
बिहार में इस बार आधा दर्जन गठबंधन/मोर्चा चुनाव लड़ रहा है। दो बड़े घटक एनडीए और महागठबंधन को छोड़कर जितना भी मोर्चा तैयार हुआ है उन सभी में ज्यादातर छोटे-छोटे और क्षेत्रीय दल हैं। इसके अलावा कई दल अकेले चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें अधिकांश दलों की राजनीतिक पहचान जाति केन्द्रीत है और ये दल जातिगत वोट काटकर किसी का भी खेल बिगाड़ सकते हैं। सभी अपने विरोधियों/प्रतिद्वंद्वियों को डंके की चोट पर धूल चटाने की बात कर रहे हैं। समर शेष हैं… और परिणाम बता देगा कौन कितने पानी में हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार मुकाबला बड़ा ही रोचक होने वाला है। बिहार की छोटी-छोटी पार्टियां बड़ा खेल करने की तैयारी मे हैं। जिन पार्टियों के बिहार में एक भी विधायक नहीं हैं उनके प्रमुख अथवा पार्टी अधिकृत नेता घटक दलों के साथ सीटों को लेकर आर-पार के मूड में दिखे। जब बात नहीं बनी तो कई दलों ने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया और राजनीतिक सरोकारों को भी भूल बैठे। कल तक एक मंच पर साथ दिखने वाले आज एक दूसरे के सियासी दुश्मन बन चुके हैं।
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, हिन्दुस्तान अवामी मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी, जन अधिकार पार्टी के एक भी विधायक वर्तमान मे नहीं हैं। जबकि दो दर्जन से ज्यादा ऐसी पार्टियां जिनके नाम पहली आप बार सुन रहे हो, वह मैदान में ताल ठोकने को तैयार हैं। बिहार में इस बार निर्दलीय प्रत्याशियों के रूप में किस्मत आजमाने वालों की संख्या हजारों में होंगे। नामांकन वापसी की तारीख के बाद ही पुख्ता आंकड़ों का पता चल सकेगा।
बिहार में इस बार आधा दर्जन गठबंधन/मोर्चा चुनाव लड़ रहा है। कोई किंग बनना चाहता है तो कोई किंग मेकर। कोई सत्ता की चाबी अपने पास रखना चाहता है तो कोई अपने चहेतों को मलाइदार कुर्सी दिलाना चाहता है। सियासी गलियारों में उनकी धमक बरकरार रहे इसके लिए उन्हें धर्म और जाति का कार्ड खेलने से भी परहेज नहीं है।
जातीय समीकरण के इर्द-गिर्द घूमने वाली बिहार की राजनीति में ऐसी पार्टियों की पहचान सिर्फ जातिगत वोट काटने एवं बदलते सियासी समीकरण के बीच ठिकाना बदलने की रही है। हाल के दिनों तक कई नेता अलग ठिकाने भी तलाशते दिखे। हालांकि अब सभी दलों एवं घटकों में सीटों का बंटवारा हो चुका है। कुछ नेताओं की मौज हो गई तो कुछ असंतुष्ट हैं लेकिन उनके पास अब कहीं जाने का भी विकल्प नहीं बचा है। क्योंकि सभी दलोें/घटकों ने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करना शुरू कर दिया है। उम्मीदवारों के चयन अब अंतिम चरण में हैं।
मनमाफिक सीट नहीं मिलने के कारण ही महागठबंधन से तीन सहयोगी दल अलग हो गये। हिन्दुस्तान अवामी मोर्चा और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) एनडीए का हिस्सा बन गये। जबकि रालोसपा के प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा ने अलग मोर्चा बना लिया। आरजेडी को हमेशा साथ देने वाली और झारंखड की रूलिंग पार्टी झामुमो ने महागठबंधन में कम सीटें मिलने पर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। पप्पू यादव की जनअधिकार पार्टी ने ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर आरजेडी के मुस्लिम-यादव वोटबैंक में सेंध मारने की तैयारी में है।
जबकि, एनडीए में भी सब कुछ ठीक नही है। लोक जनशक्ति पार्टी ने एनडीए से अलग होेकर बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। इतना ही नहीं जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लोजपा नेता चिराग पासवान ने खुली चुनौती दे दी है। हालांकि बीजेपी के खिलाफ लोजपा अपने उम्मीदवार को नहीं उतारेगी। लोगों के लिए यह खेल समझ से परे है लेकिन जानकार कह रहे हैं कि यह एनडीए की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है।
हाल के दिनों में नीतीश कुमार की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है। नीतीश कुमार विरोधियों के साथ-साथ अपनों से भी घिरते दिखे। भले ही एनडीए यह चुनाव नीतीश कुमार के नाम पर लड़ रहा हो, लेकिन एक विकल्प तलाश कर रखा है। इसमें चिराग पासवान सिर्फ मोहरा हैं। इस खेल का खिलाड़ी तो पर्दे के पीछे है जो शतरंज की बिसात पर शह और मात का खेल खेल रहा है।
मोदी तुझसे बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं! यह स्लोगन बिहार के लोगों को लुभा रहा है। जेडीयू पर हमलावर हो रही लोजपा पर बीजेपी हाईकमान चुप है। साझीदार पार्टी होने के बावजूद बीजेपी के शीर्ष नेताओं की तरफ से लोजपा के खिलाफ एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई है। क्योंकि लोजपा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह बीजेपी से अलग नहीं है।
इस सियासी खेल को देखकर लोगों के मन में कई सवाल उठ रहे हैं कि, क्या बीजेपी हाईकमान ने इस चुनाव में ही लोजपा को अलग चुनाव लड़ाकर बिहार की राजनीति में एक नया प्रयोग करने का मन बना लिया है। क्या एनडीए नीतीश कुमार पर अब दांव लगाने को तैयार नहीं है। क्या चुनाव परिणाम के बाद एनडीए की ओर से सीएम उम्मीदवार बदले जा सकते हैं। इस तरह के कई सवाल लोगों के दिमाग में उभर रहे हैं, जिसके जवाब आने वाले दिनों मिल जायेंगे।
नीतीश कुमार एनडीए के सीएम उम्मीदवार हैं, लेकिन इस बार सियासी चक्रव्यूह में फंसते दिख रहे हैं। लोजपा ने जिस तरह जेडीयू के खिलाफ अपनी रणनीति तैयार की है उससे नीतीश कुमार की राह आसान नहीं दिख रही है। लोजपा जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवारों को उतारकर नीतीश कुमार को नेपथ्य में भेजने की रणनीति पर काम कर रही है। नीतीश कुमार जेडीयू के सर्वेसर्वा हैं। जब जेडीयू के समीकरण बिगड़ जायेंगे तो नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत में अंतर तो पड़ेगा। यह एक बड़ा खेल है और इसके रणनीतिकार पर्दे के पीछे हैं।
विदित हो कि, 24 सितम्बर को चिराग पासवान ने बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को एक चिट्टी लिखी थी। उस चिट्ठी में चिराग ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। जेपी नड्डा को भेजी गई चिट्ठी में चिराग ने कहा था कि अगर मेरे हक के अनुसार 143 सीटें नहीं दी जा रही है तो लोजपा को एनडीए गठबंधन से बिहार से अलग कर दिया जाये। चिराग ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि भविष्य में हम राजनीतिक साझीदार बन सकते हैं।
सबसे बड़ी बात है कि चिराग पासवान ने गेंद बीजेपी के पाले में पहले ही डाल दी थी और इसपर फैसला बीजेपी हाईकमान को करना था। सूत्र बताते हैं कि एक रणनीति के तहत लोजपा को बिहार में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने पर सहमति जता दी गई। चिराग पासवान ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि उनका विरोध जेडीयू से है बीजेपी से नहीं। विपक्षी दलों से घिरते नीतीश कुमार के खिलाफ अब अपनों ने भी मोर्चा खोल दिया है। इतना ही नहीं चिराग ने नीतीश सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुए विकास को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है।
चिराग पासवान का मानना है कि नीतीश सरकार के कार्यकाल में बिहार का कुछ भी विकास नहीं हुआ है। सिर्फ विकास का ढोल पीटा जा रहा है लेकिन जमीनी हकीकत बिहार की जनता को दिख रही है। चिराग पासवान का नीतीश सरकार पर हमलावर होना इत्तेफाक नहीं है। चिराग के नीतीश सरकार के खिलाफ हर बयान में गहरे अर्थ छिपे हैं।
बिहार की राजनीति के संदर्भ में नीतीश कुमार पर यह कथन सटीक बैठती है कि ‘राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और ना ही दुश्मन।’ अगर चुनाव परिणाम के बाद सियासी समीकरण बदल गये तो एनडीए की ओर से सीएम का चेहरा बदलने में थोड़ा भी वक्त नहीं लगेगा। बता दें कि बिहार में दो बड़े घटक एनडीए और महागठबंधन को छोड़कर जितना भी मोर्चा तैयार हुआ है उन सभी में ज्यादातर छोटे-छोटे और क्षेत्रीय दल हैं। इसके अलावा कई दल अकेले चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें अधिकांश दलों की राजनीतिक पहचान जाति केन्द्रीत है और ये दल जातिगत वोट काटकर किसी का भी खेल बिगाड़ सकते हैं। सभी अपने विरोधियों/प्रतिद्वंद्वियों को डंके की चोट पर धूल चटाने की बात कर रहे हैं। समर शेष हैं… और परिणाम बता देगा कौन कितने पानी में हैं।




