Tuesday, November 4, 2025
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टेंडर की राजनीति: भ्रष्टाचार का बोलबाला और जनता का गला घोंटता तंत्र

40% रेट में कार्य की गुणवत्ता कैसी होगी, यह प्रश्न ही नहीं, एक चेतावनी है। जो ठेकेदार 100 रुपए के कार्य को 60 रुपए में करेगा, वह उसमें से 10% अधिकारियों की जेब में डालेगा। 15% अपना मुनाफा देखेगा और जो बचेगा उससे सरकारी भवन, पूल और सड़कें नहीं बल्कि जनता की उम्मीदों का श्मशान बनेगा।
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सहायक अभियंता से लेकर मुख्य अभियंता तक की सहमति के बिना कोई टेंडर फाइनल नहीं होता। फर्जी मापदंड, मनगढ़ंत तकनीकी रिपोर्ट और दस्तावेजों का खेल ही टेंडर प्रणाली की आत्मा को अपवित्र करता है।

स्वतंत्रता के 75 वर्षों के पश्चात् भी यदि सड़कें गड्ढों में समाई हों, पुल उद्घाटन के एक वर्ष के भीतर धराशायी हो जाएं, अस्पतालों की दीवारों से प्लास्टर झड़ता हो और स्कूल भवन निर्माण से पूर्व ही धूल में मिल जाएं, तो यह निश्चय ही देश के प्रशासनिक तंत्र की रीढ़ में समाए एक दीर्घकालिक और सुनियोजित भ्रष्टाचार का स्पष्ट प्रमाण है। टेंडर प्रक्रिया, जो किसी भी सार्वजनिक निर्माण कार्य की आत्मा होनी चाहिए, वह आज नीलामी का ऐसा अखाड़ा बन चुकी है जहाँ ठेकेदारों और अधिकारियों की साँठगाँठ से जनहित के प्रोजेक्ट ‘निजी लाभ’ की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिए जाते हैं।

“टेंडरिंग” का शाब्दिक अर्थ है, किसी कार्य को निष्पादन हेतु निविदा जारी कर उसे निष्पक्षता से पात्र संस्था को सौंपना। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर यह प्रक्रिया अब “लो-बोली” की होड़ बन गई है। बोलियों की होड़ में जब कोई ठेकेदार 30%–40% तक रेट घटाकर टेंडर भरता है, तो यह न सोचें कि वह समाजसेवा के लिए त्याग कर रहा है। वह यह जानता है कि, “बजट का जो हिस्सा कटेगा, वह लाल फीताशाही की जेब में जाएगा; जो बचेगा, उससे निर्माण नहीं, ‘समझौता’ होगा।”

40% रेट में कार्य की गुणवत्ता कैसी होगी, यह प्रश्न ही नहीं, एक चेतावनी है। जो ठेकेदार 100 रुपए के कार्य को 60 रुपए में करेगा, वह उसमें से 10% अधिकारियों की जेब में डालेगा। 15% अपना मुनाफा देखेगा और जो बचेगा उससे सरकारी भवन, पूल और सड़कें नहीं बल्कि जनता की उम्मीदों का श्मशान बनेगा।

यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कैसे एक ही जिले के अनेक टेंडरों को एक ही कंपनी या उसके मोहरे ठेकेदार जीतते हैं? जवाब स्पष्ट है—पूर्व निर्धारित सेटिंग। ठेकेदार और विभागीय अधिकारियों के बीच ‘मौन संधि’ होती है, जिसमें टेंडर से पूर्व ही निर्णय हो चुका होता है कि किसे कार्य मिलेगा और किसे बाहर किया जाएगा। सरकारी कार्यालयों की दीवारें आज कलम और फाइलों से नहीं, बल्कि “कमीशन की गणना” से चलती हैं।

सहायक अभियंता से लेकर मुख्य अभियंता तक की सहमति के बिना कोई टेंडर फाइनल नहीं होता। फर्जी मापदंड, मनगढ़ंत तकनीकी रिपोर्ट और दस्तावेजों का खेल ही टेंडर प्रणाली की आत्मा को अपवित्र करता है।

भ्रष्टाचार की परिणति केवल सरकारी धन के दुरुपयोग तक सीमित नहीं है। यह जनजीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। जब पुल गुणवत्ता के अभाव में गिरता है तो केवल कंक्रीट नहीं टूटता उसके साथ कई परिवारों की रीढ़ भी टूट जाती है। जब अस्पताल का निर्माण घटिया सामग्री से होता है, तो इलाज नहीं, संक्रमण की आशंका बढ़ती है। स्कूल भवन निर्माण में धांधली बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ है।

भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी ढाल है, राजनीतिक संरक्षण। चुनावों में खर्चे की भरपाई करने के लिए नेताओं को “कट” चाहिए और यह कट सीधे ठेकेदार से होकर ऊपर तक पहुंचता है। टेंडर घोटालों में कितने नेताओं पर आज तक कार्रवाई हुई? शायद गिने-चुने। क्योंकि कानून की किताबों में जिन धाराओं का उल्लेख है, वे केवल ‘छोटे कर्मचारियों’ पर लागू होती हैं, ‘बड़े सफेदपोशों’ पर नहीं।
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जनता ईमानदारी से टैक्स देती है । GST, Income Tax, Road Tax, Property Tax—कितनी तरह की कर व्यवस्था को वह सहर्ष झेलती है, केवल इसलिए कि बदले में उसे बुनियादी सुविधाएँ मिलें। लेकिन जब परिणाम में उसे टूटी सड़कें, आधे-अधूरे पुल, और जर्जर भवन मिलते हैं, तब उसकी आत्मा कराह उठती है। सरकारी तंत्र जनता को हर बार नई योजना का सपना दिखाता है, लेकिन उस सपने की नींव भ्रष्टाचार की दलदल पर रखी जाती है।

“भ्रष्टाचार कोई परछाईं नहीं, वह समाज की चुप्पी से पलने वाला राक्षस है। और जब तक जनता मुखर नहीं होगी, तब तक वह हर योजना को निगलता रहेगा।” अब सरकार को तय करना है, क्या वह अपनी योजनाओं का निर्माण ईमानदारी से करेगी, या उन्हें ठेकेदारों की बहीखातों में समर्पित कर देगी।

 क्या समाधान है इस सुनियोजित लूट का ?

1. ई-टेंडरिंग सिस्टम की पारदर्शिता:
हर टेंडर की प्रक्रिया को जनसामान्य के लिए ऑनलाइन लाइव किया जाए। सभी फाइलें, मूल्यांकन रिपोर्ट और चयन प्रक्रिया सार्वजनिक पोर्टल पर अनिवार्य हो।

2. ठेकेदार की न्यूनतम दर सीमा:
यदि कोई ठेकेदार 10% से अधिक रेट कम करता है, तो उसकी पात्रता स्वतः रद्द की जाए। गुणवत्ता की शर्तों को वरीयता दी जाए, न कि सबसे सस्ती बोली को।

3. जन निगरानी समिति:
प्रत्येक सार्वजनिक निर्माण परियोजना के लिए स्थानीय नागरिकों, पत्रकारों और इंजीनियरिंग विशेषज्ञों की स्वतंत्र समिति बने जो काम की सतत निगरानी करे।

4. भ्रष्ट अधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई:
केवल निलंबन नहीं—एफआईआर दर्ज कर त्वरित चार्जशीट और अदालत में निष्पक्ष ट्रायल हो। कोई भी अधिकारी कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए।

5. ‘व्हीसल ब्लोअर प्रोटेक्शन’ और प्रोत्साहन:
जो कर्मचारी या आम नागरिक भ्रष्टाचार उजागर करे, उसे सरकारी सुरक्षा और पुरस्कार मिले।

* मयंक मधुर
(जनचिंतक, सामाजिक विश्लेषक एवं प्रखर लेखक)

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