Tuesday, November 4, 2025
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क्रांतिकारी वीरों के साथ अमानवीय यातनाओं का गवाह है अंडमान द्वीप का जेल

इन सभी क्रांतिकारी वीरों ने यातनाओं को सहते हुए वीरगति को प्राप्त किया। इन संघर्षों का ही प्रतिफल रहा कि देश 1947 में आजाद हुआ। आज हम बड़े गर्व से अपने को स्वतंत्र भारत का नागरिक कहते हैं,किंतु उन बलिदानियों न तो हम याद करते हैं और नहीं उनके बाल- बच्चों व परिवार का ख्याल ही रखते हैं।

सरकार को तो इससे कोई लेना-देना नहीं है। आज सियासत कि मौज लूटने में और सुख-सुविधाओं से लैश होकर जीवन बीताने में राजनीतिक लोग लगे हैं। वे अपने को जनप्रतिनिधि कहते हैं और देश सेवा कार्य करने की संविधान का शपथ भी खाते हैं। दूसरी ओर देश की जनता तबाह, निर्धन,फटे हाल रहे इससे उन पर कोई असर नहीं पड़ता।

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अंग्रेज अपनी सत्ता भारत में हमेशा के लिए कायम रखने के लिए वे यहां के क्रांतिकारी वीरों को अमानवीय यातनाएं देते थे, जिससे कि उनकी मौत तक हो जाती थी। छल, कपट, हिंसा और क्रूरता द्वारा दूसरे देश को वे परतंत्र बनाने में सदा लगे रहते थे। ये अंग्रेज अपने आप को ईमानदार और दूसरे देश के लोगों को जो स्वतंत्र होने की चेष्टा करते थे, उन्हें वे हिंसक और डाकू कहते थे।

जबकि वे यह जानते हुए भी कि क्रांतिकारियों में अधिकतर पढ़े-लिखे और उच्चतर शिक्षा प्राप्त घराने के लोग ही हैं, फिर भी वे उनसे पशुवत् व्यवहार करते थे। उन्हें फांसी दे देना, जेल में डालकर यातनाएं देना, चौक- चौराहे पर पेडो़ं पर टांग कर उनकी जान ले लेना उनके लिए आम बात थी।

अंडमान द्वीप समूह के ‘पोर्ट ब्लेयर’ में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए जेल में क्रांतिकारी वीर भारतियों को आजीवन कारावास देकर उन्हें उस जेल में रखते थे, वह “काला पानी” कहा जाता था। वह साक्षात ‘नरक’ ही था। वहां तैनात चुने हुए निर्दयी जेलर, जमादार और सिपाही रखे जाते थे। तेल निकालने वाले कोल्हू में बैल की जगह इन क्रांतिवीर कैदियों को उसमें जोतकर उनसे नारियल का तेल निकालने का काम वे करवाते थे। यह कार्य उन्हें बिना खाए-पिए करना पड़ता था। हद तो यह थी कि एक कैदी को बिना खाये- पीये 30 पौंड तेल निकालना आवश्यक होता था,तभी उन्हें खाने-पीने छुट्टी मिल पाती थी।

इस कालापानी जेल में एक से एक संभ्रांत क्रांतिवीर यथा स्वराज पत्र के संपादक श्री रामहरि जी,श्री नंदगोपाल जी, अलीपुर षड्यंत्र केस के श्री वारिन्द्र कुमार घोष, श्री हेमचन्द दास, श्री गणेशपंत सावरकर, श्री वामन जोशी आदि जैसे वीर क्रांतिकारी लोगों को काला पानी की सजा सुनाकर वहांँ भेज रखा था।

साधारण कैदी उन्हें आदर से ‘राजबंदी’ और व्यक्तिगत संबोधन में उन्हें “बाबू” कह कर पुकारा करते थे, जो जेल अधिकारियों को बहुत ही बुरा लगता था। खाने-पीने नहाने आदि की दुःख तो दे रखी ही थी,मल,मूत्र त्याग पर भी उन्हें सुबह-शाम और दोपहर के अलावे शौच की भी कोई सुविधा अन्य समय में नहीं दे रखी थी।

जेलर द्वारा इस प्रकार का अमानुषिक व्यवहार करने से उबकर पं.परमानंद मिश्र तथा श्री आशुतोष लाहिडी़ ने जेलर को जेल कैंपस में ही उठाकर पटक दिया। रामरेखा नामक कैदी तो एक छोटी सी मांग पर अनशन कर अपना प्राण ही त्याग दिया। लद्धार राम क्रांतिवीर ने जब पशुओं के योग्य कोल्हू पेरने के कठिन कार्य करने से इन्कार किया, तब उन्हें खड़ा कर हथकड़ी लगाकर दीवार के साथ बांधकर भूखों रखा। जब यह बात अंडमान के चीफ कमिश्नर ने जानी तब तुरंत उन्हें मुक्त कर दिया।

राजनीतिक बंदियों को पढ़ने के लिए किताबें दी जाए, इस मांग पर कैदियों को कठिन यातनाएं दी जाने लगी, तब सभी कैदी मिलकर भूख हड़ताल पर उतर गए। तब जेलर द्वारा उन्हें जबरदस्ती मुंह-नाक में नली डालकर दूध पिलाया जाने लगा। फिर भी यह हड़ताल 35 दिनों तक चला। अंत में उन्हें किताबों को पढ़ने के लिए इजाजत दी गई और किताबें भी दी जाने लगी।

काकोरी कांड के कैदी जब यहां जेल भेजे गए तो उन्होंने उनके साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार करने की मांग की। किंतु यह मांग नहीं देने पर उन सबों ने 16 दिनों तक अनशन की। तब जेलर ने उनके साथ छल कर उन्हें सजा होते ही भिन्न- भिन्न प्रांतों के जेलों में उन्हें भेज दिया गया।

लाहौर षड्यंत्र केस के कैदी सरदार भगत सिंह,यतीन्द्र नाथ दास आदि जैसे क्रांतिकारी वीर यहां भेजे गए थे। उनमें से श्री यतींद्र नाथ दास अनशन को नहीं छोड़ा और वे अपनी शहादत दे डाली। ऐसे ही अधिकारों के लिए अनशन करने के फंलस्वरूप फतेहगढ़ जेल में श्री फनिंद्र नाथ बनर्जी ने भी अपना प्राण त्याग दिया।

आगरा जेल में भी श्री योगेंद्र चटर्जी ने एक बार 141 दिनों तक और दूसरी बार 111 दिनों तक अनशन किया।अंडमान में बहुत से क्रांतिकारी उन दिनों जमा हो गए थे। लाहौर षड्यंत्र केस की सजा पाए विजय कुमार सिंह, महावीर सिंह, कमल नाथ तिवारी आदि क्रांतिकारी वीर भी कालापानी की सजा में यहां भेज दिये गए थे।

राजनीतिक कैदियों ने सम्मान पूर्वक व्यवहार करने, पढ़ने लिखने की सहूलियत देने, रात्रि में रोशनी तथा अच्छे भोजन आदि मांगों को लेकर उन सबों ने अनशन किया। एक साथ मिलकर इतने दिनों तक का अनशन अब तक यहां नहीं किया गया था। सरकार के पास उन सबों ने मिलकर आवेदन शिकायतों तथा मांगों की सूची बनाकर भेज दी।

फिर भी जब जवाब नहीं आया तो उन सबों ने अल्टीमेटम देकर घोषित तिथि पर अनशनकारियों ने अनशन प्रारंभ कर दिया। तब अधिकारियों ने एक चाल चली। उन्हें एक जगह जमा कर उनमें से 4 को सबसे अलग बाड़े में रख छोड़ा। शेष भूख हड़तालियों को 24 घंटे कोठरियों में ताला बंद कर रखने लगे। इससे भी कोई जब हड़तालियों पर असर नहीं देखा तो उन्हें जबरदस्ती मुंह में खाना ठूंसने लगे। अंततः राजनीतिक कैदियों की जीत हुई,जिससे उन्हें अपने देश को वापस भेजने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा।

परन्तु, इस भूख हड़ताल के दौरान महावीर सिंह शहीद हो गए, किन्तु शहीद होने के पूर्व जो उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा वह देश प्रेम से भरा था। उन्होंने लिखा कि “मैं शादी करना नहीं चाहता,क्योंकि हमारा क्रांतिकारी जीवन नष्ट हो जाएगा।” पिता ने यह पत्र पाते ही, उन्होंने जो अपने पुत्र को पत्र भेजा वह स्वाभिमान और देश प्रेम से भरा था।

पिता ने पत्र लिखा उसमें उन्होंने कहा कि-” यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है। देश की सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है, वह बड़े गर्व, तपस्या और कठिन मार्ग है,फिर भी जब तुम उस पर चल पड़े हो तो पीछे मुड़ना नहीं और नहीं साथियों को धोखा देना। पिता के नाम और गौरव को ख्याल रखना। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा- ‘तुम्हारा हीअपना वृद्ध पिता’।”

महावीर जी की इस शहादत ने क्रांतिवीर साथियों में जोश की ज्वाला भर दी। सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि ने मिलकर सांडर्स बम कांड और पंजाब नेशनल बैंक पर छापा मारने की योजना आदि जैसे काम किए। बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंकने का कार्य किया। यद्यपि कि इन सभी क्रांतिकारी वीरों ने यातनाओं को सहते हुए वीरगति को प्राप्त किया। इन संघर्षों का ही प्रतिफल रहा कि देश 1947 में आजाद हुआ। आज हम बड़े गर्व से अपने को स्वतंत्र भारत का नागरिक कहते हैं,किंतु उन बलिदानियों न तो हम याद करते हैं और नहीं उनके बाल- बच्चों व परिवार का ख्याल ही रखते हैं।

सरकार को तो इससे कोई लेना-देना नहीं है। आज सियासत कि मौज लूटने में और सुख-सुविधाओं से लैश होकर जीवन बीताने में राजनीतिक लोग लगे हैं। वे अपने को जनप्रतिनिधि कहते हैं और देश सेवा कार्य करने की संविधान का शपथ भी खाते हैं। दूसरी ओर देश की जनता तबाह, निर्धन,फटे हाल रहे इससे उन पर कोई असर नहीं पड़ता।

अपने आप को साम्यवादी और समाजवादी कहने वाले भी उसी जनप्रतिनिधि की श्रेणी में वेतन की बढ़ोतरी के मामले में स्वीकृति देकर सारी सुख-सुविधाओं को गरीबों की कमाई का लाभ उठाते हैं। आवश्यकता है स्वतंत्र भारत में नैतिक मूल्यों पर ध्यान देते हुए देश को आगे बढ़ाने की।

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