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रिव्यू : लीक से हटकर फिल्म है ‘‘शाहीन बागी’’

डिजिटल दौर में भारतीय सिनेमा का नया स्वरूप देखने को मिल रहा है। मुख्यधारा की फिल्मों से उब चुके दर्शक अब ओटीटी प्लेटफार्म पर बेहतर सिनेमा की तलाश करते दिखते हैं। दर्शक अब लीक से हटकर फिल्में देखना पसंद करते हैं। दर्शकों का फिल्मों के प्रति बदलते नजरिये को कई फिल्म निर्देशकों ने भांप लिया और उसी के अनुरूप फिल्में बनाना शुरू कर दिया है। मनोरंजन के साथ वास्तविक तथ्यों एवं सच्ची घटनाओं पर पहले भी फिल्में बनती रही है। लेकिन ओटीटी के नये चलन सेे पुराने ढर्रे बहुत कम समय में बहुत पीछे छूटते दिख रहे हैं। छोटी डयूरेशन वाली फिल्में बड़े-बड़े संदेश देने का काम कर रही हैं।

हाल ही में ओटीटी प्लेटफॉर्म एमएक्स प्लेयर पर फिल्म ‘शाहीन बागी’ रिलीज हुई है जो देश के ज्वलंत मुद्दों की तरफ इशारा करती है। यह लीक से हटकर फिल्म है और उम्दा कंटेट और डायरेक्शन की वजह से काफी सुर्खियां बटोर रही है। फिल्म के प्रति दर्शकों की प्रतिक्रिया सकारात्मक है।

निर्देशक एम. मलिक ने फिल्म ‘‘शाहीन बागी’’ के माध्यम से समाज की उस सोच को सामने लाने का प्रयास किया है जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हमेशा घटित होती रहती है। यह फिल्म समाज की वास्तविकता के इर्द-गिर्द घूमती है।

इस देश में सदियों से यही होता रहा है कि समाज मे अपना प्रभुत्व रखने वाले सामंती लोग दलितों को दबाने की कोशिश करते रहे हैं। फिल्म शाहीन बागी में कहानी एक राजू नाम के युवा लड़के की है जो दलित समाज से है। उसका परिवार लोहे का सामान (बर्तन) बनाने का काम करता है। यह उसका पुश्तैनी पेशा है। लेकिन राजू की चाहत अलग है। वह कुछ अलग करना चाहता है। वह शोहरत पाना चाहता है।

राजू गांव के ही एक बैन्ड में गाता-बजाता है। युवा वर्ग में उसकी लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है। लड़कियां राजू की स्मार्टनेस और उसके गाने की दीवानी हो जाती है। जिसे देखकर लोग राजू से जलने लगते हैं। वह छोटे से गांव से निकलकर बड़े शहर में अपनी प्रसिद्धि का झंडा गाड़ना चाहता है। अपने दोस्तों के साथ मिलकर अब वह अपना अलग बैंड चलाता है। लेकिन सामंती लोगों की नजर में राजू चुभने लगता है। इसलिए उसे बैन्ड बजाने से रोकने के लिए पंचायत बैठायी जाती है।

समाज में युवाओं को बिगाड़ने एवं बैंड की आवाज से अजान में खलल पड़ने का हवाला देकर पंचायत द्वारा बैन्ड बंद करने का फरमान सुनाया जाता है। इतना ही नहीं राजू को उस गांव को भी छोड़कर जाना पड़ता है।  दूसरी ओर सड़क बनाने के नाम पर करीब 17 गांव खाली करने का आदेश जारी होता है जिनमें सभी गांव दलितो के हैं। राजू का गांव भी उसमें शामिल है। दलित अपने पुरखों की जमीन नहीं छोड़ना चाहते। दलितों को उनकी जमीन से बेदखल करने के लिए साजिश और सियासत दोनों चालें चली जाती है।

उसी दौरान आस-पास के गांव में रहने वाले मुस्लिम वर्ग अपनी जमीन और अपनी पहचान के लिए पुख्ता कागज तैयार कर रहे होते हैं। देश में सीएए और एनआरसी लागू किये जाने के बाद मुसलमान अपने वजूद को तलाशते फिर रहे हैं। दोनों अपनी-अपनी समस्याओं में एक समानता देखते हैं कि उन्हें कागजी तौर पर खुद को साबित करना है।

उसके बाद शाहीन बाग आंदोलन जैसा परिदृश्य देश में उभरता है। पॉप बैन्ड चलाने वाला राजू भी शाहीनबाग आंदोलन में शामिल हो जाता है। वह भी उस भीड़ का हिस्सा बन जाता है जहां लोग सरकार से सीएए और एनआरसी कानून को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। इस आंदोलन में राजू की मौत हो जाती है। सीएए को लेकर इस देश का मुसलमान क्या सोचता है, इस फिल्म इसे बखूबी चित्रित किया गया है।

जाने माने थियेटर आर्टिस्ट संदीप करतार सिंह ने इस फिल्म में एक दलित युवक का रोल निभाया है। उन्होंने अपने उम्दा किरदार से इस फिल्म में जान डालने की कोशिश की है। सच कहा जाये तो इस फिल्म का मुख्य चेहरा ही संदीप करतार सिंह हैं। फिल्म में राजू के किरदार में संदीप करतार सिंह कई शेड में दिखे। एक सामान्य ग्रामीण युवा, फिर बैन्ड बजाने वाला और फिर अंत में अम्बेडकर की बात करते हुए अपने अधिकारो के प्रति सजग युवा के किरदार में, संदीप करतार सिंह ने दर्शकों को अपने दमदार अभिनय से फिल्म के अंत तक बांधे रखा। इस फिल्म में कई मर्मस्पर्शी चित्रण हैं।

अन्य किरदारों में प्रियंका शर्मा, सलीम शाह, रईश अमरोही, गुलशन वालिया, गजेन्द्र राठी और भूपेन्द्र त्यागी की भूमिका सराहनीय है। निर्देशक एम. मलिक द्वारा देश के वर्तमान हालातों को फिल्मों के माध्यम से बयां करने की एक सार्थक कोशिश की गई है।

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