Thursday, May 22, 2025
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बिहार में सरकारी उपेक्षा का शिकार धरावत का ऐतिहासिक मंदिर

हाल के वर्षों में यहां से मौर्यकालीन आहत ढालुएँ स्वर्ण- मुद्राएं ,चैत्यों व स्तूपों के भग्नावशेषों से ।।तथागतस्य बुद्धस्य।। लिखे बड़ी मात्रा में सीलें, स्तूप के लगे ठप्पे की ईंटें तथा 6 ईंच चौड़ी एवं साढे चार ईंच ऊँची मिट्टी पात्र में 500 कौड़ियाँ मिली थी। पहाड़ी से नीचे एक विशाल 2000 फीट लंबा तथा 800 फीट चौड़ा चंदोखर नामक तालाब दांगी राजा चंद्रसेन द्वारा निर्मित है, जो आज पर्यटन की दृष्टि में नौकायन के लिए अति उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

विश्व में बौद्ध प्रस्तर- तक्षण महाविहार के प्रथम नमूने के रूप में विख्यात बराबर पहाड़ी की गुफाओं से 7 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम कोन पर जहानाबाद जिला के धरावत नामक स्थल बौद्ध धर्म के इतिहास में अनमोल महत्व रखता है। यहां राजा चन्द्रसेन के दरबार में पूर्व से नियुक्त विद्वता के घमंड में चूर माधव नामक ब्राह्मण को दक्षिण भारत से आए बौद्ध विद्वान गुणवती ने 6 दिनों में शास्त्रार्थ कर पराजित किया था, जिससे उसकी मौत हो गई थी। राजा ने विद्वान गुणमति को अपने राज में रख उस की विद्वता से प्रभावित हो उसके नाम एक विशाल महाविहार का निर्माण कराया था, जिसका भग्नावशेष आज भी उस कथा की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है।
प्राचीन जमाने में यह स्थल धर्मपुरी, कंचनपुर, धर्मावर, धरावत आदि नामों से प्रसिद्ध रहा है। इसकी प्रसिद्धि जानकर ही दक्षिण भारत का वह बौद्ध विद्वान यहां आया था, जिसे अपनी विद्वता के घमंड में चूर माधव ब्राम्हण ने उसे शहर में प्रवेश से रोका था । उसने चुनौती दी थी कि यदि वह राज्य के प्रवेश द्वार पर आ जाएगा तब उसे सिर मुंडन कर मात्र एक वस्त्र पहनाकर वापस लौटा दिया जाएगा। गुणमति प्रसिद्ध धर्मपुरी को अपनी आंखों देखना चाहता था, चूँकि यह वह जानता था कि यहां भगवान बुद्ध से जुड़े अनेक पवित्र चैत्य व स्तूप विद्यमान थे। पहाड़ी पर तथा उससे सटे दीवारों में अपार कलात्मक बहुत बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ श्रृंखलाबद्ध स्थापित की गई थी, जिसे देखने दूर-दूर से बौद्ध तथा अन्य लालायित श्रद्धालु बड़ी संख्या में यहां आते थे।
लाचार गुणमति ने राजा को एक अनुरोध पत्र भेजा कि वे अपने विद्वान ब्राह्मण माधव से उसे मिलवाएं और शास्त्रार्थ करने को कहें। राजा ने गुणमति की बात स्वीकार कर ली और शास्त्रार्थ की सारी व्यवस्था तत्काल कर दी गई। दूर देश से विद्वान व राजा-प्रजा वहां पधारे। 6 दिनों तक दोनों के बीच शास्त्रार्थ चलता रहा। अंत में घमंडी माधव छठे दिन पराजित हो गया, जिससे कहा जाता है कि उसके ब्रह्मांड फट गए और उसकी मौत उसी क्षण उसी स्थल पर हो गई।
गुणमति की जय- जयकार हुई। राजा ने प्रसन्न होकर उस विद्वान गुणमति की विजय पर उसके नाम एक विशाल महाविहार बनाने की घोषणा की और उस विद्वान को अपने राज्य में स्थायी रूप से रहने के लिये शरण दे दिया ।यह भव्य महाविहार चौथी सदी में बना था ।
चीनी यात्री ह्वेनसांग इस महाविहार को भारत भ्रमण के क्रम में देखने आया था, जिसका वर्णन उसने अपने यात्रा वृतांत में किया है। 1847 में पुराविद् मेजर किटो ने यहां की ऐतिहासिकता का पता लगाया था । तत्पश्चात् मेजर कनिंघम ने 1862 और फिर दोबारा 1880 में यात्रा कर इस स्थान के महत्व के बारे में प्रकाश डाला। 1872 ई.में पुराविद्  वेगलर यहां आकर इसकी ऐतिहासिकता को जाना ।
सन् 1900 में ग्रियर्सन ने यहां का सर्वेक्षण किया। विद्वानों ने धरावत के दक्षिण पहाड़ी श्रृंखला में रतनी एवं कुनबा पहाड़ियों का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने बताया है कि इस पहाड़ी से कुछ दूरी पर गुणमति नामक प्रसिद्ध बौद्ध महाविहार था । मेजर कनिंघम के अनुसार यह महाविहार 250 फीट लंबा एवं 60 फीट चौड़ा क्षेत्रफल में आकर्षक ढंग से बना था। पहाड़ी की उत्तरी ढलान पर बड़े महाविहार के अवशेष तथा बड़ी संख्या में मूर्तियां बरामद की गई थी । ऊपरी चोटी पर भी कई बौद्ध अवशेषों की खोज लेखक ने स्वयं की है।
पहाड़ी की तलहटी में 60 फीट लंबी एक वेदी पर तथा 200 गज की दूरी पर 250 फीट लंबी दूसरी वेदी पर आकर्षक बड़ी-बड़ी बौद्ध प्रतिमाएं कतारबद्ध जड़ी थीं, जिनके अवशेष आज भी मिलते हैं। अभाग्यवश बीते वर्षों में ग्रामीणों ने लूटपाट मचाकर प्रतिमाओं को वहां से हटा दिया तथा उसकी इंटों को भी अपने निजी कार्य में लगा लिया। प्राप्य मूर्तियां शिवालयों एवं निजी घरों की शोभा बढ़ा रही है। कुछ मूर्तियां घरों में ओखल तथा सिलवट का भी कार्य कर रही हैं।
लेखक ने बिहार पुरातत्व निदेशालय तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का भी ध्यान उस ओर आकर्षित किया था, किंतु आज तक परिणाम शून्य है।
बिहार पुरातत्व निदेशालय के निदेशक डॉ अजय सिन्हा को भी साथ लाकर यहां का दौरा करवाया तथा अन्वेषण एवं सर्वेक्षण कार्य भी हुए, किंतु अभी तक कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाए हैं। यहां की बेशकीमती बड़ी मूर्तियां गया समेत अनेक संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं तथा कुछ तस्करों के हाथ लग गई हैं। लिपियुक्त अभी भी स्थानीय प्राचीन शिवालय परिसर में 7 फीट ऊंची बड़ी आदमकद बुद्ध की प्रतिमा तथा गांधार एवं मथुरा कला की अनेकों मूर्तियां खुले आकाश में अपरदन का शिकार हो रही हैं ।
जनरल कनिंघम के अनुसार पहाड़ी की चोटी पर बनी मूर्तियों का काल 9वीं तथा 10वीं शताब्दी का बताया गया है , जबकि स्तूप एवं गुणमति विहार का काल उन्होंने चौथी शताब्दी का बताया है। प्राचीन काल में यह स्थल एक उन्नत शहर के रूप में विकसित था । ग्रामीण इसे कोट के नाम से पुकारते है । यहां वर्षा काल में अनेक मूर्तियां, खिलौने, मनके , चूड़ियां , रेडवेयर, ग्रेवेयर ,चमकीली मृदभांड के टुकड़े, अस्थियां आदि बहुतायत मिलती हैं। छह बड़े यहां पुरातात्विक ऊंचे टीले हैं, जो बरवस किसी भी पूराविद् को आकर्षित करते हैं। इनकी खुदाई होने पर बिहार ही नहीं, वरन् देश के समृद्ध इतिहास को खोलने में यह विशेष सहायक सिद्ध होगी।
हाल के वर्षों में यहां से मौर्यकालीन आहत ढालुएँ स्वर्ण- मुद्राएं ,चैत्यों व स्तूपों के भग्नावशेषों से ।।तथागतस्य बुद्धस्य।। लिखे बड़ी मात्रा में सीलें, स्तूप के लगे ठप्पे की ईंटें तथा 6 ईंच चौड़ी एवं साढे चार ईंच ऊँची मिट्टी पात्र में 500 कौड़ियाँ मिली थी। पहाड़ी से नीचे एक विशाल 2000 फीट लंबा तथा 800 फीट चौड़ा चंदोखर नामक तालाब दांगी राजा चंद्रसेन  द्वारा निर्मित है, जो आज पर्यटन की दृष्टि में नौकायन के लिए अति उपयोगी सिद्ध हो सकता है। प्राकृतिक सुषमाओं से पूरित एवं संवर्द्धित यह स्थल पर्यटन के क्षेत्र में विकसित करने के लिए अति उपयोगी साबित हो सकेगी।
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