Thursday, May 22, 2025
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विलुप्ति के कगार पर 4767 ई. पूर्व की गौरवमयी डांग सभ्यता

भारत के बाहर भी डांगी समाज की सभ्यता, संस्कृति, बोली और भाषा से जुड़े कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं- उनमें ईरान की हेलमंद घाटी में द्रांगियाना, काबूल के पास यदु की डांग, नेपाल में डांग देवखुरी तथा मध्य एशिया में दागिस्तान आदि प्रमुख हैं। वे क्षेत्र डांगियों के प्रभाव वाले विकसित क्षेत्र के रूप मे प्रतिष्ठापित रहे हैं। मध्य भारत एशिया स्थित दागिस्तान में धर्म परिवर्तन करने के बाद भी डांगी अपनी प्राचीन गरिमा और परंपरा को कायम रखने में गौरव महसूस करते हैं।

डांगी समाज की सभ्यता संस्कृति और बोली वन- प्रातंरों, पर्वत पहाड़ियों, नदी घाटी तथा मैदानी भागों में पनपी। गुजरात का डांग आहवा, उदयपुर की अहाड़ घाटी दांगी सभ्यता, सागर एरण का दांगीवाड़ा, इन्दौर उज्जैन का दंगवाड़ा, राजस्थान का डांग भांग, पंजाब का काठा प्रदेश, नेपाल का डांग जिला, ईरान का द्रांगियाना, पेशावर का यदु की डांग, मध्य एशिया का दागिस्तान, मध्य भारत का दंडकारण्य, दण्डक महाजन आदि इसके प्रमाणिक उदाहरण हैं।

पुराणों में दांगियों के पूर्व राजा दण्ड ( जो वैश्वत मनु के तीसरी पीढ़ी में और सूर्यवंशी नरेश इच्वाकू वंश के पुत्र थे ) उनका राज्य क्षेत्र ईसा पूर्व 4767 में दण्डकारण्य महाजनपद था। राजा दण्ड के वंशज जो डांग आह्वा, मत्स्य, बुंदेलखण्ड, दशार्ण, एरण, दंगवाड़ा, दांडकी (मध्य भारत का पौराणिक गणराज्य) डांग देश नेपाल, द्रांगिस्तान, आदि क्षेत्रों में स्थानांतरित हुए और उन क्षेत्रों में विभिन्न नामों से संबोधित होकर इसी राजवंश क्रम के शासक के रूप में समय-समय पर न्यून या अधिक शासन करते रहे हैं। मालव, शिवि, उत्तर वैदिक काल का कैकेय, निषध विदर्भ, डाण्डकी, मत्स्य, आदि दण्डवंशी राज्य इसी कडी में आते हैं।

विश्व की कई सभ्यतायें जिनमें मिश्र, चीन, क्रीट और सुमेरियन सभ्यताओं से यदि भारतीय सभ्यता की तुलना की जाये तो एक बहुत बड़ी विशेंषता भारतीय समाज में मिलेगी, वह है अति प्राचीन काल से अब तक की इसकी सजीवता। विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यतायें उन्नत देशों में थी, पर आज वे लुप्त हो चुकी हैं। उनकी यादगार स्वरूप मूक अवशेष ही शेष हैं, परन्तु भारतीय सभ्यता के समान सजीवता नहीं। भारतवासियों के रहन-सहन और विचार जैसे प्राचीन काल में थे, लगभग आज भी उसी सजीव हालत में दिखाई पडते हैं। यहां की सभ्यता और संस्कृति की एक अन्य विशेषता यह भी रही है कि बार-बार प्रहारों के बावजूद यह नष्ट नहीं हो सकी।

विश्व इस तथ्य से वाकिफ है कि भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में से एक है। इसका प्रबल प्रमाण प्राचीन, सिंध, पंजाब, और गंगा यमुना के काठे में पाई गई प्राचीन सभ्यतायें हैं जो यूरोप की दजला, फरात और चीन की पीली नदी घाटी के बाद की सभ्यता मानी गई। हाल ही में सैंंधव सभ्यता के समकालीन डांगी सभ्यता का पता दंगवाड़ा के उत्खनन से हुआ। इस स्थल की खोज लेखक द्वारा किये जाने के बाद विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्राचीन इतिहास, सस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष सह इचार्ज ऑर्केलॉजिकल एक्जिीविशन एंड म्यूजियम डॉ. विष्णू श्रीधर वाकणकर से मिलकर, जानकारी दिये जाने पर उन्होंने वर्ष 1978-80 में उज्जैन से 26 किमी दूर वड़नगर- इंदौर रोड पर स्थित चंबल घाटी के किनारे दंगवाड़ा नामक प्राचीन टीले की खुदाई करवायी। जिससे जमीन में दबा चार हजार वर्ष पुराना नगर प्रकाश में आया जो दांगियों की विकसित सभ्यता और संसकृति को प्रकट करता है।

दांगियों का प्राचीन स्थल ‘एरण’ एक वैभवशाली नगर था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सागर ‘एरण’ का क्षेत्र कदाचित चेदि राज्य के एक अंग के रूप में सम्मिलित रहा होगा, जो उत्तर भारत के षोडष महाजनपदों में से एक था। आगे चलकर इस क्षेत्र के पुलिन्द देश में सम्मिलित होने का पता चलता है। जिसमें बुंदेलखण्ड का पश्चिमी भाग और सागर जिला अर्थात ‘एरण’ था। एरण का विस्तृत विवरण टोलमी के वर्णन में भी मिलता है। उसके अनुसार एरण गांव में पुरातत्वीय अवशेषों का महत्वपूर्ण संकलण है। यहां खण्डहर के रूप के किला है, जिसे डांगियों ने बनवाया था। इस क्षेत्र में डांगियों का ही अधिकार रहा है।

एरण के ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय महत्व को देखते हुए सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी ने वर्ष 1960 से 1995 तक उत्खनन कार्य कराकर ताम्राश्म युग के उत्तर मध्यकाल तक के क्रमिक संस्कृतियों का पता लगाया। यहां से प्राप्त सिक्के, लाल पर काले रंग के चित्रित उत्तम कोटी के मृदभांड ताम्राश्म संस्कृति में 2000 ई. पूर्व से 700 ई. पूर्व तक कायम मिलती है जो दांगी सभ्यता और संस्कृति को दिग्दर्शित करता है। तुलनात्मक दृष्टि से एरण की मूर्तियां उत्कृष्ट कोटी में आती है। संपूर्ण स्थान में प्राचीन सभ्यता के अवशेष भरे पड़े हैं। टीलों का व्यापक विस्तार था।

भारत के बाहर भी डांगी समाज की सभ्यता, संस्कृति, बोली और भाषा से जुड़े कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं- उनमें ईरान की हेलमंद घाटी में द्रांगियाना, काबूल के पास यदु की डांग, नेपाल में डांग देवखुरी तथा मध्य एशिया में दागिस्तान आदि प्रमुख हैं। वे क्षेत्र डांगियों के प्रभाव वाले विकसित क्षेत्र के रूप मे प्रतिष्ठापित रहे हैं। मध्य भारत एशिया स्थित दागिस्तान में धर्म परिवर्तन करने के बाद भी डांगी अपनी प्राचीन गरिमा और परंपरा को कायम रखने में गौरव महसूस करते हैं। ‘‘एक विदेशी लेखिका ‘रथ डैनीलाफ’ यहां की परंपरा पर टिप्पणी करते हुए लिखती हैं कि 74 वर्षों तक कम्युनिस्ट व्यवस्था में रहने के बाद भी रूस के दागिस्तान की महिलाओं की जिंदगी आज भी मध्ययुगीन ही है। वे बताती हैं कि दागिस्तान में कोई भी पुरूष ऐसी स्त्री से शादी नहीं करता जिसका कौमार्य नष्ट हो चुका हो।’’

आज दागिस्तानी पुरूषों को, जो स्वभाव से ही धार्मिक एवं परम्परावादी होते हैं, उन्हें महिलाओं को खुलेआम घूमना पसंद नहीं आता और उनके सिर खुले हो तथा वे जीन्स या पैंट पहने हुए हों, तब उन्हें ऐसा लगता है कि इन महिलाओं ने सारी परम्पराओं को ही पलीता लगा दिया है। ऐसी महिलाओं में यदि उनकी या उनके किसी रिश्तेदार संबंधी की मंगेतर भी शामिल हों तो निश्चय ही वे ऐसा दृश्य देखकर मंगनी तोड़ देने को बिफर उठेंगे। इसी प्रकार पढ़ने-लिखने वाली अथवा मां बाप द्वारा पसंद किये गये लड़के से शादी के लिए इनकार करने वाली और श्रृंगार प्रसाधन करने वाली लड़कियों को भी वे सख्त नापसंद करते हैं। उनका कहना है कि दागिस्तान को अगर अपना अस्तित्व बचाये रखना है तो मौजूदा उथल पुथल के दौर में पड़ोसी आर्मीनिया, जॉर्जिया, अथवा अजरबैजान की तरह बेकार के खून खराबे के बचना है तो उसे जान देकर भी अपनी परंपराओं की रक्षा करनी होगी। तात्पर्य है कि दांगियों के देशी-विदेशी राज्य उपनिवेश, या बसागत भिन्न-भिन्न कालों में विभिन्न स्थलों में विकसित होते रहे हैें और उनके संबंध किसी न किसी रूप में बने रहे हैं।

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