Thursday, May 22, 2025
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‘तांडव’ के निर्माता-निर्देशक को सुप्रीम कोर्ट की नसीहत, ”अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं”

फिल्में, टीवी सीरियल, वेब सीरीज, कॉमेडी, नाटक आदि मनोरंजन और संदेश का माध्यम बनना चाहिए, विवाद का नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लोग माइंडसेट है और देश में जान बूझकर विवाद उत्पन्न करना चाहते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दूसरों की भावनाएं, परम्परा, आस्था और समरसता को तार-तार करने वालों को पहली बार सुप्रीम कोर्ट से झटका मिला है। सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य राज्यों में तांडव टीम के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रोकने एवं रद्द करने पर असहमति जाहिर कर दी है। तांडव की टीम को संबंधित थानों में जाकर हाजिरी देनी होगी जहां उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुए हैं।

हाल ही में ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजॉन पर रिलीज हुई वेब सीरीज ‘तांडव’ को लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन किये जा रहे हैं। देश के कई राज्यों में तांडव की टीम पर एफआईआर दर्ज हो चुके हैं, जबकि तांडव के निर्देशक अली अब्बास जफर के मुंबई आवास पर यूपी पुलिस ने नोटिस चस्पा कर दिया है और उन्हें हर हाल में लखनऊ के हजरतगंज थाने में हाजिरी देनी है।

इससे बचने लिए एवं एफआईआर पर रोक लगाने के लिए तांडव के निर्माता-निर्देशक की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी। जिसपर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं बल्कि प्रतिबंधों के दायरे में है। न्यायमूर्ति अशोक भूषण की खंडपीठ ने तांडव की टीम के खिलाफ एफआईआर को समाप्त करने पर असहमति जाहिर दी है। सुनवाई के दौरान कोर्ट की ओर से कहा गया कि निर्माता-निर्देशक को एफआईआर को समाप्त करने के लिए संबंधित उच्च न्यायालयों में जाना चाहिए।

तांडव की टीम की ओर से दलील दी गई थी कि उन्हें बेवजह परेशान किया जा रहा है। दलील यह भी दी गई कि सरकार एवं विभिन्न संगठनों की मांग पर वेब सीरीज से आपत्तिजनक दृश्य हटा दिये गये हैं। लेकिन उनकी एक भी दलील न सुनते हुए खंडपीठ ने विभिन्न न्यायालयों में जाकर उन्हें अपनी व्यथा सुनाने की सलाह दी है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तांडव की टीम को कोई राहत नहीं मिलने वाली है।

वेब सीरीज ‘तांडव’ के पहले एपिसोड में ही हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ और यूपी पुलिस की गलत छवि दिखाकर तांडव के निर्माता-निर्देशक ने बेवजह आफत मोल ले ली। यहां तक की सीरीज के एक दृश्य में जातिगत टिप्पणी करने पर एससी/एसटी एक्ट के तहत तांडव की टीम को आरोपी बनाया गया है।

तांडव के निर्देशक अली अब्बास जफर ने सबसे सस्ता माध्यम अपनाया कि इस सीरीज को धार्मिक और जातिगत उन्माद की चासनी में लपेट दो। विवाद होने पर लिबरल, वामपंथ और सो कॉल्ड बुद्धिजीवी का बिन मांगे समर्थन हमेशा की तरह मिलना तय है। फिर जो होगा देखा जाएगा। लेकिन अब सब कुछ उल्टा होता दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट की इस नसीहत से यकीन मानिए, आने वाले दिनों तांडव की टीम की मुश्किलें बढ़ने वाली है और उन्हें यह सबक मिलना भी चाहिए। जब उनकी खुद पर आई तो वह सुप्रीम कोर्ट जाकर अपनी अभिव्यक्ति और आत्म रक्षा की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन देश की असंख्य जनता की भावनाओं को रौंदना तो इनकी आदत बनती जा रही है।

बॉलीवुड ने मनोरंजन के बहाने समरसता को बिगाड़ने में कोई कसर छोड़ी है, जबकि धार्मिक और साम्प्रदायिक विवाद तो फिल्म के लिए फायदे का सौदा हो जाता है। दर्शक न चाहते हुए भी उसे एक बार जरूर देखना चाहता है कि विवाद की वजह क्या है, और यही इनका एजेंडा भी है।

इंटरटेनमेंट के नाम पर पहले भी ऐसा होता रहा है, मुकदमा दर्ज किये जाते रहे हैं। फिल्मों की कंटेट और फिल्मांकन को रिलीज से पहले देखने और विवादित लगने वाली सीन पर कैंची चलाने के लिए देश में सेंसर बोर्ड स्थापित है, लेकिन इस बोर्ड के अध्यक्ष और इसके सदस्य गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं। जैसी केन्द्र की सरकार वैसे इनके तेवर।

रचनात्मकता के नाम पर ओटीटी प्लेटफार्म पर अश्लीलता और फूहड़पन तो पहले से ही भरे पड़े है। क्योंकि वेबसीरीज की कंटेट पर लगाम के लिए देश में अब तक कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं की गई है। इसी का फायदा उठाकर अली अब्बास जफर ने तांडव के माध्यम से धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाकर एक राष्ट्रीय विमर्श और एक कठोर कानून बनाये जाने का रास्ता आसान कर दिया है, जिसकी मांग बहुत पहले से की जा रही है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने भी इसपर संज्ञान लेते हुए कहा था कि ओटीटी सहित तमाम डिजिटल माध्यमों को एक सर्कुलर के दायरे में लाने पर सरकार को कदम उठाना चाहिए।

देशभर में हो रहे विरोध के बीच तांडव वेब सीरीज से वह सीन हटा दिये गये, लेकिन जो होना था वह हो चुका। उन्हें किसी की आस्था का मजाक उड़ाना था, जातिगत विद्वेष पैदा करना था, इसलिए उन्होंने ऐसा किया। तांडव के निर्माता-निर्देशक को सीरीज के माध्यम से देश भर में जो संदेश पहुचाना था, वह तो पहुंच गया। इसलिए अब उस सीन को हटा देने से भी क्या फर्क पड़ने वाला है।

ऐसा पहले भी होता रहा है और अब तो डिजिटल माध्यम किसी का मजाक उड़ाने और बेवजह विवाद पैदा करने का हथियार बनता जा रहा है। सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए और अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए कुछ लोग दूसरे की भावनाओं का भी ख्याल नहीं रख पाते।

जब इनकी गिरफ्तारी की बात आती है तो टीवी चैनलों एवं अन्य माध्यमों से इस बात पर बहस छिड़ जाती है कि, क्या इस देश में किसी व्यक्ति को इतनी भी आजादी नहीं है वह अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सके।

देश के जाने-माने धर्मगुरू आचार्य विक्रमादित्य कहते हैं- फिल्में, सीरीज, कॉमेडी, शायरी एवं अन्य माध्यमों का सहारा लेकर कुछ लोग एजेंडानिहित काम कर रहे हैं। जब तक उनपर ठोस कानूनी कार्रवाई नहीं होगी तब तक ऐसे मामले सामने आते रहेंगे। क्योंकि दूसरों की भावनाओं को ठेंस पहुंचाना ही उनका मुख्य उद्देश्य है। अब तो सार्वजिनक आयोजनों में भी कॉमेडी और शायरी के नाम पर देश में वैमनस्य बढ़ाने का काम किया जा रहा है। उन्हें यही लगता है कि कुछ दिन बाद सबकुछ शांत हो जायेगा और ऐसा ही होता रहा है।

ऐसे लोग जब कानूनी लफड़े में फंसते दिखते हैं अथवा उनपर गिरफ्तारी की तलवार लटकती है तो, उनकी हालत इस तरह हो जाती है, जैसे कोई बच्चा टीचर की मार के डर से अपनी गलतियों पर बार-बार माफी मांगता हो कि अब दोबारा ऐसा नही होगा। लेकिन कुछ दिनों बाद उसी तरह की घटनायें फिर सामने आती हैै।

बहरहाल, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दूसरों की भावनाएं, परम्परा, आस्था और समरसता को तार-तार करने वालों को पहली बार सुप्रीम कोर्ट से झटका मिला है। तांडव की टीम को संबंधित थानों में जाकर हाजिरी देनी होगी जहां उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें संबंधित राज्यों के हाईकोर्ट जाने की सलाह दी है तो इससे यह भी संकेत मिलते हैं कि अब यह मामला हाईकार्ट में ही निपटेगा और इस मामले में तांडव टीम के लिए सुपीम कोर्ट का दरवाजा शायद बंद हो गया। अब देखना यह है कि इस मामले पर उच्च न्यायालयों से तांडव की टीम को राहत मिल पाती है या नही।

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