इकोनॉमिकली बैकवर्ड क्लास (ईबीसी) में कई धनाढ्य जातियां शामिल
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ज्ञात हो कि आर्थिक स्तर पर अति पिछड़ा वर्ग को ईबीसी में शामिल किया जाता है। इस वर्ग में पूर्व निर्धारित जातियों में कहार, बढ़ई, हजाम, कानू, कांदू, नट, गुलगुलिया, बेलदार, बिन्द, मलाह, नोनिया एवं अन्य अति पिछड़ी जातियां शामिल हैं। नीतीश कुमार ने ईबीसी में कई सबल जातियों को शामिल कर दिया है, जिनमें दांगी और तेली सबल जातियां हैं। ये सभी आर्थिक तौर पर सबल जाति माने जाते हैं। विशेषकर तेली जाति को ही ले लीजिये तो यह जाति सदियों से आर्थिक तौर पर सम्पन्न है।
पिछले कई महीनों से चल रहे सियासी उठापटक के बावजूद बिहार की सत्ता की चाबी भले ही नीतीश कुमार के हाथ में है लेकिन उनकी शासनिक और प्रशासनिक कमान ढीली नजर आती है। कुछ मुद्दों पर नीतीश कुमार को विरोधियों ने इस तरह घेराबंदी की है कि पार्टीगत और सियासी स्तर पर भी वह पिछड़ते नजर आते हैं।
इसलिए आगामी चुनावों से पहले ही जातीय समीकरणों पर राज्य सरकार की नजर है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नतीजों को लेकर आश्वस्त होना चाह रहे हैं। इसी के मद्देनजर राज्य में कई गैरजरूरी योजनाएं चलाई जा रही है। साथ ही जातियों को लुभाने के लिए राज्य सरकार अब खतरनाक खेल खेल रही है। चुनावी माहौल में ईबीसी की कई जातियों को एसटी अर्थात अनुसूचित जन जाति में शामिल करने की सिफारिश केन्द्र सरकार से की। वहीं ईबीसी में कई अन्य जातियों को शामिल कर नीतीश कुमार ने ईबीसी का पूरा ताना-बाना ही बिगाड़ने का काम किया है, जिसके गलत परिणाम भी अब दिखने लगे हैं।
बिहार सरकार जातिगत आधारित आरक्षण कोटे को भी नये सिरे से परिभाषित और रूपांतरित करने की कोशिश में है। राजनीतिक पार्टियों और सरकारों को जातीय राजनीति हमेशा लूभाती रही है। क्योंकि जातीय समीकरण बिहार में बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी पार्टी और नेता को सत्ता में लाने और गिराने में बिहार में कास्ट फैक्टर की बड़ी भूमिका है। इसलिए बिहार की राजनीति को कास्ट फैक्टर से अलग नहीं किया जा सकता । सरकार की नजर में हर जाति की एक राजनीतिक वैल्यू है। जिसका फायदा उठाने की कोशिश में कभी-कभी गलत-फैसले ले लिये जाते है।
जातीय समीकरण के आधार पर ही राष्ट्रीय जनता दल ने बिहार में एकक्षत्र राज किया था। अब नीतीश कुमार की चाहत है कि जातीय समीकरण को जदयू के करीब लाया जाये। इसलिए वो जातियां और वो वर्ग जो कई धूरियों में बंटे है उसे नीतीश कुमार अपने पाले में लाना चाहते हैं। जातीय गोलबंदी में नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव से दो कदम आगे चलना चाहते हैं। जिस तरह नीतीश कुमार ने दलित गोलबंदी को तोड़कर महादलित के रूप में एक नया वोटर इजाद किया था। ठीक उसी तरह राज्य सरकार ने ईबीसी में छेड़छाड़ कर अपनी राजनीतिक मंशा दर्शा दी है। नीतीश कुमार वोट बैंक के लिए अति पिछडा वर्ग में कई सबल जातियों को शामिल कर एक नई सियासी समीकरण बनाने करने की कोशिश कर रहे हैं।
ज्ञात हो कि इकोनॉमिकली बैकवर्ड क्लास अर्थात आर्थिक स्तर पर अति पिछड़ा वर्ग को ईबीसी में शामिल किया जाता है। इस वर्ग में पूर्व निर्धारित जातियों में कहार, बढ़ई, हजाम, कानू, कांदू, नट, गुलगुलिया, बेलदार, बिन्द, मलाह, नोनिया एवं अन्य अति पिछड़ी जातियां शामिल हैं। नीतीश कुमार ने ईबीसी में कई सबल जातियों को शामिल कर दिया है, जिनमें दांगी और तेली सबल जातियां हैं। ये सभी आर्थिक तौर पर सबल जाति माने जाते हैं। विशेषकर तेली जाति को ही ले लीजिये तो यह जाति सदियों से आर्थिक तौर पर सम्पन्न है। जबकि दांगी ने शुरूआती दौर से ही एक सम्पन्न् कृषक के रूप में अपनी पहचान बनाये रखा है। साथ ही ये जातियां आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर सबल होने के साथ-साथ राजनीति में भी खास पहचान बनायी है। विरोधी नेता कह रहे है कि इन सम्पन्न जातियों को किस आधार पर ईबीसी में शामिल किया गया है। जानकार यह भी कह रहे हैं कि जातियो के दर्जे बदलने से पूर्व मानदण्डों की भी अनदेखी की गई है।
आलोचकों का कहना है कि सबल जातियों को उसी पूर्व निर्धारित कोटे में शामिल किया गया है जिससे इस कोटे में शामिल उन जातियों के लोगों को इसका फायदा अब नहीं मिल पा रहा है जो वाकई में आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए हैं। आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर सबल होने के कारण ये जातियां सरकारी फायदा उठा ले रही है। हाल में ही ईबीसी कोटे से चयनित अभ्यर्थियों में ज्यादातर सबल जातियों के थे। उसके बाद नीतीश सरकार के प्रति ईबीसी कोटे में शामिल जातियों ने विरोध करना शुरू कर दिया।
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (सेक्यूलर) के नेता शत्रुघ्न चंद्रवंशी का कहना है कि नीतीश सरकार ने सियासी फायदे के लिए बिहार की जातिगत आधारित आरक्षण कोटे में छेड़छाड़ कर रही है। जिसका खामियाजा ईबीसी में शामिल जातियों को भुगतना पड़ रहा है। इस कोटे में शामिल की गई सबल जातियां उनका हक छीन रही है। शत्रुध्न चंद्रवशी आगे कहते हैं कि बिहार सरकार का ऐसा किया जाना यह संकेत देता है कि यह सरकार आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए जातीय गोलबंदी करने का प्रयास कर रही है।
सामाजिक चिंतक कहते हैं कि इन जातियों के दर्जे और वर्ग बदल जाने से उनकी हैसियत और पहचान नहीं बदल जायेगी। ऐसा किया जाना आगामी चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक पार्टियों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है, लेकिन नेताओं और सरकारों की इन सियासी चालों से समाज में विद्धेष की संभावना बढ़ जाती है।