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समृद्ध विरासत में बिहार का एक महान बौद्ध स्थल ” केशपा ” की प्रसिद्धि

यह स्थल वज्रयानियों व तांत्रिकों के मुख्य केंद्र के रूप में  प्रतिष्ठित रही है। यहां मां तारा की आराधना भक्तजनों द्वारा शंभूनाथ-वाक्शक्ति की प्राप्ति आदि को मोक्ष देने वाली के रूप में की जाती है। हिंदु परंपरा में भी दस महाविद्याओं में काली के बाद दूसरा स्थान मां-तारा का ही है। हिंदू धर्म में  भगवती काली को नीलरूपा होने के कारण ” तारा “कहा गया है । वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ होने के कारण ये “नील सरस्वती” भी कहलाती हैं। “बृहन्नील-तंत्र”आदि ग्रंथों में भगवती तारा के स्वरूपों का विशेष वर्णन मिलता है। पाल कालीन तथा गुप्तकालीन संरचनाएं इन टीलों में भरी पड़ी हैं । बुद्ध की अति भव्य एवं आकर्षक आदम कद मूर्ति गांव के मध्य वर्षा और धूप से अपरदन (Denudation) का  शिकार हो रही है। यही हाल गांव के बधार में पड़ी पृथ्वी की भी एक अति आकर्षक बहुमूल्य  विशाल मूर्ति भी उपेक्षित अपरदन का शिकार हो रही है ।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी भगवान बुद्ध के जमाने में एक महान् व्यक्तित्व की प्रसिद्धि बौद्ध जगत में विशेष थी। वे थे बौद्ध संघ के प्रसिद्ध भिक्खु महाकश्यप। ये ब्राह्मण-शास्त्र के उद्घभट् विद्वान तथा ब्रह्मविद्या के महान् विशेषग्य थे। उन्होंने भगवान बुद्ध से प्रवज्या ग्रहण की थी और विनय के ये कठोर पालक थे। बहुत ही कम समय में इन्होंने अर्हत पद को प्राप्त कर लिया था। अर्हताओं में भगवान बुद्ध के बाद इनकी ही गणना थी।

बुद्ध शासन संबर्धन करने वालों में इनका योगदान अग्रगण्य था। भगवान बुद्ध इन्हें दीक्षा के समय अपना परम पवित्र चीवर को उनके ऊपर डाल दिया था तथा उनके रेशमी चादर को स्वयं ले ली थी। इतना बड़ा सम्मान भगवान बुद्ध की ओर से अन्य किसी भी भिक्षु को प्राप्त न थी। कहा जाता है कि महाकश्यप ने मात्र सात दिनों में ही “अर्हत” पद को प्राप्त कर ली थी । इस कारण बौद्ध संघ में सारिपुत्र और मोद्ग्लायन के बाद इनका उच्च स्थान था ।

महाकश्यप इतने बड़े विद्वान थे कि आनंद जैसे विग्य को भी उन्होंने बौद्ध धर्म के विनय #आचार# का उपदेश दिया था । इस कारण आनंद उन्हें अपना गुरु मानते थे । महाकश्यप नियम के मामले में बड़े कठोर थे। वे उच्च कोटि के ज्ञानी, प्रज्ञावान एवं अति सम्मानित भिक्खू के रूप में प्रतिष्ठित थे। उनके नाम पर बौद्ध संघ में “महाकश्यपीय-संप्रदाय” भी बना, जो वास्तव में स्थविरवाद का सबसे प्राचीन संप्रदाय माना जाता है। इन्हीं के प्रभाव से बुद्ध का अति विरोधी सम्राट अजातशत्रु भी, जिसने अपने पिता बिंबिसार को जो भगवान बुद्ध का अनन्य भक्त था, उसे जेल में कैद कर रखा था।  परंतु, अंत में वह भी भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित हो बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था । इतना ही नहीं उसने भगवान बुद्ध के धातु पर चैत्यों का निर्माण करवाया तथा अजातशत्रु ने ही राजगृह में बौद्ध धर्म की प्रथम संगीति भी करवाई, जिसकी अध्यक्षता (धर्माचार्य) का पद महामहिम महाकश्यप ने निभाई थी ।

ऐसे महान् व्यक्तित्व वाले महाकश्यप के जन्म स्थल के रूप में ऐतिहासिक बौद्ध स्थल ” केशपा ” को जाना जाता है । यह पवित्र स्थल बिहार राज्य के गया से करीब 40 किलोमीटर दूर तथा टिकारी से 14 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। कई विद्वानों ने इनका जन्म स्थान पटना के महातीर्थ नामक ग्राम को बताया है, किंतु अधिसंख्य बौद्ध विद्वानों ने महास्थविर “महाकश्यप” की जन्म भूमि निश्चित रूप से केशपा, काश्यपका और अंग्रेजी में किसपा के नाम को ही है । प्राचीन जमाने से ही यह स्थल अत्यंत पूजित एवं जागृत रही है। यही कारण है कि यहां बुद्ध, विष्णु तथा पृथ्वी आदि के अलावा मां तारा की आदमकद लिपि युक्त प्रतिमा भक्तों के श्रद्धा का अपार केंद्र बना हुआ है। भगवान बुद्ध की भी कई  आदमकद लिपियुक्त प्रतिमाएं यहां पूजित हैँ अथवा संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। यहां का पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक बड़ा टीला अभी भी मां तारा मंदिर के पास में विद्यमान है, जिसमें से अनेक बौद्ध प्रतिमाएं, सिक्के, मनके, मृदभांड तथा एनवीपी आदि के टुकड़े आज भी बहुतायत संख्या में  मिलती हैं ।

यह स्थल वज्रयानियों व तांत्रिकों के मुख्य केंद्र के रूप में  प्रतिष्ठित रही है। यहां मां तारा की आराधना भक्तजनों द्वारा शंभूनाथ-वाक्शक्ति की प्राप्ति आदि को मोक्ष देने वाली के रूप में की जाती है। हिंदु परंपरा में भी दस महाविद्याओं में काली के बाद दूसरा स्थान मां-तारा का ही है। हिंदू धर्म में  भगवती काली को नीलरूपा होने के कारण ” तारा “कहा गया है । वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ होने के कारण ये “नील सरस्वती” भी कहलाती हैं। “बृहन्नील-तंत्र”आदि ग्रंथों में भगवती तारा के स्वरूपों का विशेष वर्णन मिलता है। भगवती तारा नीलवर्ण वाली, नीलकमलों के समान त्री-नेत्र वाली तथा हाथों में कैंची, कमल, कपाल और खड्ग धारण करने वाली हैं । ये व्याघ्र-चर्म से भूषित तथा कण्ठ में मुंडमाल धारण करने वाली हैं । रात्रि- देवी स्वरूपा शक्ति “मां-तारा” महाविद्याओं में अद्भुत क्षमता वाली सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजित हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-प्रथम तारा, दूसरा एक जटा और तीसरा नील सरस्वती। तीनों रूपों के रहस्य भी भिन्न-भिन्न हैं , फिर भी शक्ति सबों की समान हैं ।तारा की उपासना तंत्रोक्त पद्धति से की जाती है, जिसे “आग-मोक्त ” पद्धति भी कहते हैं । इनकी उपासना से बृहस्पति के समान विद्वता प्राप्त होती है ।

मान्यता है कि सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी, इस कारण तारा को “वशिष्ठाराधिता- तारा” भी कहा जाता है । महर्षि वशिष्ठ ने पहले तारा की आराधना वैदिक रीति से करना आरंभ किया था, किंतु सफलता नहीं मिली तब उन्होंने तांत्रिक पद्धति से आराधना की , जो तंत्र परंपरा में ” चिनाचारा ” नाम से जाना जाता है । तारा का प्रादुर्भाव मेरु पर्वत के पश्चिम चोलना नामक नदी अथवा चोलत सरोवर के तट पर से हुआ माना जाता है –
“मेरो: पश्चिम कूले नु चौत्रताख्यो ह्रदो महान् ,
तत्र जग्ये स्वयं तारा देवी नीला सरस्वती।”

महाकाल-संहिता” के अनुसार तारा-रात्रि में तारा की उपासना का विशेष महत्व माना गया है । इसी कारण चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि को “तारा- रात्रि” भी कहा गया है । बिहार राज्य के सहरसा जिला अंतर्गत महिषी में “उग्रतारा” सिद्ध- पीठ है, जहां तारा, एक जटा एवं नील सरस्वती, इन तीनों की मूर्तियां एक साथ विराजमान हैं । मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियां स्थापित हैं। महर्षि वशिष्ठ ने इसी तारा की उपासना कर सिद्धि प्राप्त की थी। इस कारण यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना गया है । किंतु, महान् धार्मिक स्थल केशपा का सीधा संबंध बौद्ध जगत के तंत्र-वर्ग से है ।

यह स्थल महायान सूत्रों के साथ तंत्रों की भी उत्पत्ति से संबंधित है। बौद्ध सूत्रों  के अनुसार अनुत्तर- योगतंत्र जिन सिद्धाचार्यों द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं , उनमें प्रमुख हैं -लुईपा (769- 809) द्वारा”योगिनी- संचर्या” श्री सरह द्वारा “बुद्ध-कपाला”, कंबल और सरोरुह व्रज द्वारा “हे-वज्र”,कृष्णचारिन द्वारा “संपुटतिलक” ,ललित वज्र द्वारा “कृष्णयमारि”, गंभीर वज्र द्वारा “वज्रामृत”, कुक्कूरिपा द्वारा “महामाया” और पिटोपा द्वारा “कालचक्र” आदि।

डोंभिहेरुक द्वारा रचित सहजसिद्धि की गणना सात या आठ सिद्धियों में की जाती है। ये सारे ग्रंथ भारत और तिब्बत के भिन्न-भिन्न परंपराओं से प्रादूर्भूत हुए हैं। नागार्जुन के समय मात्र तारा के मंत्र -तंत्र द्वारा करीब 5000 से अधिक लोगों को सिद्धि मिली थी । बाद दारिक और कृष्ण चारिन के अनुचरों आदि द्वारा इनकी संख्या असंख्य सिद्धों की मानी जाती है।

 चौथी शताब्दी के आरंभ से मध्यकाल तक महायान के तहत पुरुष पूजा की प्रधानता थी। इस बीच नादर्न बौद्धौं के बीच “असंग” ने योग धारा पर बल दिया और स्त्री पूजा का शुभारंभ देवी तारा से किया। सातवीं शताब्दी में यह दो प्रख्यात तथा फिर इक्कीस तारा समूहों के रूप में पूजित होने लगीं। दूसरी देवियां भी पूजित हुईं, किंतु किसी ने भी देवी- तारा और बोधिसत्व के रूप में दर्जा प्राप्त नहीं कर सकीं। सातवीं शताब्दी में ही तंत्र यान में विकृति आ जाने के कारण “नॉर्दन-बुद्धिस्ट स्कूल” में ह्रास हुआ। भयंकर क्रूर देवियों का रूप प्रकट किया गया, फिर भी शक्ति की अराधना एवं ईश्वरीय दैवी शक्ति के स्वरूप बरकरार रखते हुए “ग्रीन-तारा” को अवलोकितेश्वर शक्ति के रूप में पूजा होने लगी। इस प्रकार यह संपूर्ण तिब्बत और मंगोलिया देश में विख्यात हो गया और सभी देवताओं के साथ शक्ति रूप में एक देवी की पूजा आरंभ हो गई , जो “याब-चुम” कहलाती है । चीन देश में एकमात्र “कुआन-यी ” देवी के रूप में देवताओं के समरुप पूजित है, न की वह अवलोकितेश्वर की जीवनसाथी के रूप में । इसी प्रकार जापान में भी  ये “क्वान- नान ” देवी के रूप में पूजित है । चीन एवं जापान में ये शक्ति के रूप में कभी पूजित नहीं हुई ।

चीन के लामा मंदिरों में ” याब- युम ” देवता की पूजा अवश्य देखी जाती है । चीन और जापान में अकेले पुरुष देव ही प्रधान होते हैं, देवी का होना वहां आवश्यक नहीं। पुरूष अवतार के रूप में वे सुखावती (पैराडाइज ऑफ़ एमिड) की पूजा करते हैं । यही कारण है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थल #केशपा# स्थित शक्ति रुपी तारा की पूजा, आराधना एवं दर्शन के लिए काफी संख्या में देश-विदेश के बौद्ध और लामा यहां पधारते हैं।

इससे यह स्पष्ट होता है कि एक तो यह स्थल चूंकि महान् बौद्ध आचार्य महाकश्यप की गृह भूमि थी, उसे दर्शन करने तथा दूसरे इस तारा देवी की महिमा दूर देशों में प्रचारित रहने के कारण यहाँ बौद्ध श्रद्धालुओं का तांता लगातार बना रहता है । बौद्ध धर्म में स्त्री देवियों के तीन रूप मिलते हैं – पहला बोधिसत्व, दूसरा शक्ति और तीसरा डाकिनी । ये  देवियांँ प्रायः दो रूपों में पूजित हैं। प्रथम शांत रूप तथा दूसरा क्रोधी रुप । शांत रूप की देवी साधारणतया बैठी, तेरह बोधिसत्व धारण किए हुए, जिसमें पांच मुकटों के साथ  हंसता हुआ मुद्रा और प्रायः अर्न (Urn ) के साथ होती हैं, साथ ही इनके बाल लहरेदार और लंबी होती हैं। वहीं क्रोधी देवी के बाल बिखरे,त्रिनेत्र धारी, तांत्रिक आभूषण युक्त तथा धर्मपाल देव के सदृश होती हैं । शक्ति देवी के निम्न अंग बाघ या सिंह के चमड़े से ढकीं होती हैं और बोधिसत्व या तंत्र आभूषणों से युक्त होती हैं । डाकिनी प्रायः खड़ी और नृत्य मुद्रा में होती हैं। ये भी तंत्र आभूषण से युक्त होती हैं तथा खट भंग धारण किए हुए या जादुई छड़ी धारण किए होती हैं। डाकिनी के भी पाँच समुह हैं, जो पाँच ध्यानी बुद्ध और बोधिसत्व से प्रसिद्ध हैं । बुद्ध डाकिनी चक्र धारण किए रहती हैं और इनके हाथों में वज्र , रत्न, पद्म और विश्व होते हैं। एक बौद्ध डाकिनी “कर्मा “वे तलवार धारण किए होती हैं ।

चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार छठी शताब्दी से सातवीं शताब्दी के बीच उत्तरी बौद्ध देवों के बीच देवी “तारा” को नामांकित किया गया है, उत्तरी भारत में आठवीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के बीच विभिन्न नामों से महायान की किसी भी देवता से कम विख्यात नहीं रही  है। इस कड़ी में केशपा का यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल बौद्ध देवी तारा को लेकर काफी प्रसिद्धि पर रहा है। यहाँ साधक देवी तारा के पास वर्षों अपना जीवन बिताते और सिद्धि पाते थे। साधकों के लिए यहां अनेक  विहार बने हुए थे, जिनके भग्नावशेष करीब दो एकड़ भूमि में अभी भी फैले पड़े हैं । इन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक टीलों से अनेक पुरातात्विक सामग्रियां प्राप्त होती हैं ।

पाल कालीन तथा गुप्तकालीन संरचनाएं इन टीलों में भरी पड़ी हैं । बुद्ध की अति भव्य एवं आकर्षक आदम कद मूर्ति गांव के मध्य वर्षा और धूप से अपरदन   (Denudation) का  शिकार हो रही है। यही हाल गांव के बधार में पड़ी पृथ्वी की भी एक अति आकर्षक बहुमूल्य  विशाल मूर्ति भी उपेक्षित अपरदन का शिकार हो रही है । ग्रामीणों ने मां तारा के मंदिर को संगमरमर से सजाया  है तथा प्रत्येक वर्ष दुर्गाष्टमी के दिन यहां श्रद्धालुओं की अपार भीड़ होती है । ऐसे भी यहां प्रति दिन भक्तों और दर्शकों का तांता बराबर लगा  रहता है। महास्थवीर महाकश्यप की एक ओर जहां जन्मभूमि स्थल गया जिले के टिकारी  प्रखंड अंतर्गत प्रसिद्ध  ऐतिहासिक ग्राम केशपा में माना जाता है ,वहीं उनका महापरिनिर्वाण व समाधि स्थल  गया  जिले के ही पवित्र पहाड़ी स्थल”गुरपा “,जो गुरुपाद गिरी से विख्यात है माना गया है ।

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