“मोक्ष” के लिए गया में “पितृपक्ष महासंगम” का शुभारंभ, “तर्पण” नामक स्मारिका का विमोचन
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इस वर्ष गया “पितृपक्ष महासंगम” का शुभारंभ 17 सितंबर से 2 अक्टूबर 2024 तक के लिये राजकीय स्तर पर किया गया, जिसका उद्घाटन उप मुख्य मंत्री सहित दर्जनों राज्य के मंत्रियों, विधायकों तथा सांसद ने जिलाधिकारी एस.एम.त्यागराजन के निर्देशन में विष्णुपद मंदिर परिसर में बने भव्य, सुन्दर और सुदृढ़ पंडालों के बीच दीप प्रज्वलित कर किया। इस अवसर पर “तर्पण” नामक स्मारिका का भी विमोचन अतिथियों द्वारा किया गया।
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पितरों को आवागमन से मुक्ति दिलाने के लिए सनातन धर्म में श्राद्ध और पिंडदान का प्रावधान है। इस कार्य को संपन्न करने के लिए विश्व के समस्त वैष्णव मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ एवं पवित्र गया जी के”विष्णुपद मंदिर” को माना गया है। ‘गया’ भी विश्व के प्राचीनतम नगरों में एक है।धार्मिक ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ के अनुसार पुत्र श्रद्धापूर्वक अपने पितरों के प्रति जो कुछ भी दान, तर्पण अथवा पिंडदान आदि कार्य संपन्न करता है, वह “श्राद्ध” कहलाता है। ऐसी मान्यता है कि पुत्र यदि गया में आकर फल्गु नदी में स्नान कर तर्पण व पिंडदान आदि कर्मकांडों को संपादित करता है तो वह धन्य है, क्योंकि यह स्वर्ग में भी दुर्लभ है।
“गया शीर्षे बसेन्नित्यं स्नानं फलग्वा चरेत,
गया शीर्षे सदापिंडमेतत् स्वर्गेपि दुर्लभम्।”
गया जी की वेदियों पर श्राद्ध-कर्मकांड को संपन्न करने का विशेष महत्व है। गया जी में मुख्य तीन, सात व 45 वेदियों पर श्राद्ध कार्य संपन्न किया जाता है। गया की पवित्र भूमि पर प्रति वर्ष भाद्रपद चतुर्दशी से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक एक अखवारे के लिए पितृपक्ष महासंगम का आयोजन किया जाता है। इस बीच देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु अपने पितरों को मोक्ष दिलाने के लिए गया जी पधारते हैं और वे अपने पंडों तथा पुरोहितों के माध्यम से तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान क्रिया को संपन्न कर “सुफल” की प्राप्ति करते हैं।
इस वर्ष गया “पितृपक्ष महासंगम” का शुभारंभ 17 सितंबर से 2 अक्टूबर 2024 तक के लिये राजकीय स्तर पर किया गया, जिसका उद्घाटन उप मुख्य मंत्री सहित दर्जनों राज्य के मंत्रियों, विधायकों तथा सांसद ने जिलाधिकारी एस.एम.त्यागराजन के निर्देशन में विष्णुपद मंदिर परिसर में बने भव्य, सुन्दर और सुदृढ़ पंडालों के बीच दीप प्रज्वलित कर किया। इस अवसर पर “तर्पण” नामक स्मारिका का भी विमोचन अतिथियों द्वारा किया गया।
देश-विदेश से आने वाले पिंडदानी पवित्र नदी पटना स्थित ‘पुन-पुन घाट’ पर स्नान,श्राद्ध और तर्पण कर फिर वे गयाधाम आकर ब्रह्मसरोवर,गयाशीर्ष,विष्णुपद और अक्षयवट के अलावा अन्य वेदियों पर अपने पितरों को पिंडदान व श्राद्ध कार्य संपन्न करते हैं,जिससे पितरों को ‘सुफल’ की प्राप्ति होती है अर्थात् उन्हें आवागमन से मुक्ति मिल जाती है और वे ‘बैकुंठधाम’ को चले जाते हैं।
पिंडदानी गया जी में आकर अन्य वेदियों में रामशिला, प्रेतशिला, काकबली, मुण्डपृष्ठा, पितामहेश्वर, उत्तर मानस, सीता कुंड,राम गया,भीम गया,धर्मारण्य आदि प्रमुख प्रमुख वेदियों पर इस कर्मकांड को संपन्न करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से प्राणियों के बीस पीढ़ी तक का उद्धार हो जाता है।
गया का प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर 18 वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने विशाल,भव्य एवं अष्टकोणीय सूचीस्तंभीय की आकृति में प्रस्तर खंड से जयपुर के कलाकारों द्वारा निर्मित करवायी थी। यहां अपने पूर्वजों के सम्मान में पिंडदान करने का विधान है। मृत्यु के उपरांत होने वाले मृत्यु संस्कार ‘पितृपूजा’ की वर्षगांठ यानी “वार्षिक श्राद्ध” से होने वाली विध्यात्मक पूजा से यह भिन्न होता है। “गया श्राद्ध” स्थानीय धार्मिक केंद्र में संपन्न न होकर एक लोक धार्मिक केंद्र में संपन्न होता है,जिससे प्राणी को पूर्ण ‘निर्वाण’ यानी “मोक्ष” की प्राप्ति होती है। यह एक बलिदान है, जिसे “पुष्कर” भी कहा जाता है।
श्राद्धकर्ता जिस दिन से तीर्थ पर श्राद्ध करने के लिए निकलता है, उस दिन से उसे कठिन संयमों तथा अन्य नियमों का उन्हें कड़ाई से पालन करना होता है। इस अवधि में वह दूसरे के छुए हुए भोजन को नहीं ग्रहण करता, रति कार्य से दूर रहता है। इस काल में वह आंसू भी नहीं बहाता, क्रोध व अशुद्ध विचारों से भी उसे दूर रहना होता है। वह गया आकर सर्वप्रथम फल्गु नदी में स्नान कर विध्यात्मक वस्त्र को धारण करता है। यह वस्त्र श्वेत होता है, जो कंधे और कमर में पहना जाता है। इसके बाद वह पंडा के माध्यम से पूजा और तर्पण कार्य संपन्न करता है, जिसमें वह सर्वप्रथम तर्पण देवताओं के लिए करता है, जो “देव तर्पण” कहलाता है। फिर वह ऋषियों के लिए तर्पण करता है जो “ऋषि तर्पण” कहलाता है। ये दोनों तर्पण पूर्व की ओर मुख कर किया जाता है।
तीसरा तर्पण यम और उसके गणकों के लिए किया जाता है। फिर अंतिम तर्पण सभी पितरों के नाम श्राद्धकर्ता करता है। ये दोनों तर्पण श्राद्धकर्ता दक्षिण की ओर मुख कर करता है तथा अंगूठे की दूसरी हथेली पर डाले हुए जल पर तिल और कुश की घास रखता है। इसके बाद दूसरे दिन का विध्यात्मक अनुष्ठान “पिंडदान” कहलाता है, जो चावल, फूल, चंदन, तिल, जौ, दही आदि से पिंड बनाकर किया जाता है। यह अनुष्ठान भी दक्षिण की ओर मुख कर संपन्न किया जाता है।
पिंडदानी अपने पिता के “वार्षिक-श्राद्ध” के बाद कभी भी गया-श्राद्ध संपन्न कर सकता है। मान्यता है कि वे पितर जिनके वंशज मृत्यु लोक में है, उनके लिए किए गये श्राद्ध, दान,तर्पण, पिंडदान आदि कर्मकांड करने से वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। वे सदा वहां देव के साथ प्रसन्नचित होकर वास करते हैं। पितर देवता के समान होते हैं।
गरुड़ पुराण में वर्णन है कि –
” पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता परमंतव्यः।
पितरी प्रतिमापन्ने प्रियंते सर्व देवता:।।”
अर्थात् पिता ही पुत्र के लिए स्वर्ग, धर्म और सब कुछ है। वे देवता तुल्य हैं। भारतीय संस्कृति में जीवित प्राणियों के साथ-साथ मृत आत्माओं के प्रति भी अटूट श्रद्धा का भाव इसमें सन्निहित है। पितृपक्ष की अवधि में ‘पितृ-पूजा’ पितरों की आत्मा की शांति और मुक्ति की पूजा है। संतान को चाहिए कि माता-पिता जब तक जीवित हैं, उनकी आज्ञा का पालन करें, उन्हें प्रसन्न रखें और जब वे परलोक सिधारें तो मृत्यु दिवस के अवसर पर अपने इष्ट मित्रों के साथ भोजन, दान आदि कर पुत्र धर्म का पालन करे। इसीलिए तो भीष्म पितामह, बलराम श्रीकृष्ण, धर्मराज युधिष्ठिर, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता यहाँ आकर अपने पितरों को पिंडदान किये थे।