Tuesday, November 4, 2025
Google search engine
Homeविरासतभारतीय संस्कृति को रौशन करने वाला महापर्व दीपावली

भारतीय संस्कृति को रौशन करने वाला महापर्व दीपावली

दीपों का पर्व दीपावली भारतीय संस्कृति का एक मुख्य पर्व है। यही कारण है कि यह पर पूरब में असम से पश्चिम में राजस्थान और पंजाब तथा उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कन्याकुमारी तक के पूरे क्षेत्र में यह “ज्योति पर्व” के रूप में मनाया जाता है। इसमें सुख-सौंदर्य और ऐश्वर्या की देवी “लक्ष्मी” की पूजा विशेष रूप से की जाती है। शुभ और लाभ के प्रतीक “गणेश” एवं कल्याण के प्रतीक “स्वस्तिक” की पूजा का बड़ा महत्व है। इस प्रकार यह एक मांगलिक पर्व के रूप में मनाया जाता है।

“महालक्ष्मी” की आराधना हेतु मंत्र और स्तोत्र की रचना की गई है, जिसमें कनक धारा स्तोत्र प्रमुख है। ऋग्वेद के श्री सूक्त की रिचाओं में स्वर्ण और रजत की मालाओं से सज्जित मनोहरिणी हिरण्यवर्णा महालक्ष्मी का अव्वाहन किया गया है–
” हिरण्य वर्णा हरिणीं सुवर्णा रजतस्रजाम्
चंद्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जात वेदो मभा वह।”

देवी को प्रसन्न करने के लिए विशेष पूजा अर्चना और स्तुति की जाती है–

“अभिष्ट सिद्धिंमेदेही शरणागत वत्सले,
पूजां गृहाण सुमुखी प्रसीद परमेश्वरी।” एवं
“सिद्धि बुद्धि प्रदे देवी, भक्ति मुक्ति प्रदायिनी।
मंत्र मूर्ते सदा देवी, महालक्ष्मी नमोस्तुते।।”

इस पर्व में लोग लक्ष्मी के वाहन “उल्लू” की भी पूजा करते हैं। “उल्लू” को संस्कृत में दिवाभीत कहते हैं। यह अति चंचल एवं बुद्धिमान पक्षी है। इसे दिव्य दृष्टि प्राप्त है। इस कारण यह पक्षी रात्रि के गहन अंधकार में भी कोसों दूर तक देख सकता है। इसकी अद्भुत दृष्टि क्षमता, बुद्धिमता एवं चंचलता के कारण ही यह पक्षी महालक्ष्मी का वाहन है। अमावस्या की अंधेरी रात, एकदम घटाटोप अंधकार, निरभ्र आसमान में टिमटिमाते सितारे की तरह धरती पर कतार के कतार बंदनवार की तरह सजे जलते दीपों की धारियां अनायास ही यह याद दिलाते हैं कि —

“कण-कण बसते तीर्थ करोड़ों, क्षण-क्षण पर्व जहां है, कोई बतलाए दुनिया में, ऐसा देश कहां है ?”

 हमारे देश का यह गौरव है कि हमारे देश में दीपावली ऐसा महान पर्व को मनाया जाता है। यह पर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से आरंभ होता है, जो शुक्ल द्वितीया तक और कहीं-कहीं तो सोलह दिनों तक मनाया जाता है। इस कारण इसे सोहराई भी कहा जाता है। इस बीच इसमें अनेक त्यौहार जुड़े होते हैं, यथा- त्रयोदशी को यम का दीपक ,धनतेरस और धन्वंतरि जयंती। चतुर्दशी को छोटी दिवाली, हनुमान जयंती, नरक चतुर्दशी और देवताओं की दिवाली। अमावस्या के दिन को बड़ी दिवाली,सुख-रात्रि, महालक्ष्मी पूजन आदि। फिर दूसरे दिन गोवर्धन पूजा, गायडाढ़। द्वितीया को भैया दूज, अन्नकूट, चित्रगुप्त पूजा,यम द्वितीया आदि।

इस अवसर पर घर-बाहर की बृहद सफाई एवं रंग-पुताई की जाती है। रंगीन बल्लवों और झालरों से घर-बाहर को सजाया जाता है। जानवरों को भी धोकर रंगों से रंगकर सजाया जाता है। इस अवसर पर घर के वाहनों और मशीन आदि को धो-पोंछ कर ठीक कर दिया जाता है। वनिक तथा व्यापारी वर्ग दीपावली के दिन पर पुराने खाते को बंद कर नए खाते की शुरुआत करते हैं। अन्य वर्ग भी ज्यादातर नए कार्यों की शुरुआत इस दिन को विशेष शुभ मानकर इसी दिन से कार्यों की शुरुआत करते हैं।

मगध क्षेत्र में यह पर्व विशेष रूप से 16 दिनों तक मनाया जाता है। यही कारण है कि इसे “सोहराई” भी कहते हैं। इसमें स्त्रियां अपने इष्ट-देव, मनुष्य-देवा,तुलसी-चौरा तथा अन्य देव स्थलों में संध्या गोधूलि बेला में जाकर “घी के दिये” प्रतिदिन स्नान कर जलाते हैं। पुरुष वर्ग अपने पशुओं को सजाते, संवारते तथा विशेष सेवा-सुशुश्रा करते हैं। बच्चे आसमान में ऊंचे बांस के ऊपर बड़े उत्साह से रंग-बिरंगे विभिन्न आकृतियां के बने “कैंडल” को आसमान में जलाकर उजाला करते हैं।

‘गुणी’ लोग देवस्थान में जाकर “देवी” के सामने मंत्र-सिद्धि हेतु अनुष्ठान करते हैं। वहीं स्त्रियां पूरे कार्तिक माह में प्रतिदिन प्रातः गीत गाती हुई गंगा-स्नान करती हैं। बिहुला की गाथा, देवी गीत आदि भी गाने की प्रथा है। पुरुष बिरहा गाते और खूब झूमते हैं।

इस पर्व से जुड़ी कई अनेक मान्यताएं भी हैं यथा- समुद्र मंथन, राजबली की दानशीलता, महाकाली का शिव में समावेश, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का 14 वर्ष बाद वनवास से अवधपुरी आगमन, पूर्ण पुरुष श्री कृष्ण द्वारा नरकासुर पर विजय, महाबली इंद्र के कोप से गोकुल वासियों को त्राण दिलाना तथा इंद्र की पूजा बंद कर गो संवर्धन की पूजा प्रतिस्थापित करना आदि।

इससे जुड़ी एक और भी कथा नेपाल की है। वह यह कि दुर्वासा ऋषि के श्राप से इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी श्राप से विमुक्ति पाने हेतु जम्बूद्वीप के झारखंड, पंपापुर, कजलीवन, दंडकारण्य,विंध्याचल, कुरु, बंगाल, तेलंग, कश्मीर, नेपाल आदि जगहों में वह भ्रमण करती डांग देश नेपाल के दांगी राजा के उपवन में घूमते हुए आयी। यह देख राजा ने उसे पकड़ कर अपने राजभवन ले आए। इसकी सूचना नारद जी ने श्रीकृष्ण को दी। तब श्रीकृष्ण ने उसे मंगवाने हेतु दूत भेजे। तब दांगी राजा महिपाल ने श्रीकृष्ण के दूत को क्षात्र धर्म की याद दिलाते हुए यह कही कि क्या श्री कृष्ण क्षात्र धर्म को भूल गए कि जिसके बाहुबलों से जो सामग्री प्राप्त होती है, वह उसीकी होती है और उसे उर्वशी को नहीं दिए।

फलत: श्री कृष्ण ने युद्ध की घोषणा कर दी। यह युद्ध हस्तिनापुर के मैदान में शुरू हुआ। यहां दोनों ओर की सेनाएं इस युद्ध में शामिल हुई। दांगी राजा को धर्म पूर्वक शासन चलाने के कारण सुभद्रा ने बलशाली भीम को पांडव तथा कौरव भाइयों सहित डांगी राजा को मदद करने को युद्ध में कही। दोनों ओर की सेनाएं एकत्रित हुई और ज्योंही अष्ट वज्र एकत्रित हुई त्योंहि उर्वशी श्राप विमुक्त होकर इंद्रलोक को चली गई। इसपर बुंदेलखंड में आज भी एक लोकोक्ति प्रचलित है कि “घोड़ी (उर्वशी) जां की ता गई, डांग हाथ करहाई रही।” अर्थात् जहां की उर्वशी थी, वहां चली गई और दांगी राजा पछताते रहे। आज भी नेपाल में भीम के नाम पर “भीम-डगर” है और दंगी राजा नेपाल के “डांग-देवखुरी” में भीम के स्वागत में दीपमालाओं से ‘डगर’ को आलोकित किया था,जो आज भी यह परंपरा कहा जाता है कि द्वापर युग से आज तक यहां प्रचलित है और यह पर्व राजकीय पर्व के रूप में 5 दिनों तक यहां मनाया जाता है, जिसे “पंचक” कहते हैं।

जैन परंपरा के अनुसार भी मगध के “पावापुरी” में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर खुशी में छह “गणधरों” ने “दीपोत्सव” मनाया था, जिसका परिपालन आजतक जैनियों के बीच किया जाता है।
बौद्ध संप्रदाय में भी यह मान्यता है कि जब गौतम बुद्धत्व की प्राप्ति कर अपने ज्ञान को “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” हेतु “बुद्धम् शरणम् गच्छामि” की पवित्र भावना से “आत्म दीपो भव” का संदेश ले वैशाली पहुंचे थे, तो वैशाली की नगरवधू “आम्रपाली” ने भगवान बुद्ध की आगवानी कर उनके स्वागत में “दीपदान” की आधारशिला रखी थी। ‘डगरों’ को दीपों से सजाई थी, वह परंपरा आज भी बौद्धों में “दीप-पर्व” के रूप में प्रचलित है।

सिख पंथ वालों में भी इसे आलोक पर्व के रूप में गुरु नानक देव के अनुगामी गुरु गोविंद सिंह की याद में मनाते हैं और गुरु नानक की ये पंक्तियां याद करते हैं–
जब मैं था तब हरि, नहीं अब हरि है मैं नाहीं,
सब अंधियारा मिटी गया, जब दीपक देखाया मांही।

इसी प्रकार स्वामी राम तीर्थ, महर्षि दयानंद आदि के निर्वाण दिवस पर भी आज ही के दिन उनकी याद में दीपोत्सव पर्व मनाया जाता है। अब जरा हम विदेशों में भी दिवाली मनाने की परंपरा की ओर ध्यान दें, तो उसमें श्रीलंका, नेपाल, जावा, सुमात्रा,बाली, मॉरीशस आदि देश प्रमुख हैं ।

इसके अलावा ब्रिटेन में गॉड फॉक्स डे, चीन में वाई पांग, इजराइल में हन्तकाह, रोम में कैंडल मास, थाईलैंड में लाप का पोग, म्यांमार में तोरो नागाशी तथा जर्मन, बेल्जियम, मिश्र आदि देशों में भी भिन्न-भिन्न समयों में भारत की तरह ही दिवाली अथवा प्रकाश पर्व के रूप में इसे बड़े ही उल्लास पूर्ण वातावरण में मनाया जाता है। पुरातत्व की दृष्टि से मेसोपोटामिया के प्राचीन खंडहरों की खुदाई में अति प्राचीन कालीन मिट्टी के दिये मिले हैं। ब्रिटिश संग्रहालय में प्रागैतिहासिक काल के अनेक आकारों के दीपक सुरक्षित हैं, जो निश्चित रूप से प्राचीन परंपरा का संकेत देते हैं।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments