एक शोध के मुताबिक, अगर पर्यावरण के संतुलन के लिए एक बड़ी परियोजना पर काम किया जाये तो विश्वभर में आठ सौ करोड़ बड़े बृक्ष लगाने और 70 लाख हेक्टयर जमीन पर जंगल बसाने की जरूरत पड़ेगी, जोकि संभव नहीं है।
बढ़ती आबादी और घटते प्राकृतिक संसाधन से पर्यावरण असंतुलित हो गया। पहाड़ों और जंगलों की तेजी से कटाई, प्राकृतिक जलस्रोतों का भरपूर दोहन, फसलों की जमीन पर गंगनचुंबी अट्टालिकाओं से प्रकृति का स्वरूप और पर्यावरण का दोनों बिगड़ गया है।
औद्योगिकरण और शहरीकरण का विस्तार अभी और होना है। जो देश जितना सक्षम होगा उतना विकास करेगा। तरक्की का पैमाना यही है कि ग्लोबल इंडेक्स में कौन सा देश किस रैंक पर है। ग्लोबल इंडेक्स एलपीजी अर्थात लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन पर आधारित हैं।
इसी एलपीजी के दायरे में वो सभी फैक्टर शामिल हैं जिससे विकास के सूचकांक में बने रहने के लिए हर देश अपनी क्षमता के अनुकूल प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने लगा है। जिन देशों में औद्योगिकरण और शहरीकरण की गति धीमी है उन देशों में पर्यावरण का संतुलन जरूर देखने को मिलेगा लेकिन वह देश विकास के सूचकांक में बहुत पीछे हैं।
छोटे-छोटे देशों में जहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है वहां विकसित देशों की एंट्री हो गई है। चीन, अमेरिका रूस सहित कई विकसित देश विकास के लिए छोटे-छोटे देशों को 30 साल, 50 साल, 99 साल के लिए कर्ज दे रहे हैं। एशिया, यूरोप सहित कई अफ्रीकी देशों में जहां घने जंगल हैं वहां तेजी से जंगलों की कटाई हो रही है, जिससे प्राकृतिक जलस्रोत भी नष्ट हो रहे हैं। उन देशों में जमीन के अंदर पड़े खान-खदानों पर कब्जे के लिए विकसित देशों के बीच आपाधापी देखी जा रही है।
सिर्फ भोजन-पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नही किया जा रहा है बल्कि विकास के उपरी सूचकांक में बने रहने के लिए भी ऐसा किया जा रहा है। आज से पचास साल पहले जहां घने जंगल थे अब वहां का नजारा कुछ और दिखता है। जिन देशों कीें आबादी ज्यादा है वहां पर्यावरण असंतुलन के भयानक स्वरूप सामने आने लगे हैं। नदी, जंगल, पहाड़ धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खो रहे हैं। हर साल तापमान में वृद्धि देखी जा रही है। यह मानव जीवन के लिए खतरनाक संकेत है।
विश्व स्तर पर पर्यावरण के असंतुलन से ग्लेशियर का पिघलना तो महज एक उदाहरण है। मनुष्य ने विकास की अंधी दौड़ में ये नहीं सोचा कि प्रकृति के स्वरूप बिगड़ने का दुष्परिणाम क्या होगा। ग्लेशियर के पिघलने से समुद्र के किनारे पर बसे शहर, और टापू पर बसे देशों के अस्तित्व खतरे में हैं।
यह वैश्विक चिंता जरूर है लेकिन कोई भी देश इसपर ठोस पहले नहीं कर पाते। ग्लोबल समिट में हर बार पर्यावरण पर चिंता जतायी जाती है। पर्यावरणीय कारकों के सरंक्षण के लिए सतत और समावेशी योजनाओं पर विकसित देश बड़ी-बड़ी बाते करते हैं, लेकिन नतीजा सिफर है। इन गंभीर मुद्दों पर भी विकसित देश अपना नफा-नुकसान देखते हैं। क्योंकि विकसित देश ही पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं।
विकास की अंधी दौड़ में मानव जाति ने प्रकृति का जो नुकसान किया है उसकी भरपाई संभव नहीं है। शहरों का विस्तार, औद्योगीकरण, गगनचुंबी अट्टालिकाएं, हाइवे…इन सभी के विस्तार के लिए जंगलों की कटाई जारी है देश दुनिया में जंगलों की कटाई अंधाधुंध जारी है।अगर पर्यावरण के संतुलन के लिए एक बड़ी परियोजना पर काम किया जाये तो आठ सौ करोड़ बड़े बृक्ष लगाने और 70 लाख हेक्टयर जमीन पर जंगल बसाने की जरूरत पड़ेगी, जोकि संभव नहीं है।
भारत की डेमोग्राफी के आधार पर कहा जाये तो इस देश के प्राकृतिक संसाधन से मात्र 70 करोड़ आबादी की खुराक पूरी हो सकती है। जबकि भारत की जनसंख्या 140 करोड़ पार कर चुकी है। जाहिर है कि बढ़ती आबादी और बढ़ती जरूरतों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। आने वाले समय में भोजन-पानी की किल्लत मनुष्य के सामने एक बड़ी समस्या बनकर उभरेगी।
तरक्की की चाह में मनुष्य अपनी बर्बादी की गाथा खुद लिख रहा है। प्रकृति मनुष्य को चेतावनी दे रही है कि अभी अगर नहीं संभल पाये तो आने वाली पीढ़ियां इसकी बड़ी कीमत चुकायेगी। वहीं दूसरी तरफ प्रकृति अपना संतुलन साधने के लिए विध्वंशकारी रूप में भी ले सकती है।