तिब्बती स्रोतों से यह पता चलता है कि पाल शासकों के शासन काल तक इसकी प्रतिष्ठा पराकाष्ठा पर थी। पाल शासक गोपाल (750-770 ई.) ने “उदंतपुरी- विश्वविद्यालय” की स्थापना की थी। तिब्बती आचार्य सुम्पा और तारानाथ के अनुसार गोपाल और देवपाल के शासन काल के बीच इस विश्वविद्यालय ने अपना अस्तित्व कायम किया था। तिब्बती स्रोतों से यह भी पता चलता है कि इसी विश्वविद्यालय की रूप रेखा पर तिब्बत में 749 ईस्वी में “साम-ए-मॉनेस्ट्री” का निर्माण हुआ था।
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मगध की धरती प्राचीन काल से ही विश्व के ज्ञान पिपासुओं को तृप्त करने में एकमात्र सक्षम और प्रशंसनीय रही है। यही कारण है कि इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत अत्यंत गौरान्वित और स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य रहा है। मगध की इसी धरती पर क्षत्रिय कुल में जन्मे कुमार चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत के एक विशाल भूखंड पर शासन किया था। उन्हीं के काल में जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी एवं बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने लोगों को सत्य,अहिंसा. मैत्री और करुणा का पाठ पढ़ाया।
इतिहासकारों और पुराविदों की खोज में यह तथ्य सामने आया है कि वर्तमान नालंदा जिला मुख्यालय “बिहार शरीफ” यह पावन भूमि पूर्व में “उदंतपुरी”, उदण्डपुर, ओदणडपुर और ओदंतपुरी आदि नामों से प्रसिद्ध थी। महाभारत के आदिपर्व, सभापर्व और कर्णपर्व के अनुसार भी महाभारत काल में राजकुमारों की राजधानी भी यहीं रही थी, जो “उदण्डपुर” के नाम से प्रसिद्ध थी। गुप्त काल के राजाओं के समय तक यह नगर पूर्ण रुप से अस्तित्व में था। किंतु गुप्त काल और हर्ष के बाद कन्नौज के महाप्रतापी शासक “यशोवर्मन” का प्रभाव जब मगध तक फैला, तब उन्होंने इस नगरी का नाम बदलकर अपने नाम पर “यशोवर्मनपुर” बनाया। उन्होंने अपने नाम पर यहां एक बौद्धविहार की भी स्थापना की,जो बौद्ध भिक्षुओं के रहने का स्थल के साथ-साथ बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र भी था। इसकी पुष्टि “घोंसरामा” अभिलेख से होती है।
प्राप्त अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि यशोवर्मन ने इस विश्वविद्यालय में यहां काफी दिनों तक ठहरकर ज्ञान की प्राप्ति की थी, जिसकी प्रशंसा पालवंशी नरेशपाल ने की है। पाल वंशी अभिलेखों से यह भी स्पष्ट होता है कि पालवंशी राजाओं के समय तक इस नगर का नाम “उदण्डपुर” ही था। फिर भी इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी का अभाव है, इसे विशेष खोज की आवश्यकता है।
तिब्बती स्रोतों से यह पता चलता है कि पाल शासकों के शासन काल तक इसकी प्रतिष्ठा पराकाष्ठा पर थी। पाल शासक गोपाल (750-770 ई.) ने “उदंतपुरी- विश्वविद्यालय” की स्थापना की थी। तिब्बती आचार्य सुम्पा और तारानाथ के अनुसार गोपाल और देवपाल के शासन काल के बीच इस विश्वविद्यालय ने अपना अस्तित्व कायम किया था। तिब्बती स्रोतों से यह भी पता चलता है कि इसी विश्वविद्यालय की रूप रेखा पर तिब्बत में 749 ईस्वी में “साम-ए-मॉनेस्ट्री” का निर्माण हुआ था।
इससे यह स्पष्ट होता है कि 743 ई. के लगभग उदन्तपुरी विश्वविद्यालय विकसित अवस्था में था। तारानाथ जैसे प्रसिद्ध तिब्बती आचार्य इस विश्वविद्यालय की पूर्ण गतिविधियों से अवगत थे। अनुमान है कि 700 ई. से 725 ई. के मध्य में यह विश्वविद्यालय अपने अस्तित्व में गया था। इस विश्वविद्यालय की पृष्ठभूमि में पाल शासक गोपाल ने उदंतपुरी में “नरेंद्र-विहार” की स्थापना की थी। पाल शासकों के संरक्षण में उदंतपुरी विश्वविद्यालय का काफी विकास हुआ था।
साभार-2500 year of Indian Budhism,पेज-192,S.Dutt.
तारानाथ ने इस विश्वविद्यालय के कुछ प्रकांड आचार्यों की भी चर्चा की है,उनमें–‘शांतरक्षित’और ‘पद्मसंभव’ जैसे उद्भ्भट विद्वानों का नाम प्रमुख है। यह विश्वविद्यालय यद्यपि कि नालंदा विश्वविद्यालय की तरह ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर सकी,फिर भी इन दोनों के बीच की दूरी बहुत अधिक नहीं थी। दोनों ही विश्वविद्यालयों को पाल शासकों का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। उदंतपुरी विश्वविद्यालय को नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्यों का सहयोग सदा मिलता था।
तारानाथ द्वारा दिये विवरणों से यह भी ज्ञात होता है कि “साम-ये-विहार” के निर्माण के बाद तिब्बती शासकों ने यहां से 12 बौद्ध भिक्षुओं को वहां बुलाया था,जिससे कि वहां रह रहे साम-ये-विहार वासियों को विधिवत् दीक्षित किया जा सके। तिब्बत में आमंत्रित किए गये ये सभी बौद्धभिक्षु सर्वास्तिवादी थे और सभी इसी उदंतपुरी के थे। आचार्य अतीश दीपंकर श्रीज्ञान भी इसी उदंतपुरी के थे। यहां उन्होंने आचार्य धर्मरक्षित के मार्गदर्शन में कई वर्षों तक अध्ययन किया था। आचार्य “अतिश” का नाम “दीपंकर श्रीज्ञान” भी यहीं रखा गया था। आचार्य धर्मरक्षित का बौद्ध आचार्यों में बहुत अधिक सम्मान और प्रतिष्ठा थी।
दीपंकर श्रीज्ञान यहां के बाद सुवर्ण द्वीप यानी म्यांमार चले गए। वहां वे बारह वर्षों तक रहे और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उसके बाद वे पुणः भारत लौट आए और विक्रमशिला विश्वविद्यालय में आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। आचार्य रत्नाकर शांति ने उदंत पुरी में ही शिक्षा ली थी, उसके बाद वे भी विक्रमशिला विश्वविद्यालय में द्वारपंडित के पद पर प्रतिष्ठित हुए।
‘अभयाकर गुप्त’ जो महायान शाखा के प्रमुख आचार्य थे, उन्होंने यहां रहकर बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथों का अनुवाद तिब्बती भाषा में किया था। उस समय लगभग 11 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 1000 से अधिक यहां बौद्ध भिक्षु रहते थे। ‘पूर्णदास’ नामक एक स्थविर ने यहां पाल शासक “सुरपाल” के शासनकाल में एक चैत्य बनवाया था, जिसमें उन्होंने बुद्ध की एक प्रतिमा की स्थापना की थी। उन दिनों नगर का नाम ‘उदण्डपुर’ ही लिखा मिलता है।
बिहार शरीफ की एक पहाड़ी पर प्रस्तर अभिलेख भी मिला है,जो मदनपाल के शासन के तीसरे वर्ष का है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि बिहारशरीफ उस समय “उदंतपुरी” ही थी,जो बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केंद्र था। बहुत वर्षों तक पाल शासकों द्वारा अनेक बौद्ध विहार और मठ बनवाए गए,जो सभी शिक्षा के केंद्र के रूप में कार्यरत थे। बौद्ध भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के अध्ययन के लिए यहां भी एक विशाल पुस्तकालय था। यहां बौद्ध विहार एवं शिक्षा केंद्र के रूप में कार्यरत ‘उदंतपुरी विश्वविद्यालय’ को पाल शासको का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था।
जैन परंपरा के अनुसार मगध नरेश श्रेणिक बिंबिसार के समकालीन परमोदय राज ने उदण्डपुरी की स्थापना ‘विशाल पुरी’ के नाम से कर दी थी। जैन परंपरा में इसे ‘विशाखपुर’ नाम से भी जाना गया है।
इस प्रकार इस नगर का एक अपना प्राचीन इतिहास रहा है और इसका विस्वस्त नाम उदण्डपुर या उदंतपुरी ही प्रामाणिक लेखों से मिलती है। पुराविदों की यह भी मान्यता है कि पाल शासकों की यह राजधानी भी रही थी। ‘बुकानन’ और ‘ब्रोडले’ के विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि बिहार शरीफ के आसपास व इर्द-गिर्द निर्मित टील्हे और Fort के जो विशाल क्षेत्र बिखरे पड़े हैं, उनसे प्राप्त बुद्ध की मूर्तियाँ और अवशषों ने उदंतपुरी विश्वविद्यालय की प्रामाणिकता को सिद्ध कर रखा है। ‘घोसरावां’ में अभी भी तथागत बुद्ध की एक विशाल मूर्ति है,जो पाल कालीन मूर्ति कला का सुन्दरतम उदाहरण है।
इस विशाल क्षेत्र में फैले किलानुमा क्षेत्र के उत्तरऔर दक्षिण की ओर पुराविद् ‘ब्राडले’ ने दो द्वारों को देखा था, जिनके दोनों ओर दो स्तंभ खड़े थे। किला के अंदर पत्थर और ईंटों से निर्मित अनेक बौद्ध विहारों और कुछ हिन्दू मंदिरों के अवशेषों को भी उसने पाया था।
यहां से प्राप्त बौद्धमूर्तियों और अलंकृत अवशेषों में से अधिकांश को राष्ट्रीय संग्रहालय कलकत्ता और पटना के संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस क्षेत्र से प्राप्त मूर्तियों को स्थानीय लोगों ने भी छुपा कर रखा है। वर्तमान में बहुत से प्राचीन स्थलों का अतिक्रमण कर लोगों ने मकान बना लिया है।
“बख्तियार खिलजी” आक्रमणकारी द्वारा इसे विनष्ट किए जाने के समय वहां के भिक्षुओं ने अपने साथ बहुत सारे पुस्तकों को छुपाकर और अपनी जान बचाकर तिब्बत भागे थे और वे सभी उसे वे साम-ये-विहार में रखे थे। उसी पुस्तकों का बौद्ध विद्वानों ने अध्ययन कर बौद्ध संस्कृति को पुनः विश्व पटल पर लाया,अन्यथा बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण ग्रथों का अस्तित्व ही खत्म हो जाता।
प्रसिद्ध तिब्बती बौद्ध विद्वान तारानाथ ने तो यह स्पष्ट लिखा है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने “उदंतपुरी विश्वविद्यालय” को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। “खिलजी” इसे जीतने के बाद अपने एक संबंधी’आयशा- उलउद्दीन’ को यहां शासक नियुक्त किया था। उदण्डपुर स्थल में मुस्लिम काल के जो वर्तमान में अवशेष पाये गए हैं,उनमें ‘शेख-सर्फुद्दीन-मनेरी’ का दरगाह है,जो “बड़ी दरगाह” के नाम से मुसलमानों के बीच अति पवित्र ‘तीर्थ स्थल’ के रूप में पूजित है।




