यह घातक चुनौती मात्र 250 वर्षों की देन है। 1750 के लगभग प्रदूषण की शुरुआत मानी जाती है। इसके कारणों में ग्रीनहाउस गैसों जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रॉक्साइड, मीथेन आदि के सकेन्द्ण का उत्सर्जन माना गया है। इसके अलावा विश्व युद्ध में आणविक एनर्जी का प्रयोग, अणु-परमाणु का बेतहाशा विस्फोट, अंतरिक्ष के कचरे आदि- ‘विश्व के जीव-जंतु एवं हरित क्षेत्र को लीलने के लिए पर्याप्त हैं।’ माना जाता है कि विगत 50 वर्षों से छोड़े जा रहे अंतरिक्ष यानों से करीब 5500 सौ टन कचरे अंतरिक्ष में जमा हो चुके हैं। यदि यही स्थिति रही तो ऊर्जा संकट खतरे में पड़ जायेगा।
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यह सत्य है कि धरती पर आफत ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से मंडरा रही है। इसका कारण हम स्वयं और प्रकृति है। पर्यावरणीय गिरावट के कारण यह संकट पृथ्वी पर विशेष रूप से गहराता जा रहा है। खासकर धनी देश और धनी लोगों द्वारा जल, जमीन, जंगल का दोहनकरना,बड़े-बड़े उद्योगों और कल कारखानों के प्रदूषित गैसों के उत्सर्जन होने से यह समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
इतना ही नहीं रासायनिक कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित जहरीले पानी और मलवे, नदियों में गिरने वाली शहरों की गंदगी, पेट्रोलियम से चलने वाले वाहनों, थर्मल प्लांटों से निकलने वाले धुएं एवं गैसों और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से धरती का तापमान पिछले कुछ वर्षों के भीतर ही करीब डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड तक के कगार पर पहुंचने वाला है।
वायुमंडल में सर्दी और गर्मी का संतुलन बिगड़ चुका है, जिसके कारण प्राकृतिक सुनामी, तूफान, अति वृष्टि, अल्प वृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएं पृथ्वी को झेलनी पड़ रही है। ध्रुवों पर से बर्फ तेजी से पिघलने लगे हैं, जिससे समुद्र का तल ऊपर उठने लगा है। इस कारण छोटे-छोटे द्वीपों को समुद्र तल में समा जाने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है।
हाल ही में “नासा-अंतरिक्ष केंद्र” द्वारा ली गई माप के अनुसार दक्षिणी ध्रुव पर ओजोन परत में पांचवां बड़ा छिद्र करीब ढाई वर्ग करोड़ किलोमीटर के बराबर हो गया है, यानी लगभग उत्तरी अमेरिका के बराबर बन गया है,जो वर्ष 2020-21करोना काल में कुछ कमा है।
जैसा कि यह विदित है कि “ओजोन” ऑक्सीजन के तीन परमाणु (o3)से मिलकर बनने वाली एक गैस है,जो वायुमंडल में बेहद कम मात्रा में पाई जाती है। यह तीखे गंध वाली तथा विषैली गैस है,जो जमीन की सतह के ऊपरी नीचले वायुमंडल में 20 से 40 किलोमीटर की दूरी पर एक मोटी पट्टी के रूप में आवृत है। “ओजोन” की यही छतरी हमारी वह ‘कवच’ है जो सूर्य की घातक “पराबैंगनी किरणों” को पृथ्वी पर आने से पूर्व 93% से 99% तक अपने में सोख कर भेजती है। ये किरणें यदि पूरी पृथ्वी पर आने लगे तो प्राणी का जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।
इसकी सर्वप्रथम खोज1993 में फ्रांस के भौतिक शास्त्री फैब्री चार्ल्स तथा हेनरी बुसोन ने की थी। बाद में इसके गुणों की विस्तृत खोज ब्रिटेन के मौसम वैज्ञानिक ‘डाबसन’ ने 1928 से 1958 के बीच किया। उन्होंने ही विश्व भर में “ओजोन” के निगरानी केंद्रों का नेटवर्क स्थापित किया,जो आज तक कार्यरत है। उन्होंने विश्व के विभिन्न स्थानों में “ओजोन’- मापक स्टेशन” स्थापित किये, जो वायुमंडल में “ओजोन” की उपस्थिति का मापन करते हैं। यह मात्रा उन्हीं के नाम पर “डाबसन यूनिट” कहलाती है।
“ओजोन” परत में छिद्र का पता पहली बार 1970 के दशक में लगा जो 1980 और 1990 दशक तक बढ़ता ही गया। 2006 में तो इसका आकार 2.75 करोड़ वर्ग किलोमीटर हो गया। वर्ष 1978 में यूएसए, कनाडा और नॉर्वे ने वायु मिश्रित स्प्रे पर रोक लगाया, किंतु यूरोपीय देशों ने इसे नहीं माना। अंततः 1985 में ही दक्षिण ध्रुव के अंटार्कटिक क्षेत्र में ओजोन छतरी में बड़ा छिद्र देखा गया। 1995 में विश्व स्तर पर सीएफसी के प्रयोग पर भी रोक लगाने के लिए विकासशील देशों के बीच एक समझौता हुआ,ूर्जजिसमें 160 देशों ने हस्ताक्षर किए, किंतु अमेरिका ने हस्ताक्षर नहीं किया। ग्लोबल वार्मिंग से बचने हेतु जापान के क्योटो शहर में 141 देशों ने “क्योटो प्रोटोकॉल” को 16 फरवरी 2005 से प्रभावी बनाया और ग्रीन हाउस उत्सर्जन में 52% की कटौती करने का प्रस्ताव पास किया।
यह घातक चुनौती मात्र 250 वर्षों की देन है। 1750 के लगभग प्रदूषण की शुरुआत मानी जाती है। इसके कारणों में ग्रीनहाउस गैसों जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रॉक्साइड, मीथेन आदि के सकेन्द्ण का उत्सर्जन माना गया है। इसके अलावा विश्व युद्ध में आणविक एनर्जी का प्रयोग, अणु-परमाणु का बेतहाशा विस्फोट, अंतरिक्ष के कचरे आदि- ‘विश्व के जीव-जंतु एवं हरित क्षेत्र को लीलने के लिए पर्याप्त हैं।’ माना जाता है कि विगत 50 वर्षों से छोड़े जा रहे अंतरिक्ष यानों से करीब 5500 सौ टन कचरे अंतरिक्ष में जमा हो चुके हैं। यदि यही स्थिति रही तो ऊर्जा संकट खतरे में पड़ जायेगा।
दूसरी ओर समुद्र में भी ‘प्रदूषण’ एवरेस्ट पर्वत के बराबर समुद्री गहराई तक पहुंच चुका है। पृथ्वी पर जीवन की गति देने में समुद्र की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन उसे भी मानवीय प्रदूषण के खतरे को झेलना पड़ रहा है। हाल ही में अमेरिका के वैज्ञानिकों की एक टीम ने अपनी खोज में प्रशांत महासागर में निर्मित 26,460 फीट की गहराई पर मानव निर्मित प्रदूषक को पाया है। यह स्थल पेरु और चिली तट से करीब 160 किलोमीटर दूर समुद्री खाई “अटाकामा” का सबसे गहरा बिंदु है, जो लगभग एवरेस्ट पर्वत की ऊंचाई के बराबर है।
‘वाशिंगटन’ के शोधकर्ताओं ने “अटाकामा-ट्रेंच” में ‘पौली क्लोराइनेटेड बाइफिनाइल्स’ (पीसीबी) की उपस्थिति दर्ज की है। शोधकर्ताओं ने 2500 से 8085 मीटर तक की गहराई तक के नमूने एकत्र किये। फिर इन सैंपलों को पांच परतों में बांटा गया,तब उसमें देखा गया कि सतह की तलछट से लेकर मिट्टी की गहराई तक में ‘पीसीबी’ की उपस्थिति पाई गई है।
“यूनिवर्सिटी आफ कोपेनहेगन” के शोधार्थियों ने यह शोध कर स्पष्ट किया है कि समुद्र के जल स्तर में निरंतर वृद्धि जारी रहेगी। उन्होंने आगाह किया है कि आगामी 2100 ई तक समुद्र के जल स्तर में 1.1 मीटर तक की वृद्धि हो सकती है तथा यह वृद्धि वर्ष 2500 तक 5.5 मीटर तक में परिवर्तित हो सकती है, तब विश्व के हजारों छोटे- छोटे द्वीप एवं देश समुद्र तल में डूब जाएंगे।
भारत की बहु चर्चित संस्था “प्रकृति मानव केन्द्रित जन आंदोलन” देश के विभिन्न राज्यों तथा देश के बाहर लोगों के बीच “ग्लोबल वार्मिंग”और “जलवायु परिवर्तन” के संबंध में जानकारियां देने तथा प्रदूषण मुक्त विश्व को बनाने की दिशा में अग्रसर होकर लोगों के बीच ऊर्जा भरने का काम कर रही है, जो एक सराहनीय कदम लोगों के बीच माना जा रहा है।