महोत्सव की शुरुआत विजय श्री की एक मनमोहक गीत से हुई -“तोहर अरिया पर झूलित हो धनवा के बाली,अबरी हमरा ला कीन दीह सोनवां के बाली।”वहीं कवित्री रानी मिश्रा ने प्रस्तुति दी कि-“चांदी के कटोरा नियन चमकअ हे चांद हो।” पुरस्कृत कवि महेंद्र देहाती ने कहा-“चांद केतनो अपन इंजोरिया लुटावे, केकरो दिल में अंधेरा तो रहवे करत।” जहानाबाद के दीपक कुमार की टीम ने -“सुखी रहे तेरी रात चंदा,सुखीघ रहे तेरी रात।”आदि के अलावे ‘झिझिया नृत्य’, ‘जट-जाटिन नृत्य’, टिकारी के कलाकारों द्वारा ‘कत्थक नृत्य’, ‘नाटक हम कैसे करवो’आदि की प्रस्तुति लोगों को रात भर मन को मोहे रहा।
ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्धकाल में सुविख्यात एवं सुप्रसिद्ध लोक कलाओं के दक्ष कलाकारों द्वारा परंपरागत रूप में मनाया जाने वाला जन-जन का प्रिय “कॉमुदी महोत्सव” मगध के विश्वप्रसिद्ध पावन धरती गया के ‘आजाद- पार्क’ मैदान में शरद पूर्णिमा की धवल-मधुर चांदनी के बीच खुले आकाश में सुरेंद्र सिंह ‘सुरेंद्र’ के संयोकत्व एवं गया जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री सुमन्त के कुशल संचालन में इस वर्ष 25 वां आयोजन संपन्न हुआ।
लोक परंपरा में पुरा काल से ही यह मान्यता चली आ रही है कि ‘आश्विन-पूर्णिमा’ का दिन “अमृत” उपलब्धि दिवस है। यही कारण है कि यह “शरद-पूर्णिमा” और “अमृत-पूर्णिमा” भी कहलाता है। यह उत्सव खुले एवं धूले आकाश में बरसाती हुई निर्मल-उज्जवल, स्वच्छ- शीतल चांदनी में सारी रात नहाता, झूमता, नाचता और गाता व्यतीत करता है। फिर अहले सुबह चांदनी में रात भर नहायी एवं अमृत रुपी ओस से सिक्त दूध,पायस व मिष्ठान को स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना कर प्रेम से उसे श्रद्धालुगण ग्रहण करते हैं और अपने को धन्य मानते हैं। यह भाव जगत के प्रति राग-अनुराग का प्रतीक माना गया है। इसी रात्रि को द्वापर युग में श्रीकृष्ण सखियों और सखाओं के साथ “महारास” रचाते थे।
बौद्धकाल में यही लोक परंपरा एक व्यापक लोक उत्सव के रूप में प्रतिष्ठत हुआ। वर्षा ऋतु आरंभ होते ही ‘आषाढ़ पूर्णिमा’ के दिन से चातुर्मास “चौमासा” आरंभ होता है। यह परंपरा आज भी बौद्ध और जैन संन्यासियों के बीच प्रचलित है। इस चौमासे में श्रद्धालुगण उनके उपदेशों और संदेशों को ग्रहण करते हैं। बाद”आश्विन- पूर्णिमा” के दिन ग्रामीण अपने तथागत बुद्ध और संघ के भिक्षुओं को बड़े आदर के साथ उनके बीच “कौमुदी महोत्सव” मनाते हुए संघदान के साथ उन्हें विदाई दते थे, जिससे सर्वत्र करुणा,प्रेम और भाईचारे की धारा प्रवाहित होती थी।
महोत्सव का उद्घाटन गया के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर विजय कुमार ‘कर्ण’,पूर्व विधायक कृष्णनंदन प्रसाद यादव,सभापति सुरेंद्र सिंह ‘सुरेंद्र’, गजेंद्र लाल ‘अधीर’, खालिद हुसैन ‘परदेसी’, और उदय सिंह ने संयुक्त रुप से किया। इस बार 25 वां कौमुदी महोत्सव मगध विश्वविद्यालय के प्रख्यात मगही तथा हिंदी के पूर्व विभागाध्यक्ष दिवंगत “डॉक्टर भारत सिंह” को समर्पित किया गया। इस महोत्सव में गया के अलावे जहानाबाद, नवादा,अरवल, औरंगाबाद, दाउदनगर और पटना के विभिन्न विधाओं से जुड़े कलाकारों ने अपनी कलाओं को प्रदर्शित कर दर्शकों का मन मोहा और महोत्सव में चार चांद लगायी।
महोत्सव में अरवल के वरिष्ठ कवि एवं साहित्यकार महेंद्र प्रसाद ‘देहाती’ को “दशरथ मांझी लोक सम्मान-2024” से भी पुरस्कृत किया गया। कार्यक्रम को सफल बनाने में प्राध्यापक अरुण हरलीवाल, डॉक्टर पप्पू ‘तरुण’, डॉक्टर राकेश कुमार सिंहा ‘रवि’, डॉक्टर राम परीखा सिंह, डॉक्टर शत्रुघ्न डांगी, अरविंद कुमार, सतीश कुमार, मुद्रिका सिंह शैलेश ज्ञानी आदि की विशेष भूमिका रही।
गया के आजाद पार्क में पहली बार वर्ष 2000 में कौमुदी महोत्सव की शुरुआत रंगकर्मी डॉक्टर पप्पू तरुण के पिता डॉक्टर आर.एल. वर्मा ने लेखक {डा.दांगी} को अपने यहां क्लीनिक में बुलाकर बौद्ध काल के उत्सवों के बारे में जानकारी चाही, क्योंकि श्री दांगी ने मगध विश्वविद्यालय में बौद्ध अध्ययन विदेशी भाषा के साथ प्रथम स्थान प्राप्त कर विश्वविद्यालय टॉपर बने थे। तब श्री डांगी ने उन्हें बताया कि बुद्ध के जमाने में “कौमुदी महोत्सव” ही सर्व प्रिय उत्सव था,जो जन-जन में व्याप्त था।
“आश्विन पूर्णिमा” के दिन ग्रामीण इसे बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाते थे। इस बीच तथागत बुद्ध के सारगर्भित उपदेशों को श्रद्धालुगण आत्मसात करते थे। अंत में वे संघ के भिक्षुओं को संघदान देते हुए श्रद्धा पूर्वक उन्हें विदा करते थे। इसे सुनकर श्री वर्मा काफी प्रसन्नचित हुए और शहर के अन्य प्रबुद्ध जनो से मिलकर आजाद पार्क में प्रति वर्ष इसे मनाने का निर्णय लिया। फिर क्या था,उसी वर्ष से इस महोत्सव की शुरुआत कर दी गई, जो आज गया की एक शान के रूप में प्रतिष्ठित है।
लोक कलाओं, भाषा संस्कृति और अपनी लोक परंपरा को बाजारवादी अप संस्कृति से हम कैसे बचा पायें, यह हमारे लिए आज एक बड़ी चुनौती बन गई है। संस्कृति की रक्षा करना हर नागरिक का कर्तव्य बनता है। इस कड़ी में हमारे मगही जनपद के प्रतिबद्ध कलाकारों और कला प्रेमियों ने गया शहर के मध्य आजाद पार्क में गया जिलाधिकारी के सहयोग से कॉमुदी महोत्सव मनाने के बहाने एक दूसरे से जुड़कर एकत्र होते हैं और प्रेम, भाईचारे का संदेश कलाकार अपनी कलाओं के माध्यम से दर्शकों के बीच परोसते हैं। इस प्रक्रिया से मगध क्षेत्र की लुप्त प्रायःसभी लोक कलाएं अभी तक जीवन्त बनी हुई है, जिसकी सराहना खुले दिल से सभी प्रेमीगण करते हैं।
महोत्सव की शुरुआत विजय श्री की एक मनमोहक गीत से हुई -“तोहर अरिया पर झूलित हो धनवा के बाली,अबरी हमरा ला कीन दीह सोनवां के बाली।”वहीं कवित्री रानी मिश्रा ने प्रस्तुति दी कि-“चांदी के कटोरा नियन चमकअ हे चांद हो।”
पुरस्कृत कवि महेंद्र देहाती ने कहा-“चांद केतनो अपन इंजोरिया लुटावे, केकरो दिल में अंधेरा तो रहवे करत।” जहानाबाद के दीपक कुमार की टीम ने -“सुखी रहे तेरी रात चंदा,सुखीघ रहे तेरी रात।”आदि के अलावे ‘झिझिया नृत्य’, ‘जट-जाटिन नृत्य’, टिकारी के कलाकारों द्वारा ‘कत्थक नृत्य’, ‘नाटक हम कैसे करवो’आदि की प्रस्तुति लोगों को रात भर मन को मोहे रहा।