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कबीलों के बीच प्रभुत्व की लड़ाई में मिट गई अति समृद्ध और शालीन सभ्यताएं

आज से करीब पांच हजार वर्ष पूर्व पश्चिम एशिया का लगभग समस्त प्रदेश यानी दक्षिणी ईरान से इराक के उत्तरी भाग तक और दजला-फरात का कांठा प्रदेश, मेसोपोटामियां, बेबिलोनिया आदि जलमग्न हो गए थे। मान्यता है कि इस जल-प्रलय से बहुत पहले पश्चिमी बाल्कन से वोल्गा की घाटी तक एक जाति निवास करती थी, जो घोड़े पर दिन-रात मीलों सफर करती थी। उनके कबीले पड़ोसियों पर हमला करते और कभी उनसे टकराते थे। ये धीरे-धीरे अजरबेजान की राह ईरान में प्रवेश किये।

उन दिनों दजला-फरात के निचले दोआब में एक भव्य शालीन सभ्यता सदियों से कायम थी,जो मेसोपोटामिया में सुमेर की थी। सुमेरियन-सभ्यता के प्रमुख नगर थे- उर,उरुके,निपुर, लागास, एरिडू,निसीन आदि। पुरातत्व विभाग के उत्खनन से सभ्यता के अवशेष तथा “सुमेरियन लिपि” प्रकाश में आयी है, जिससे प्राचीन सभ्यताओं की जानकारी मिलती है।
“मेसोपोटामिया” आधुनिक इराक प्रदेश में है। इसके दक्षिण में फारस की खाड़ी है। दजला और फरात ये दोनों नदियां आरमेनिया नामक पर्वत से निकलकर इस प्रदेश को सींचती हुई पारस की खाड़ी में गिरती है। इस बीच की अर्द्ध-चंद्राकर भूमि अति उपजाऊ थी,जिसमें दजला-फरात घाटी की सभ्यताएं पनपी,जो “मेसोपोटामिया-की सभ्यता” नाम से जानी जाती है।

ये कबीले अपने को “आर्य” बतलाते थे। उनमें से कुछ तो ईरान में और कुछ हिंदूकुश पर्वतमाला के आसपास फैल गये। हिंदूकुश पर्वत रूपी दीवार को लांघना आसान नहीं था, फिर भी वे लांघ गये। सामने उर्वर काबुल की घाटी थी, जिसे कुभा, क्रुमू, और गोमती नदियां सींचती थी। आगे सप्त-सिंधु का हरा-भरा समृद्ध प्रदेश था। इसे देख आर्य लोग लोभ में पड़ गए। इनका सामूहिक जीवन चूंकि तलवार की धार पर चलने वाला था, अतः ये कबीले अपना प्रभूत्व जमाना इस क्षेत्र में आरंभ कर दिया। इनके ‘कुमक’ में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही थे।

दक्षिण पंजाब में रावि और सिंधु नदी के किनारे सिंध से प्रायः समुद्र तट तक और सिंध से बलूचिस्तान तक लगभग एलामी- सुमेरी शहरों की सीमा तक एक अति प्राचीन सभ्यता फैली हुई थी, जो सैंधव सभ्यता के नाम से प्रसिद्ध थी। यह सभ्यता प्राचीन तो थी ही,साथ ही इसमें अनेक खुबियां थी। यह सभ्यता एक सुंदर, उदार एवं व्यापार प्रिय थी तथा हरे-हरे खेत और उपवन से सुशोभित थी।

यह सभ्यता अति समृद्ध सभ्यता थी, जहाँ के मकान पकाई हुई ईंटों से नगर प्लान के तहत बने हुए थे। यहां की सड़कें साफ-सुथरी और लंबी थी। उनके स्नानागार और सरोवर के पुरावशेष जो उत्खनन से प्राप्त हुए हैं, वह संसार को आश्चर्यचकित करने वाले अति उन्नत मिले हैं। उनके पास ज्ञान, धन, बुद्धि और विलास की निधियां तोअपार थी, किंतु वे अस्त्र-शास्त्र संसाधन में बिल्कुल अनभिज्ञ तथा भोले थे। विपत्ति को जीतने के लिए उनके पास कोई हथियार व अन्य संसाधन नही थे।

इसका लाभ इन कबीलों ने उठायी और उनसे उनकी टक्कर हुई। खून की धाराएं बहीं। ईसा से करीब सैंतीस सौ वर्ष पूर्व इन कबीले ( मंगोलों ) ने सैंधावों की सारी संस्कृति को बर्बाद किया।। उन्हें कत्लेआम कर उनकी संपत्ति को लूटा। विलास व सुख-सुविधा के सारे संसाधनों को विनष्ट किया। उनके पक्के-कच्चे मकानों को विध्वंस किया। उनके नगर और घरों को छीन लिया तथा नगरों को जला कर राख कर दिया।

इस विध्वंसकारी अत्याचार और त्रासदी के बाद भी जो बचे, उन्हें दास तथा नारियों को उन्हें दासियों की भांति प्रयोग करते। रथो में भर-भर कर उन्हें वे अपने गुरुओं और पुरोहितों को दान में ददिया। अपने मित्रों को भेंट किया। इस प्रकार उच्च कोटि की सभ्यता को उमिट्टी में मिला दिया। कहने का तात्पर्य यह कि सिंधु घाटी सभ्यता को विनाश करने में उन्होनें तनिक भी कोर कसर न छोड़ी और न तो देर न लगायी।

इतना ही नहीं सैंधव सभ्यता के कुलीनों को वे नीच दृष्टि से देखते। उन्हें वे दास, दस्यु,अनासा,अकर्मण्य, मृध्रवाचा आदि शब्दों से संबोधित करते। इस तरह सैकड़ों व हजारों वर्ष बीत गए।

समय ने करवट ली। सैंधव वासियों ने कालांतर में हल व बैल से खेती करना आरंभ कर दिया। कपास उगाना,सूती कपड़ा बुनना आदि सीखकर बाह्य आक्रमणकारियों पर सैंधव वासियों ने अपना कब्जा जमा लिया और ईसापूर्व छठी शताब्दी आते-आते महात्मा बुद्ध के शिक्षाओं से प्रभावित होकर पूरा मध्य देश, मगध,वैशाली आदि बौद्धमय हो गया। शान्ति, मैत्री और करुणा का अजस्र धारा प्रवाहित हो उठी। सर्वत्र शांति का साम्राज्य छा गया।

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