Tuesday, November 4, 2025
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आज के युवाओं को संगठित कर राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने की आवश्यकता: मयंक मधुर

आज का भारत सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। ऐसे परिदृश्य में राष्ट्र के विकास के लिए युवाओं की भूमिका अपरिहार्य बन जाती है। भारत की 65% जनसंख्या युवाओं की है, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मेरुदंड कही जा सकती है। परंतु विडंबना यह है कि यही युवा वर्ग आज दिशाहीनता, राजनीतिक उदासीनता और संगठनविहीनता की स्थिति में जी रहा है। ऐसे में यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि आज के युवाओं को संगठित कर उनमें राजनीतिक चेतना का संचार किया जाए, जिससे वे न केवल अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनें, अपितु राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में भी सक्रिय भागीदारी निभाएं।

युवाओं की दशा: आंकड़ों की दृष्टि से –
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में 15-35 वर्ष की आयु वर्ग के युवाओं की संख्या लगभग 60 करोड़ है। यह वह वर्ग है जो न केवल तकनीकी रूप से दक्ष है, बल्कि ऊर्जा, संकल्प और नवाचार का प्रतीक भी है। परंतु इन्हीं युवाओं में राजनीतिक सहभागिता का प्रतिशत निराशाजनक रूप से निम्न है। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में छात्र संघों की निष्क्रियता, वाद-विवाद मंचों का अभाव तथा राजनैतिक विमर्श की न्यूनता इसके मुख्य कारणों में गिने जाते हैं।

राजनीतिक उदासीनता: एक चिंताजनक प्रवृत्ति –
आज का युवा राजनेताओं और राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और सत्ता लोलुपता का पर्याय मानने लगा है। यह मानसिकता युवाओं को राजनीति से दूर करने में प्रमुख भूमिका निभा रही है। सोशल मीडिया पर तो युवा वर्ग राजनीतिक विषयों पर मुखर दिखता है, किंतु जमीनी स्तर पर सक्रियता नगण्य है। मतदान में युवाओं की भागीदारी में गिरावट आई है और छात्र आंदोलन लगभग समाप्तप्राय स्थिति में हैं। यह राजनैतिक उदासीनता भविष्य के लिए घातक संकेत है। जब राष्ट्र का सबसे ऊर्जावान वर्ग ही लोकतंत्र की बुनियाद से विमुख हो जाए, तब किसी भी सशक्त राष्ट्र की परिकल्पना असंभव हो जाती है।

संगठनहीनता: शक्ति का विघटन –
युवाओं की सबसे बड़ी कमजोरी उनका विखंडित स्वरूप है। जहाँ एक ओर पुरानी पीढ़ी विभिन्न राजनीतिक दलों, संगठनों और विचारधाराओं से जुड़ी हुई है, वहीं युवा वर्ग व्यक्तिगत उपलब्धियों और उपभोगवादी जीवनशैली में उलझा हुआ प्रतीत होता है। संगठन में शक्ति होती है — यह तथ्य नेताजी सुभाष चंद्र बोस – “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” जैसी ओजस्वी वाणी से।

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम – वैज्ञानिक, राष्ट्रपति और लाखों युवाओं के आदर्श।
स्वामी विवेकानंद – युवाओं के आत्मबल और राष्ट्र निर्माण की अलख जगाने वाले संत।

चंद्रशेखर आज़ाद – “मैं आज़ाद था, आज़ाद हूँ और आज़ाद रहूँगा” कहने वाला अडिग क्रांतिकारी और भगत सिंह जैसे महानायकों ने अपने आंदोलनों द्वारा सिद्ध किया था। परंतु आज के युग में छात्र संगठन मात्र औपचारिक संस्थाएं बनकर रह गए हैं, जिनमें वैचारिक गहराई और जन सरोकारों की समझ का अभाव है।

आवश्यकता है नव-संगठन की –
आज की आवश्यकता यह है कि युवाओं के लिए एक ऐसे समन्वित संगठन की स्थापना की जाए जो जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र जैसे विभाजक तत्वों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि माने। इस संगठन को केवल राजनीतिक उद्देश्यों तक सीमित न रखकर सामाजिक न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।शिक्षा संस्थानों में छात्र संसदों की पुनर्स्थापना, मॉडल यूनाइटेड नेशन्स जैसे कार्यक्रमों की अभिवृद्धि और वैचारिक समूहों की स्थापना से युवाओं में नेतृत्व क्षमता, संवाद-कौशल और विवेकशीलता का विकास होगा।

राजनीतिक चेतना –
राजनीतिक चेतना केवल चुनाव में मतदान तक सीमित नहीं होती। यह व्यक्ति के सोचने, समझने, विश्लेषण करने और सामाजिक समस्याओं पर प्रतिक्रिया देने की क्षमता को दर्शाती है। एक राजनीतिक रूप से सचेत युवा ही भ्रष्टाचार, अनाचार, दमन और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठा सकता है। राजनीतिक चेतना से संपन्न युवा केवल वोट बैंक नहीं होते, वे राष्ट्र के नीति निर्धारण में सहभागी बनते हैं। चाहे वह जेपी आंदोलन हो या फिर जनलोकपाल आंदोलन हो भ्रष्टाचार के विरोध में छात्र आंदोलनों की भूमिका — युवाओं ने यह सिद्ध किया है कि जब वे जागते हैं तो परिवर्तन की धारा बहने लगती है।

राजनीतिक प्रशिक्षण: समय की पुकार –
राजनीतिक चेतना के साथ-साथ राजनीतिक प्रशिक्षण भी समय की आवश्यकता है। युवाओं को संविधान, लोकतंत्र, चुनाव प्रक्रिया, मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों की गहन जानकारी दी जानी चाहिए। इसके लिए शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में नागरिक शास्त्र और राजनीतिक विज्ञान को अधिक व्यावहारिक और संवादपरक बनाया जाना चाहिए। नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नियमित संवाद और कार्यशालाएं आयोजित करें। इससे युवाओं को राजनीति की जमीनी हकीकत का ज्ञान होगा और वे केवल टीवी डिबेट्स के मत से प्रभावित नहीं होंगे।

सामाजिक मीडिया की भूमिका –
आज के युग में सोशल मीडिया युवाओं का प्रमुख मंच बन चुका है। इसे केवल मनोरंजन और वक्तव्य देने का माध्यम न मानकर राजनीतिक जागरूकता का औज़ार बनाया जाना चाहिए। वैचारिक बहस, सरकारी नीतियों की समीक्षा, सार्वजनिक हितों से जुड़े अभियानों का प्रचार-प्रसार, याचिकाओं पर समर्थन — यह सब कुछ डिजिटल लोकतंत्र को सशक्त बना सकता है। हालांकि, इसके लिए साइबर-नैतिकता और तथ्यों की पुष्टि की प्रवृत्ति विकसित करना आवश्यक है। वरना यही माध्यम अफवाहों, नफ़रत और ध्रुवीकरण का मंच भी बन सकता है।

युवाओं से अपेक्षाएं –
भारत के भविष्य की दिशा इस पर निर्भर करती है कि आज का युवा किस दिशा में सोचता है और क्या भूमिका निभाता है। राष्ट्र को ऐसे युवाओं की आवश्यकता है जो केवल रोजगार की मांग न करें, अपितु रोजगार निर्माणकर्ता बनें; जो केवल आलोचक न बनें, अपितु रचनात्मक विपक्ष का दायित्व भी निभाएं। देश को वह युवा चाहिए जो विचारों में प्रखर हो, दृष्टिकोण में स्पष्ट हो और कर्म में अनुशासित हो। इसके लिए आवश्यकता है नेतृत्व क्षमता, वैचारिक दृढ़ता, संगठनात्मक कौशल और सामाजिक संवेदनशीलता की — और यह सब कुछ तभी संभव है जब युवाओं को संगठित कर उनमें राजनीतिक चेतना उत्पन्न की जाए।

निष्कर्ष –
राष्ट्र निर्माण केवल नीति-निर्माताओं, नौकरशाहों या जनप्रतिनिधियों का कार्य नहीं है। यह प्रत्येक नागरिक, विशेषकर युवाओं का दायित्व है। आज का भारत नवोन्मेष, तकनीकी क्रांति और वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है। इस यात्रा में यदि युवाओं की शक्ति, ऊर्जा और साहस को संगठित कर एक दिशा दी जाए, तो भारत केवल विकासशील नहीं, अपितु विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आ खड़ा होगा। राजनीतिक चेतना से युक्त, संगठित और सक्रिय युवा ही भारत के भविष्य के वास्तुकार बन सकते हैं। अतः अब समय आ गया है कि युवाओं को ‘साक्षर’ ही नहीं, ‘राजनीतिक रूप से जागरूक नागरिक’ भी बनाया जाए, तभी ‘विकसित भारत’ का स्वप्न साकार हो सकेगा।

  • मयंक मधुर वरिष्ठ राजनीतिक-रणनीतिक सलाहकार हैं।

 

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