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नेहरू की गलती की वजह से नगालैंड दुनिया में एकमात्र ‘बैपटिस्ट राज्य’ बन गया

देश को आजादी मिलते ही भारत में इसाई पुनरूत्थान को लेकर चर्च हरकत में आ गया। इसाई मिशनरियों को यह डर था कि आजाद भारत की सरकार कहीं उत्तर पूर्वी क्षेत्र में कोई सख्त नियम न बना दे। इसके लिए आंदोलन की रूपेरखा तय की गई। 1962 में पहली बार नगालैंड क्रिश्चियन रिवाइवल के रूप एक आंदोलन शुरू हुआ।

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भारत में जबरन धर्मांतरण को रोकने के लिए कई राज्यों में सख्त कानून बनाये गये हैं लेकिन उत्तर पूर्वी राज्यों में धर्मातरण को लेकर वहां की सरकारें नरम रवैया दिखाती हैं। इसकी वजह है कि उत्तर पूर्व के कई राज्यों मेें इसाई बहुमत वाली पार्टी या सत्तारूढ़ सरकार का हिस्सा बनती रही है।

उत्तर पूर्व के कई राज्यों में इसाई मतदाताओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। जबकि नगालैंड में इसाई की आबादी 85 फीसदी से उपर पहुंच चुकी है। नेहरू सरकार की एक गलती की वजह से विशेष रूप से नगालैंड में इसाइयों की बहुलता बढ़ जाने से भारत की सास्कृतिक पहचान भी खत्म होने की कगार पर है। पिछले कुछ सालों से उत्तर पूर्वी राज्यों के चुनावों में चर्च की भूमिका देखी जाने लगी है।

केन्द्र शासित प्रदेश नगालैंड में पिछले साल इसाइयत के 150 वर्ष पूरे हुए तो इसकी उपलब्धि में भव्य समारेाह का आयोजन किया गया था। जिसमें कई देशों और भारत के प्रमुख चर्च के बैपटिस्टों ने शिरकत की थी। नगालैंड का प्रमुख धर्म इसाई है। इस राज्य की सांस्कृतिक पहचान भी भारत की संस्कृति से अलग है। नगालैंड के निवासियों की सास्कृतिक और जीवन पद्वति में भी इसाइयत की छाप दिखती है।

2011 की जनगणना के अनुसार नगालैंड की आबादी 1,978,502 है। जिसमें इसाई धर्म माने वालों की आबादी 87.93 है। 8.7 फीसदी हिन्दुओं की आबादी है। जबकि मुसलमान 2.5 फीसदी है। इस राज्य में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्माें को मानने वालों की संख्या बहुत कम है। नगालैंड के कई शहरों में विशेषकर कोहिमा, दीमापुर और मोकोकचुंग में विशालकाय और बड़े भूभाग में फैले कई चर्च दिख जायेंगे। एशिया का सबसे बड़ा चर्च नगालैंड में है जिसकी उंचाई 203 फीट है। इस चर्च को सुमि बैपटिस्ट चर्च के नाम से जाना जाता है। नगालैंड में चर्च द्वारा संचालित कई शिक्षण संस्थान हैं।

देश को आजादी मिलते ही भारत में इसाई पुनरूत्थान को लेकर चर्च हरकत में आ गया। इसाई मिशनरियों को यह डर था कि आजाद भारत की सरकार कहीं उत्तर पूर्वी क्षेत्र में कोई सख्त नियम न बना दे। इसके लिए आंदोलन की रूपेरखा तय की गई। उस समय नगालैंड में इसाइयों की संख्या ज्यादा थी इसलिए इसाई आंदोलन यहीं से शुरू हुआ।

1962 में पहली बार नगालैंड क्रिश्चियन रिवाइवल के रूप एक आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन की शुरूआत कोहिमा जिले की गैरिफेमा गांव में हुई थी। आजादी से पहले भारत में इसाई मिशनरियों ने इन्हीं क्षेत्रों में अपना ठिकाना बनाया फिर धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में विस्तार की रणनीति बनायी।

नगालैंड को भारतीय गणराज्य में शामिल होने के लिए भारत सरकार की ओर से प्रस्ताव भेजा गया था। उसी समय इसाइयों द्वारा ग्रेट अवैकनिंग नाम से एक कार्यक्रम की शुरूआत की गई। इस कार्यक्रम के माध्यम से भारत सरकार को इसायइत का प्रभुत्व दिखाना था। जब भारत में नगालैंड को शामिल करने की बात आयी तो नगालैंड चर्च के बैपटिस्टों ने भारत की सांस्कृतिक पहचान की जगह क्रिश्चयनिटी को इस राज्य की पहचान बनाने का दबाव बनाया।

नगालैंड को इसाई बहुल राज्य और क्रिश्चयनिटी के रूप में पहचान देने में भारत की तत्कालीन नेहरू सरकार को कोई गुरेज नहीं थी। यह जानना जरूरी है कि क्रिश्चयनिटी भारत की मूल सांस्कृतिक-धार्मिक विविधताओं में शामिल नहीं है। फिर भी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसपर विचार करना उचित नहीं समझा।  01 दिसम्बर 1963 में नगालैंड भारतीय गणराज्य का 16वां राज्य बना।

नेहरू सरकार के नरम रूख से नगालैंड में चर्च और मिशनरी का प्रभुत्व बढ़ता गया और गैर इसाई नगाओं तक मिशनरी की पहुंच पर जोर दिया गया। इस राज्य के गठन के समय से ही चर्च और मिशनरी के बढ़ते प्रभुत्व के कारण विशेषकर हिन्दू धर्म के उत्थान के रास्ते बंद हो गये। नगालैंड में चर्च की बहुलता और प्रभुत्व से वहां की शिक्षण और सांस्कृतिक परिवेश में इसाइयत की झलक दिखती है।

नगालैंड इसाई सांस्कृतिक पहचान रखने वाला राज्य बन गया। दुनिया में एकमात्र *बैपटिस्ट राज्य* के रूप में नगालैंड को जाना जाता है। नेहरू सरकार की अदूरदर्शिता के कारण आज उत्तर पूर्वी भारत के कई राज्यों में भारत की मूल सांस्कृतिक पहचान खत्म होती दिख रही है। भारत में इसाई मिशनरी का प्रवेश डेढ़ सौ वर्ष पहले हुई। इससे पहले भारत की जनजाति अपनी मूल सास्कृतिक परम्पराओें, प्रथाओं और विचारों से जुड़ी थी।

आजादी से पहले और आजादी के भारत में जनजातियों का सबसे ज्यादा धर्मांतरण हुआ है। ऐतिहासिक दस्तावेजो से भी पता चलता है कि भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में कई जनजातियां रहती थी और उनका प्रकृति से विशेष लगाव था। कभी वह वैदिक संस्कृति का हिस्सा रहें हैं। वह नदी, पहाड, जंगल, पेड़-पौधे और ईश्वर के प्रतीकों की पूजा करते रहे हैं। लेकिन उनकी सांस्कृतिक पहचान बदल गई है।

इसाई धर्म में धर्मांतरित होने से उन जनजातियों की भी पहचान मिटती जा रही है। जिससे भारत की विविधता का तेजी से लोप हो रहा है। धर्म परिवर्तन करने वाली जनजातियों के उनके पैतृक धार्मिक रीति रिवाज,आस्था, परम्परायें, प्रथायें, धार्मिक प्रतीक… लगभग लुप्त हो चुकी हैं।

ऐसी परिस्थितियां सिर्फ नगालैंड में ही उत्पन्न नहीं हुई है बल्कि उत्तर पूर्व के कई राज्यों में इसाईयत का प्रभाव दिखने लगा है। नगालैंड के अलावा मेघालय, अरूणाचल, मिजोरम और मणिपुर में इसाइयत के प्रभुत्व से सिर्फ सांस्कृतिक विविधताएं ही खतरे में नहीं है बल्कि यह भारत की अखंडता के लिए भी बड़ा खतरा है।

पिछले दिनों मणिपुर में कूकी और मतेई के बीच हुई हिंसक वारदातें इसाइयत के बढ़ते प्रभुत्व का परिणाम है। मणिपुर में कूकी जनजाति धर्मांतरित इसाई है और वहां की 90 फीसदी भूभाग पर इनका कब्जा है। जबकि हिन्दू धर्म मानने वाली मैतेई की आबादी मात्र 10 फीसदी है और इन्हें सरकारी लाभ पाने से भी वंचित रखा जा रहा है।

शेष –

 

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