनने की दिली इच्छा भी जाहिर कर दी लेकिन उनपर आम सहमति नही बन पायी और एक दूसरे की खिंचाई में जुट गये। विपक्षी गठबंधन में कई बार अंतर्विरोध भी सामने आया जो वैचारिक मतभिन्नता की देन थी।

शायद देश के मतदाताओं ने यही सोचा कि वैचारिक मतभिन्नता के कारण अभी एकजुट नहीं हो पा रहे हैं तो चुनाव परिणाम के बाद इनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। जो सिर्फ राजनीतिक हितों को साधने के लिए ही एक दूसरे के साथ एक मंच पर दिख रहे हैं। 24 साल बाद मायावती और मुलायम सिंह को मंच पर एक साथ देखा गया। बसपा प्रमुख मायावती ने खुद कहा था कि गेस्ट हाउस कांड को भूलकर समाजवादी पार्टी के साथ मंच शेयर करना उनके लिए कड़वा घूंट पीने जैसा था। मोदी की विजयी रथ को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने हाथ मिलाया लेकिन मायावती के हिस्से में बहुत कुछ नहीं आया।

राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि मोदी विरोधी राजनीति सपा-बसपा को ले डूबा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश बसपा का गढ़ है। अगर इस बार मायावती चुनाव अकेले भी लड़ती तो अच्छी सीटें ले आतीं। इसलिए उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से एनडीए को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार बीजेपी के हिस्से में उत्तर प्रदेश में सीटें कम आयी हैं लेकिन उसकी पूर्ति अन्य राज्यों से हो गई है। एनडीए ने कई राज्यों में कई पार्टियों का खाता भी नहीं खुलने दिया है।

40 लोकसभा सीटों वाला बिहार मोदीमय हो चुका हैं। महागठबंधन के मुख्य पैरोकार राष्ट्रीय जनता दल का मोदी लहर ने सुपड़ा साफ कर दिया है। राष्ट्रीय जनता दल जीरो पर आउट हो गया है। समीक्षक कह रहे हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में लोगों ने जातिवादी फैक्टर को नकार दिया है। आज यूपी-बिहार का यादवलैंड भगवा रंग में रंगा गया है। कई ऐसी सीटें इस बार विपक्षी दलों के हाथ से निकल गई जिसपर उत्तर प्रदेश में सपा और बिहार में राजद का कब्जा रहा है। लोग कह रहे हैं बिहार में लालू का दौर समाप्त हो गया है और तेजस्वी यादव को लोकसभा चुनाव की कमान सौंपना महागठबंधन को भारी पड़ा है। क्योंकि लालू यादव के जेल जाने के बाद तेजस्वी यादव ही राजद की कमान संभाल रहे हैं और महागठबंधन का भी अच्छी तरह से नेतृत्व किया है। लेकिन पिता लालू यादव की तरह तेजस्वी यादव को राजनीति का अनुभव नहीं है।

बिहार में एमवाई अर्थात मुस्लिम यादव समीकरण पर राजद ने लम्बे समय तक शासन किया है। लेकिन लालू के जेल में जाने के बाद तेजस्वी यादव एमवाई फैक्टर को भूनाने में नाकाम रहे। हैरानी इस बात की है कि महागठबंधन में शामिल कई नेता हैं जो पिछले ढाई-तीन दशकों से चुनाव लड़ते आ रहे हैं उन्होंने भी तेजस्वी यादव पर भरोसा जताया। महागठबंधन में शाामिल कई नेता जिनके आगे तेजस्वी यादव उम्र और तजुर्बे के आधार पर भी कहीं नहीं टिकते थे, लेकिन लालू का अक्श तेजस्वी में देखकर उन सभी ने लोकसभा चुनाव की कमान ही तेजस्वी यादव को सौंप दी थी। महागठबंधन में सीटों को लेकर दलों के बीच लम्बे समय तक होती रही नोकझोंक के कारण भी बिहार की जनता में गलत संदेश गया कि इन पार्टियों से राष्ट्र समाज की बेहतरी की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इन सभी दलों का मुख्य एजेंडा सिर्फ नरेन्द्र मोदी को केन्द्र की सत्ता से बाहर करना है।

जबकि, इस चुनाव परिणाम में आम आदमी पार्टी के हिस्से में महज एक सीट आयी है। सिर्फ पंजाब से आप के उम्मीदवार भगवंत मान ने अपनी सीट बचा ली है। दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में से चार सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आम चुनाव में दिल्ली की जनता ने नकार दिया है। आम आदमी पार्टी के सारे उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे हैं। दिल्ली की सातों लोकसभा सीट बीजेपी के खाते में चली गई और दूसरे नंबर पर कांग्रेस के उम्मीदवार रहे। बहरहाल, आंतरिक क्लेश की वजह से आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है जो अरंविद केजरीवाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हाल के दिनों में अरविंद केजरीवाल के कुछ बयान और भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं के साथ मंच दिखना उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ है।

लिहाजा भारत की जनता ने बौद्धिक परिपक्वता का परिचय देते हुए जात और जमात से उपर उठकर वोट दिया है। यही कारण है कि देश भर में जातिवाद और वंशवाद की राजनीति करने वाले नेताओें को इस चुनाव परिणाम से निराशा हाथ लगी है।

इस बार कई ऐसे किले ध्वस्त हुए है जिनपर कहीं वंशवाद हावी रहा है तो कहीं जातिवाद। लालू परिवार, मुलायम परिवार, चौटाला परिवार, हुड्डा परिवार, गहलौत परिवार और उत्तर प्रदेश में जाटों के सिरमौर चौधरी अजीत सिंह के परिवार को इस चुनाव में बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। कई नेताओं ने अपनी पुस्तैनी सीट भी गवां दी है।  मध्य प्रदेश में सिंधिया घराने की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को एक सामान्य तबके का प्रत्याशी ने बड़े अंतर से हराया है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में जातीय समीकरण फेल हो गये ।

हालांकि विपक्षी दल आत्मविश्वास के साथ कह रहे थे कि इस बार एनडीए की केन्द्र में वापसी नहीं होगी। विपक्षी दलों के कई नेताओं का कहना था कि मोदी को रोकने के लिए गठबंधन, महागठबंधन, तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा अथवा कोई भी विकल्प हो उसपर चुनाव परिणाम के बाद विचार किये जायेंगे। लेकिन जनादेश ही ऐसा आया है कि विपक्षी दलों को कुछ करने के लिए बचा ही नहीं। विपक्षी दलों के सारे दावे फेल हो गये।

जबकि पीढ़ी दर पीढ़ी पार्टी नेतृत्व का हस्तांतरण वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को 14 राज्यों और 4 केन्द्रशासित प्रदेशों में एक भी सीट नहीं मिली है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी पुस्तैनी सीट अमेठी को बचा पाने में असफल रहे। जब उन्होंने अमेठी के अलावा केरल के वायनाड से पर्चा भरा तो उसी वक्त कई सवाल खड़े किये जा रहे थे कि इस बार राहुल गांधी सेफ सीट की तलाश क्यों कर रहे हैं। वायनाड मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं इसलिए वहां से राहुल गांधी जीत तय मानी जा रही थी। जबकि अमेठी में वोटों की गिनती में स्मृति ईरानी से राहुल गांधी हमेशा पीछे ही रहे। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि अमेठी की जनता ने इस बार अपना प्रतिनिधि बदलने का फैसला कर लिया था। बमुश्किल रायबरेली से सोनिया गांधी की सीट बच पायी है।

चौक-चौराहों पर एनडीए की जीत के साथ-साथ विपक्ष की हार कें भी चर्चे हो रहे हैं। मोदी लहर में बिहार में महागठबंधन का सफाया हो गया। यूपी में सपा-बसपा गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फिर गया। तीसरे मार्चे की वकालत करने वाले टीडीपी अध्यक्ष चंदबाबू नायडू की सत्ता भी हाथ से निकल गई। जबकि बंगाल में अपने तरीके से शासनिक-प्रशासनिक सिस्टम को हांकने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पहली बार अहसास हुआ है कि उनकी सियासी जमीन खिसक चुकी है और आगामी चुनावों में बीजेपी से तृणमूल कांग्रेस को भरपूर चुनौती मिलने वाली है।

बहरहाल, यह जनादेश एक सबक है उनके लिए जो सिर्फ जातिवाद और वंशवाद की राजनीति करना चाहते हैं। जो देश विरोधी ताकतों के समर्थन में खड़े दिखते हैं। जो आतंकवादियों का महिमामंडन करते हुए जात और जमात की राजनीति को प्रमुखता देते हैं। जिनके लिए राष्ट्रवाद कोई मुद्दा नहीं है। जो राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता को चोट पहुंचाने और एक विशेष वर्ग को खुश रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस चुनाव में देश की जनता ने ऐसे नेताओं को नकार दिया है और विकसित एवं समृद्ध भारत के लिए पुनः पीएम नरेन्द्र मोदी पर भरोसा जताया है।

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