कई सभ्यताओं और संस्कृतियों को पहचान देने वाली प्राग्-ऐतिहासिक काल की भाषा है ‘प्राकृत’
1 min readप्रमाणों के अवलोकन से यह सिद्ध होता है कि कालिदास के नाटकों में भी प्राकृत भाषा का प्रचुर प्रयोग किया गया है। अति प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ जैसे महाकाव्य में भी प्राकृत भाषा के महत्व को काफी महिमा मंडित किया गया है।
‘प्राकृत’ शुद्ध रूप से प्राग्-ऐतिहासिक काल की भाषा है,जो शौरसैनी,पाली,मागधी,संस्कृत,महाराष्ट्री और गांधारी जैसी अन्य प्राकृतिक भाषाओं से मेल खाती है। यह हिंदू तथा बौद्ध दोनों संप्रदायों की परंपराओं के साहित्य में विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है। ‘प्राकृत’ मध्य- भारतीय आर्यन भाषाओं के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध है,जो भारत में शास्त्रीय भाषा के रूप में विकसित हुआ। ये सभी प्राचीन काल की स्थानीय बोलियाँ थी, जो अपने- आप पूर्व कालों में साहित्यिक माध्यम बन गई। इस समूह की सबसे प्रसिद्ध बोली और भाषा पाली ही थी,जो दक्षिण पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म के लिए विहित भाषा के रूप में कार्य करती है।
आधुनिक विद्वानों ने ‘पाली’ को तीसरी शताब्दी ईसापूर्व की कई प्राकृतिक भाषाओं का मिश्रण माना है। वहीं प्राकृत भाषाएं 600 ईसा पूर्व से 1000 ई. तक इंडो- आर्यन भाषा परिवार से संबंधित माना गया है। ‘प्राकृत’ मध्यकालीन भारतीय आर्यों की क्षेत्रीय भाषा थी, जिसे शास्त्रीय संस्कृत से भी पहले की भाषा मानी गई है। भाषा की लिखित अभिव्यक्ति पूरा-पाषाण काल से मानी गई है, जब हमने बोलना सीखा। उसी काल में भाषा का भी जन्म हुआ,जो सांकेतिक रूप में चित्रित की गई। फिर उसे ही समय के साथ धीरे-धीरे भाषा के चिन्हों को विकसित किया गया।
प्राकृत के बारे में कतिपय लोगों ने यह मिथ्या भ्रम फैलाया कि यह देव भाषा संस्कृति से निकली बाद की भाषा है। परंतु प्रमाणों के अवलोकन से यह सिद्ध होता है कि कालिदास के नाटकों में भी प्राकृत भाषा का प्रचुर प्रयोग किया गया है। अति प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ जैसे महाकाव्य में भी प्राकृत भाषा के महत्व को काफी महिमा मंडित किया गया है।
वैदिक युग में प्राकृत भाषा का विशेष प्रभाव रहा है। परंतु इस काल में सुशिक्षित लोगों द्वारा साहित्यिक प्रयोग में संस्कृत भाषा को ज्यादा महिमा मंडित किया गया। फिर भी लोक जीवन में और लौकिक दार्शनिक साहित्य में ‘प्राकृत’ भाषा ही समानांतर रूप से निरंतर प्रयोग में रही। महान् व्याकरणाचार्य “पाणिनि” ने तो यहां तक लिख डाला है कि स्वयं स्वयंभू ‘ब्रह्मा’ संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं में बोलते थे– “संस्कृते प्राकृते चापी स्वयं प्रोक्ता स्वयंभूवा”-(पाणिनीय शिक्षा-3)।
सिंधु सभ्यता के विशिष्ट प्रशासनिक विद्वान खोजकर्ता निर्मल कुमार वर्मा ने अपनी रचना “डेसीफॉर्मेट ऑफ़ सिंधु स्क्रिप्ट” में उत्खनन से प्राप्त सिंधु सभ्यता के अभिलेखों का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है कि सिंधु सभ्यता के लोगों की भाषा “प्राकृत” थी। एकमात्र प्राकृत भाषा ही विशुद्ध रूप से प्रागैतिहासिक काल से इस देश के लोगों की बोलचाल की भाषा और साहित्य का माध्यम बनी रही। प्राकृत भाषा में ही वे बोलते थे और लिखते थे।
सिंधु घाटी सभ्यता 3300 से 1300 ई.पू. प्राचीन भारत की एक अति विकसित सभ्यता थी,जो विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक थी। यह हड़प्पा नाम से भी जाना जाता है। इस सभ्यता का प्रारंभिक विकास 7500 ई.पूर्व से 3300 ई.पूर्व के बीच का सिंधु और घग्गर/हकड़ा नदी के किनारे हुआ था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो,कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा और राखगड़ी इसके प्रमुख केंद्र थे।
वर्ष 2014 ईस्वी में “भिरड़ाणा” सिंधु घाटी सभ्यता का अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है ,जो लगभग 7500 ई.पू. से 6500 ई.पू. तक के बीच का बसा हुआ माना गया है। उत्खनन के आधार पर पुराविदों एवं इतिहासकारों का अनुमान है कि प्राचीन काल में यहां अत्यंत विकसित सभ्यता थी और यह शहर अनेकों बार बसा और उजड़ा है।
“मल्लपुराण” (3/12) के अनुसार श्री कृष्णा भी प्राकृतिक भाषा का ही प्रयोग करते थे। “वाराही संहिता” (86/3) के अनुसार “गर्ग” आदि सप्तर्षी ऋषि भी प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं का व्यवहार करते थे। विश्व के प्रसिद्ध नाट्य शास्त्र प्रणेता “भरत मुनि” ने तो “प्राकृत” सीखने-पढ़ने की प्रेरणा देते हुए लिखा है– “विज्ञेय प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थांतरात्मकम्” (18/2)
प्राकृत भाषा जन भाषा के रूप में प्राचीन जमाने वैदिक काल से लेकर 16 वीं शताब्दी तक अनवरत प्रवाहशील रही। इन कालों में सदा काव्य सृजन होता रहा। तभी तो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी अमर कृति “राम चरित मानस”में निष्पक्ष होकर उनमें ‘प्राकृत’ के कवियों की महत्ता को स्वीकारते हुए बाल-कांड में लिखा है– “जे प्राकृत कवि परम सयाने, भाषों जिन हरिचरित बखाने।” इस प्रकार भारत के समस्त भाषाविदों ने भारतीय भाषाओं का उद्भव और विकास विभिन्न क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं के द्वारा ही होना स्वीकार किया है। प्राकृत भाषा का जनजीवन पर इतना व्यापक प्रभाव था, कि संस्कृत में ही मूल रूप से बोलने-लिखने वाले महाज्ञानी “जगदगुरु आदि शंकराचार्य” ने भी ईश्वर का प्राकृत नाम “गोविंद “ही अपने काव्य में प्रयोग किया है।
समस्त प्राकृतों का मूल स्रोत “शौरसेनी-प्राकृत” को माना है। धर्मदर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, खगोल-भूगोल, छंद-शास्त्र,मंत्र-शास्त्र,वास्तु-विद्या,कला, साहित्य, संस्कृति और इतिहास एवं ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों पर प्राकृत भाषा के विपुल साहित्य भंडार में अनेकों ग्रंथ विद्यमान हैं। कमी मात्र ऐसे अन्वेषकों एवं पहचान करने वाले विद्वानों की है,जो समर्पित होकर इस कार्य को पूर्ण कर सके। ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को “प्राकृत भाषा दिवस” के रूप में मान्यता दी गई है, जिसमें हम अपनी अमूल्य धरोहरों को पहचान सके एवं “प्राकृत” की बेमिशाल गौरवशाली परंपरा को विश्व पटल पर लाकर भारत की गरिमा को उन्नत कर सकें।