सन् 1981 -82 में पुरातत्व निदेशालय बिहार द्वारा तारा डीह पुरातात्विक स्थल का पुनः खुदाई निदेशक डॉक्टर प्रकाश चरण प्रसाद के नेतृत्व में आरंभ की गई, जिसमें नवपाषाण काल से लगायत पाल काल तक की सात संस्कृतियों के अवशेष पाए गए, जो बोधगया की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को विश्व पटल पर ला दिया है ।
वर्तमान बोधगया प्राचीन काल में उरुविल्व, उरुवेला या उरेल के नाम से जाना जाता था।
उन दिनों उरुवेला की मर्यादा परकाष्ठा पर थी-“उरूति बालुका उच्चति बेलाति मरियादा।”
निरंजना नदी के तट पर बोधि बृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को प्रथम संबोधि की प्राप्ति हुई थी। विनय पिटक के महावग्ग के अनुसार “तेन समयेन बुद्धो भगवा उरुवेलायां विहरति, नज्जा नैरंजराय तीरे बोधि रुखमूले पठमामि संबुद्धो।” बोधगया की पावन धरती में शाक्यमुनि गौतम ने सभी व्रतों में कठिन शद्वर्तिका व्रत अर्थात् स्फानक ध्यान का व्रत धारण किया, जिसमें उनके साथ पंच सह ध्यानी साथी कौंडिण्य, भद्रक, महा नाम, वान्य और अश्वजीत शामिल हुए।
इस व्रत में गौतम ने अपने श्वास्- प्रस्वास प्रक्रिया को रोक कर शरीर के सारे क्रियाकलापों को विराम दिया । जब उनकी सांसे बंद होती देवतागण देखे और समझ में आया कि वह मृत्यु को प्राप्त करने वाले हैं , तब देवों ने उनकी माता माया देवी को उनके पुत्र की ऐसी दशा की सूचना दी।
कहा जाता है कि अप्सराओं से घीरे अपने सिद्धार्थ को उनकी माता जब पुत्र की यह अति दयनीय दशा को निरंजना के तट पर देखी तो अति दु:खी होती हैं । तब माता की आहट पाकर शाक्यमुनि अपनी मां को कहते हैं कि, हे मां ! तुम दु:खी मत हो । इस धरती पर दु:खी पड़े सभी मानव प्राणी के दु:खों के निवारण हेतु आपका यह पुत्र अवतरित हुआ है। तब माया देवी कहती है कि मैंने तुम्हारे भारी भार को अपनी कोख में 10 माह तक बहन किया और जन्म दिया है, इसलिए मैं तुम्हारी मां होने के नाते दुखी हूं। इसीलिए मैं अपने पुत्र के लिए रो रही हूं ।
तब गौतम उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहते हैं कि हे मां! तुम डरो मत, तुम्हारा पुत्र ज्ञान प्राप्ति कर बुद्ध बनेगा और संसार को दु:ख से मुक्ति दिलाएगा। गौतम बुद्ध कहते हैं, मां डरो मत तुम्हारा पुत्र बना रहेगा। फलदाई कर्म के लिए यह कठोर व्रत धारण किया हूं, सही ज्ञान की प्राप्ति कर मैं बुद्ध बनूंगा।
बौद्ध धर्म मानने वालों के बीच वैशाख पूर्णिमा का दिन अति पवित्र माना गया है , क्योंकि इसी दिन तथागत का जन्म ,ज्ञान की प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई थी । वैशाख पूर्णिमा के दिन ही बोधगया में पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए उस दिन से यह स्थल बुद्धगया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने यहां अपने आगमन पर बोधि वृक्ष के नीचे एक वज्रासन तथा उसके ऊपर छावनी का निर्माण करवाया था । चारों तरफ रेलिंग से भी घिरवाया था और एक स्तंभ जिसके ऊपर हाथी बना हुआ था, का निर्माण करवाया था । तब से बोधगया में मंदिरों एवं स्मारकों का निर्माण होता रहा है ।
इस बोध गया की ख्याति देश -विदेश में फैली है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर की सूची में सम्मिलित कर लिया है ।वर्तमान महाबोधि मंदिर गुप्त काल में निर्मित हुआ था । यह महाबोधि मंदिर वास्तु -शिल्प एवं मंदिर निर्माण कला का एक आज अद्वितीय उदाहरण है । अशोक काल में इसकी प्रसिद्धि देश एवं विदेशों में महाबोधि के नाम से हुआ ।
अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार, महाबोधि मंदिर परिसर में स्थित बौद्ध देवी तारा के मंदिर होने के नाम पर इस ग्राम का नाम ताराडीह हुआ । चीनी यात्री फाह्यान एवं व्हेनसांग ने श्रीलंका के राजा द्वारा निर्मित एक सँघाराम का उल्लेख किया है । ताराडीह की खुदाई बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय द्वारा कराई गई है, जिसमें नवपाषाण काल से ईसा पूर्व छठी शताब्दी और वर्तमान में 12वीं शताब्दी तक के अनेक पूरा अवशेष प्राप्त हुए हैं ।
उनमें तांबे के ढालूए सिक्के , पक्की मिट्टी की मुहरे, मिट्टी की मूर्तियां, पत्थर के मनके , तांबे और लोहे के औजार आदि प्रमुख हैं । इसके अलावा मौर्य , शुँग, कुषाण एवं पाल काल के भग्नावशेषो की श्रृंखला भी मिली है । सर्वप्रथम पुराविद मेजर मीडे ने खुदाई कर यहां शुंग कालीन वेदिका के अवशेष को प्रकाश में लाया था । इसके बाद वर्मा के ज्ञाताओं ने यहां उत्खनन कार्य किया और कई छोटे- छोटे मंदिरों एवं मनौती स्तूपो के अवशेषों को निकाला। फिर बेगलर महोदय ने खुदाई कर अशोक द्वारा निर्मित पवित्र वज्रासन को निकाला ।
जापान के क्वेटा यूनिवर्सिटी के पुराविदो ने भी खुदाई कार्य यहां आरंभ किए, किंतु उन्हें कोई महत्वपूर्ण पूरावशेष प्राप्त नहीं हुए। इस कारण उन्होंने खुदाई बंद करा दी। सन् 1981 -82 में पुरातत्व निदेशालय बिहार द्वारा तारा डीह पुरातात्विक स्थल का पुनः खुदाई निदेशक डॉक्टर प्रकाश चरण प्रसाद के नेतृत्व में आरंभ की गई, जिसमें नवपाषाण काल से लगायत पाल काल तक की सात संस्कृतियों के अवशेष पाए गए, जो बोधगया की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को विश्व पटल पर ला दिया है । यही कारण है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति ने इस स्थल को विश्व का सर्वोत्तम बौद्ध स्थल बताया है, जहां कि पूर्व के सभी बुद्ध को यहीं ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । बुद्ध के जमाने में यहां तीन जटिल कश्यप सन्यासियों -उरुवेल कश्यप ,नदी कश्यप और गया कश्यप थे ।
ये तीनो अग्निपूजक तापस क्षेत्रों में अग्रणी थे। इन्हें बुद्ध ने अपने ज्ञान से प्रभावित कर बौद्ध धर्म का अनुयाई बनाया था। इस प्रकार बोधगया बौद्ध धर्म अनुयायियों का पवित्र , मनोरम एवं पवित्रतम बौद्ध धार्मिक स्थलों में विख्यात है । यही कारण है कि लाखों देश विदेश के पर्यटक ,बौद्ध भिक्षु , दलाई लामा आदि यहां पहुंचते हैं । भारत का यह अति गौरवपूर्ण पर्यटन स्थल में एक है । यह हवाई मार्ग तथा सड़क मार्ग से जुड़ा है।