Tuesday, November 4, 2025
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छठ पर्व : श्रद्धा, आस्था और पवित्रता के साथ भगवान सूर्य को अर्ध्य देने का व्रत

बिहार राज्य का अति लोकप्रिय छठ पर्व बिहार राज्य के अलावा पूरे देश में बड़ी श्रद्धा, आस्था, पवित्रता और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पर्व वर्ष में दो बार कार्तिक और चैत्र मास में किया जाता है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी और चैत्र मास शुक्ल चतुर्थी से आरंभ होकर यह पर्व कार्तिक और चैत्र मास शुक्ल सप्तमी को प्रातः उदयमान भगवान भास्कर को अर्घ्य देकर व्रत की समाप्ति की जाती है। तत्पश्चात व्रती स्त्री अथवा पुरुष खरना (प्राकृत-पाली व मगही शब्द) यानी जलग्रहण कर व्रत को विराम देते हैं। इस पर्व की शुरुआत प्राकृत,पाली व मगही का शब्द “नहाय-खाय” से आरंभ होता है।

इस पर्व को लोग “डाला-छठ” भी कहते हैं। क्योंकि इस व्रत में प्रयोग होने वाली सारी सामग्रियों को एक डाला (प्राकृत, पाली शब्द) में भरकर नदी, तालाब, नहर व कुएं पर पुत्र, दामाद व निजी परिवार के लोग ले जाते हैं। जाने के क्रम में व्रती सूर्य को साष्टांग दंडवत धरती पर सोकर करते हुए नदी, तालाब व नहर तक पहुंचते हैं। वहां जाकर व्रती सर्वप्रथम स्नान करते हैं और भींगे कपड़े में ही रहकर भगवान भास्कर, अस्ताचलगामी सूर्य को जल और दूध से अर्घ्य अर्पित करते हैं।

व्रती डाला में रखे सूप जिसमें पूजा-अर्चना की सारी सामग्रियां– शुद्ध घी में बनी ठेकुआ (प्राकृत,पाली शब्द) फल, फूल, अक्षत, सिन्दूर, नारियल, रोड़ी, कुमकुम, जलते दीप आदि जो होती हैं, उसे व्रती अपने हाथों में लेकर भगवान् भास्कर की आराधना पश्चिम की ओर मुख कर करते हैं। परिवार के सभी सदस्यगण एवं अन्य लोग भी व्रती के हाथों में लिए सूप के आगे दूध और जल से ‘भगवान-भास्कर’ को “अर्घ्य” अर्पित करते हैं।

यही प्रक्रिया दूसरे प्रातः उषाकालीन भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान करने में भी व्रती अपनाते हैं। तत्पश्चात बालू या मिट्टी से छोटी ‘स्तूप’ बनाकर व्रती उसके सामने फल-फूल से भरे सूप को जलते दीपक के सामने पूर्ण भक्ति-भाव से पूजा-अर्चना करते हुए छठी मईया से अपनी मिन्नतें को पूर्ण करने की विनती करते हैं। फिर व्रती “खरना” (प्राकृत-पालीव मगही शब्द) यानी जलग्रहण कर व्रत को तोड़ते हैं। तीन दिनों का यह कठिन उपवास व्रत की समाप्ति होती है।

“छठ-व्रत” की शुरुआत “नहाए-खाए” (प्राकृतिक-पाली, मगही शब्द) से होती है। यह व्रत पुत्र की कामना, संतान की लंबी आयु,परिवार की सुख-समृद्धि, व्याधि से मुक्ति आदि के लिए बड़ी श्रद्धा, विश्वास और पवित्रता से की जाती है। यह पर्व अति शुद्ध, पवित्र और आडंबर रहित है, इसलिए इसे हिंदू धर्मावलंबी के अलावा दूसरे धर्म के मानने वाले भी कुछ लोग इस व्रत को करते हैं। इस पर्व का धार्मिक महत्व अत्यधिक जनप्रिय होने के कारण अब यह पर्व बिहार राज्य के अलावा अन्य राज्यों एवं मेट्रोपोलिटन सिटी में भी बड़े पैमाने पर होना आरम्भ हो चुका है।

हमारे सूर्य सौरमंडल का सबसे बड़ा अंग “सूर्य” है, जिसके चारों तरफ सभी ग्रहें चक्कर लगाती हैं। सूर्य हमसे करीब 15 करोड़ किलोमीटर दूर है, फिर भी सूर्य ही पृथ्वी को ऊर्जा प्रदान कर जीव-जंतु तथा उद्वभिद आदि को जन्म और प्राण देता है। सूर्य जितनी उष्मा धरती पर विखेरता है, उसमें से तीन चौथाई भाग को हमारा वायुमंडल सोख लेता है। यह आवश्यक भी है,यदि सूर्य शक्ति अपने पूर्ण रूप में सीधे धरती की सतह पर आ जाये अर्थात ऊष्मा (किरणें) धरती पर बिखेरे, तो यहां किसी भी प्रकार की जीवन की कोई संभावना नहीं बचेगी। तभी तो सर्वशक्तिमान सूर्य की पूजा सर्वप्रथम भय और श्रद्धा से शुरू हुई। फिर सूर्य प्रतिमा का निर्माण एवं सूर्य मंदिरों की स्थापना की परंपरा धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई।

वैदिक साहित्य में “सूर्य” एक प्रमुख देवता के रूप में प्रतिस्थापित किए गए। उस समय मूर्ति पूजा का कोई प्रचलन नहीं था। केवल मंत्रोच्चार के द्वारा ही पूजा-अर्चना की जाती थी। उन्हें साक्षात ईश्वर का प्रतिरूप मानकर संबोधित किया जाने लगा। जो लोग सूर्य को ही ईश्वर मानते थे,उनका एक अलग पंथ चला जो “सौर पंथ” कहलाया। मूर्ति रूप में सूर्य की प्रतिमा का प्रथम प्रमाण गया की कला में मिलीहै,जिसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है।

बौद्ध ऐतिहासिक स्थल “भाजा” की बौद्ध गुफा में भी सूर्य की प्रतिमा मिली है, जो इस बात को प्रमाणित करती है कि बौद्धों में भी सूर्य पूजा की परंपरा थी। माना तो यह जाता है, कि “सूर्य” पूजा अथवा “छठ मैया” की पूजा का आरंभ बौद्ध काल से ही हुआ है,क्योंकि ‘छठ-मैया’ व्रत की शुरुआत ही बौद्ध कालीन प्राकृत, पाली शब्द नहाय-खाय,लोहंडा,पारन और इससे जुड़ी पूजा की सारी सामग्रियां यथा–ठेकुआ और ठेकुआ में चित्रित-चित्र एक ओर पीपल का पत्ता तथा दूसरी ओर अष्ट-चक्र के चित्र बने होते हैं। साथ ही नदी, तालाबों के किनारे व्रती जो बालु या मिट्टी के छोटे आकार का स्तूप बनाकर व्रती पूजा-अर्चना करते हैं,वह बौद्ध परंपरा का ही द्योतक है।

उड़ीसा के खंडगिरि की अनंत गुफा में सूर्य की जो प्रतिमा मिली है, वह दूसरी शताब्दी की आंकी गयी है। सूर्य की प्राचीन मंदिरों में कश्मीर का “मार्तंड मंदिर” विशेष उल्लेखनीय है,क्योंकि “कल्हण” के “राज-तरंगिणी” में इसका विशेष उल्लेख मिलता है। किसी जमाने में यह मंदिर काफी विशाल और अत्यंत प्रसिद्ध था। इस मंदिर को आक्रमणकारी “सिकंदर” ने ध्वस्त कर दिया। बाद में इसका जिर्णोद्धार किया गया, बाद में वह भी आक्रमणकारियों का शिकार बना । अब इसके केवल ध्वंसावशेष ही शेष है। आठवीं शताब्दी में कश्मीर के “ललितादित्य मुक्तापिंड” ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था।

पौराणिक मान्यता के अनुसार श्री कृष्ण के पुत्र “शाम्ब” जो माता जामवंती से उत्पन्न हुए थे,वे अत्यधिक सुंदर और आकर्षक थे। परंतु श्रापवश उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। तब लंबे समय तक उन्होंने सूर्य की आराधना की, जिससे उन्हें कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई । मान्यता है कि इससे प्रसन्न होकर शाम्ब ने तीन सूर्य मंदिरों का निर्माण करवाया था। वे तीन मंदिर हैं– “कोणार्क” का सूर्य मंदिर,”कालपी” का सूर्य मंदिर और “मुल्तान” का सूर्य मंदिर। कोणार्क मंदिर में उदयकालीन सूर्य, कालपी में मध्यान्ह कालीन सूर्य तथा मुल्तान जो पाकिस्तान में है संध्याकालीन सूर्य की प्रतिमाएं स्थापित की गई थी।

मुल्तान में सूर्य की प्रतिमा सोने की विशाल सूर्य मंदिर के भीतर स्थापित थी,जिसका विशद वर्णन”ह्वेनसांग ” ने अपने यात्रा वृत्तांत में किया है। बाद में विद्वान “अलुबरनी” ने इस मंदिर में लकड़ी की मूर्ति होने का उल्लेख किया है। ऐसा अनुमान है कि आक्रमणकारियों द्वारा लूटपाट के उपरांत यहां की स्वर्ण मूर्ति के स्थान पर लकड़ी की मूर्ति स्थापित की गई होगी। मुल्तान का यह मंदिर पहले महमूद गजनवी का शिकार बना, बाद औरंगज़ेब की अत्याचारों का भी शिकार बना। कालांतर में मुल्तान को पाकिस्तान में चले जाने पर वहां के मुस्लिमों के अत्याचार से इस मंदिर के अब भग्नावशेष भी नहीं बचे हैं।

उड़ीसा का कोणार्क सूर्य मंदिर जो विश्व में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है,वह भी अन्य मंदिरों के समान अनेक बार तोड़फोड़ का शिकार हुआ। इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण सम्राट नरसिंह देव प्रथम ने 1238 से 1268 ई के अपने शासनकाल में निर्माण करवाया। यह मंदिर प्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी से करीब 30 किलोमीटर उत्तर पूर्व समुद्र तट के समीप स्थित है, जो विश्व में कलिंग स्थापत्य शैली का एक बेजोड़ नमूना है।

11वीं शताब्दी में बना गुजरात का मोढेरा का सूर्य मंदिर भी विश्व प्रसिद्ध माना गया है। अप्सरा तीर्थ के पाद तले स्थिति यह मंदिर विशाल एवं अत्यंत कलापूर्ण है। मान्यता है कि उर्वशी ने इसी तीर्थ में तपस्या की थी। श्री राम ने भी इसी मंदिर में यज्ञ किया था। बीजापुर के पास साबरमती और हातपता के संगम के निकट भी एक नवमी शताब्दी का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है, जिसे कोटयर्क का सूर्य मंदिर कहते हैं।

अल्मोड़ा में 12 किलोमीटर की दूरी पर एक 18वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर है। इस मंदिर को भी महमूद गजनवी के द्वारा नष्ट कर दिया गया था,जो अभी भी यह अत्यंत जीर्ण-शीर्ण स्थिति में है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें सूर्य की प्रतिमा रथ में बैठे हुए न होकर,खड़ी मुद्रा में है और इस मूर्ति के पैरों में भारी भरकम से जूते पहने हुए है।

यों तो अपने देश के प्रमुख सूर्य मंदिरों में यूनेस्को विश्व धरोहर का कोणार्क सूर्य मंदिर, दक्षिणार्क सूर्य मंदिर,मोढेरा सूर्य मंदिर, अल्मोड़ा जिले का कटारमल सूर्य मंदिर,रणकपुर सूर्य मंदिर, देव का एकमात्र सूर्य मंदिर जिसका दरवाजा पश्चिम मुख का है, औंगारी सूर्य मंदिर, हड़िया का सूर्य मंदिर,गया का सूर्य मंदिर,बांके धाम का सूर्य मंदिर,खनेटू का सूर्य मंदिर,बेलार्क का सूर्य मंदिर,महोबा एवं रहली का सूर्य मंदिर,रांची का सूर्य मंदिर, जम्मू और कश्मीर का सूर्य मंदिर, कंदाहा का सूर्य मंदिर,नीरथ-हिमाचल का सूर्य मंदिर, कोट-देवलास (देवलस गांव) प्राचीन सूर्य मंदिर आदि की महिमा अपार है। इसके अलावा विदेशों के अति प्रसिद्ध सूर्य मंदिरों में कंबोडिया का अंकोरवट, चीन के बीजिंग में मियांग राजवंश का सूर्य मंदिर, मिश्र का प्राचीन सूर्य मंदिर और मुल्तान-पाकिस्तान के अति प्रसिद्ध सूर्य मंदिर को विध्वंस किया हुआ ऐतिहासिक सूर्य मंदिर आदि उदाहरण है।

दक्षिण भारत में भी कई ऐतिहासिक प्रमुख सूर्य मदिर हैं। उनमें तमिलनाडु का सूर्यनार कोविल जो कुंभ कोणम के पास स्थित एक विख्यात सूर्य मंदिर है, जिसमें उनके वाहन में अश्व की प्रतिमा है, बेलगांव-कर्नाटक का मतलगा नामक स्थल में लगभग 400 वर्ष पुरानी एक स्थापित सूर्य की प्रतिमा के सामने प्रतिदिन सूर्य-सूक्त का पाठ किया जाता है। किंतु भारत के समस्त प्राचीन सूर्य मंदिरों की उचित देखभाल का अभाव है। उसे आवश्यकता अनुसार उसे विकसित और संरक्षित करने की नितांत आवश्यकता है, तभी हमारी प्राचीन संस्कृति और इतिहास की अस्मिता अक्षुण्ण बनी रह पायेगी।

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