तालिबान: जहां मानवाधिकार की बात करना कुफ्र है
1 min readअफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होते ही लोग घर छोड़कर भाग रहे हैं। काबूल एयरपोर्ट पर भीड़ को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वहां के वास्तविक हालात कैसे होंगे। आतंकियों के डर से अफगानिस्तान में जहां-तहां फंसे लोग अपने घर लौटना नहीं चाह रहे हैं। तालिबानियों ने अफगानिस्तान में शरिया कानून के तहत जीने की शर्ते लागू कर दी है। महिलाओं और लड़कियों को बुर्कानशीं कर दिया है। उन्हें घरों से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। अफगानिस्तान में कार्यरत सीएनएन की एक महिला रिपोेर्टर को हिजाब पहनने पर मजबूर कर दिया गया। मौत का मंजर और लोगों के चेहरे पर खौफ के साये, जिसे पूरी दुनिया एक तमाशबीन बनकर देख रही है और इसी में कुछ देश अपना फायदा भी ढूंढ रहे हैं। महाशक्ति देशों का एक बड़ा संगठन (यूएन) और दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय संगठन जो विश्व में मानवाधिकार की वकालत करते हैं। सवाल यह है कि, लोकतांत्रिक देश में छोटी-छोटी घटना पर पैनी निगाह रखने वाले ये मानवाधिकार के पैरोकार आज कहां हैं?
आतंकी संगठन तालिबान का अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा हो गया है। दो दशक पहले अस्तित्व में आया तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए अमेरिकी सेना के जाने का इंतजार कर रहा था। अमेरिका के नये राष्ट्रपति जो बिडेन ने अमेरिकी सेना को मध्य सितम्बर तक अफगानिस्तान से वापस बुलाने का ऐलान किया था।
अब अमेरिका की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही है। पिछले बीस साल से अमेरिकी सेना जिस काम के लिए अफगानिस्तान मे डटी रही उसके जाते ही इतनी जल्द अफगानिस्तान पर तालिबान फतह कर लेगा और अफगानिस्तान का ऐसा हश्र हो जायेगा इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी।
बिडेन प्रशासन के खिलाफ अमेरिका में नारेबाजी हो रही है। बिडेन सरकार की विदेश नीति को वहां के लोग ही भर्त्सना कर रहे हैं। अमेरिकी जनता का यहां तक कहना है कि अगर वर्तमान में ट्रम्प की सरकार होती तो आज की स्थितियां कुछ और होती। क्योंकि ट्रम्प कड़े फैसले लेने के लिए भी जाने जाते थे। दूसरी बात की तालिबान ऐसा करने की हिमाकत ही नहीं करता। क्योंकि तालिबान को इतना जरूर पता है कि वर्तमान की अमेरिकी सरकार की नीतियां ट्रम्प सरकार की नीतियों से बहुत अलग है। वर्तमान अमेरिकी सरकार आतंकियों और वैश्विक मुद्दों पर नरम है।
जब दुनिया में सिरमौर बनने का और अपनी चौधराहट दिखाने का शौक है तो फिर मैदान क्यों छोड़ रहे हो? अमेरिका की लिबरल पॉलिसी का फायदा अन्य देशों में भी आतंकी संगठन उठायेंगे। अफगानिस्तान में फंसी अमेरिकी सेना को निकालने के लिए बिडेन प्रशासन ने छह हजार स्पेशल आर्मी को भेजने का फैसला किया है।
तालिबानियों के खौफ से लोग घर छोड़कर भाग रहे हैं। अफगानिस्तान स्थित विश्व के कई देशों के दूतावास में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों को उनकी सरकारें वहां से निकालने में जुटी है। क्योंकि अभी कई देशों के लोग वहां फंसे हुए हैं।
काबूल एयरपोर्ट पर तालिबानियों का कब्जा होने से किसी देश की विमान को वहां उतरने से रोका जा रहा है। इस हाल में वहां फंसे नागरिकों को कूटनीतिक तरीके से निकालने की कोशिशें जारी हैं। भारत सरकार ने भी अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास में कार्यरत अधिकारियों, कर्मचारियों और अपने नागरिकों को वापस बुला लिया है।
अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होते ही सड़कों पर एक-47 से गोलियों की तड़तड़ाहट, मौत का मंजर, लोगों के चेहरे पर खौफ के साये। ये सभी आधुनिक युग में इस्लाम के नाम पर हो रहा है जिसे पूरी दुनिया एक तमाशबीन बनकर देख रही है और इसी में कुछ देश अपना फायदा भी ढूंढ रहे है। जिनमें पाकिस्तान और चीन का नाम सबसे उपर है।
आतंकवाद पर हमेशा ही पाकिस्तान-तालिबान का साथ देने वाले देशों ने आज चुप्पी साध ली है।
यहां तक कि अफगानिस्तान से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे लोगों के लिए पाकिस्तान, तुर्की, चीन, मलेशिया जैसे देशों ने अपनी सीमाओं सील कर दी है। इन देशों ने अफगानों को एक शरणार्थी के रूप में रखने से साफ तौर पर इंकार कर दिया है। टर्की ने तो हद ही कर दी। पूरी दुनिया के मुसलमानों का हमदर्द बनने वाला तुर्की का राष्ट्रपति अर्दोगन ने अपनी सीमा पर दीवाल बनाने के आदेश दिये हैं ताकि कोई भी अफगानी उनकी सीमा में घुसपैठ नहीं कर सके।
अफगानिस्तान छोड़कर भागने वाले ज्यादातर मुसलमान हैं। अफगानिस्तान में गैर मुस्लिमों की संख्या बहुत कम है। तालिबानियों ने अफगानिस्तान में शरिया कानून के तहत जीने की शर्ते भी लागू कर दी है। लड़कियों को बुर्कानशीं कर दिया है। अफगानिस्तान में कार्यरत सीएनएन की एक रिपोेर्टर को हिजाब पहनने पर मजबूर कर दिया गया। उसी संदर्भ में भारत की जानी मानी पत्रकार रूबिका लियाकत की एक ट्वीट सुर्खियों में है। जिन्होंने कहा कि उन्हें गर्व है कि वह एक भारतीय मुस्लिम हैं। अगर वह अफगानिस्तान में होतीं तो ये आतंकी मुझपर जीने की शर्ते लागू करते।
यह मानवाधिकार का पतन है। कोई क्या करेगा क्या नहीं करेगा। क्या पहनेगा, क्या नहीं पहनेगा। यह व्यक्तिगत मामला है। इन तालिबानी आतंकियों को हथियार तो अत्याधुनिक चाहिए लेकिन सोच में जरा भी तब्दीली नही आयी है। बंदूक के बल पर अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा करने वाले इन आतंकियों से शांति और सौहार्द की उम्मीद बेमानी है। इसीलिए जान बचाकर लोग वहां से भाग रहे हैं। भाग रहे लोगों पर गोलियां बरसाकर इन आतंकियों ने मानवता को रौंदने की सारी हदें पार कर दी है। आतंकियों के डर से अफगानिस्तान में जहां-तहां फंसे लोग अपने घर लौटना नहीं चाह रहे हैं।
काबूल से भागने के लिए लोग बसों की तरह प्लेन में लटक गये। इसी कारण जहाज से गिरकर कुछ लोगों की मौत हो गई है। एयरपोर्ट की हालत बस स्टैड और रेलवे स्टेशनों की भीड़ से भी बदतर दिख रही है। 75 हजार तालिबानी आतंकी तीन लाख अफगानी सेना और वहां के 4 करोड़ लोगों पर भारी पड़ गये। अत्याधुनिक हथियारों से लैस ये पाजामाधारी आतंकी अफगानिस्तान के लोगों में खौफ भरना चाह रहे हैं। इसलिए बंदुक की नली से निकलने वाली गोली से अफगानिस्तान में चारो तरफ चीख और चित्कार सुनने को मिल रही है। अफगानिस्तान में तालिबानियों के खौफ से लोग घर छोड़कर भाग रहे हैं। तालिबानी आतंकी घरों में घुसकर लड़कियों को बंदूक की नोक पर उठाकर ले जा रहे हैं । जो विरोध कर रहा है उसे ये आतंकवादी गोली मार दे रहे है।
महाशक्ति देशों का एक बड़ा संगठन (यूएन) और दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय संगठन जो विश्व में मानवाधिकार की वकालत करते हैं। सवाल यह है कि, लोकतांत्रिक देश में छोटी-छोटी घटना पर पैनी निगाह रखने वाले ये मानवाधिकार के पैरोकार आज कहां हैं ? भारत में सामान्य और आंतरिक मुद्दों को भी अतर्राष्ट्रीय मसला बना देने वाले इन मानवाधिकार संगठनों की बोलती बंद क्यों है?
ज्यादा दिन नही हुए हैं, जब ग्रेटा थनवर्ग और रिहाना जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों को भारत के कृषि कानूनों की फिक्र होने लगी थी और सड़क पर बैठे इन एजेंडाधारी किसानों को लेकर भारत की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धूमिल की जाने लगी थी। वहीं जम्मू कश्मीर से 370 हटने पर कश्मीरियों के मानवाधिकार हनन की बात करने वाली मलाला युसूफजई खामोश हैं। अब इनका सांप सूंघ गया है। कश्मीरियों के मानवाधिकार की चिंता इन्हें ज्यादा सताती है, लेकिन अफगानिस्तान के लोगों के साथ कत्लेआम, तालिबानी आतंकियों द्वारा लड़कियों के साथ बलात्कार और उन्हें घरों से उठाकर ले जाने पर भी ये सभी चुप हैं। तालिबानी आतंकियों ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन सीएनएन की रिपोर्टर को हिजाब में ढंक दिया, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। तालिबान ने अफगानिस्तान को बर्बर मध्यकालीन युग में पहुंचा दिया, फिर भी तालिबानियों को लेकर कई लोगों द्वारा तारीफ के कसीदे पढ़े जा रहे हैं और उन्हें इस्लाम का सच्चा सिपाही बताया जा रहा है।
भारत में भी कई ऐसे चेहरे अब सामने आ चुके हैं जो तालिबानियों की खुलकर तारीफ कर रहे हैं। यहां तक कि उन बर्बर आतंकियों को धन्यवाद का पैगाम भेज रहे हैं जो बच्चे-बूढ़े, लड़कियों, महिलाओं और बीमार लोगों पर भी कोई रहम नहीं दिखा रहा है। टीबी डिबेट में तालिबान का डिफेंड करने वाले भारत के सेक्युलर वुद्धिजीवियों और मुसलमानों से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि अगर यह शांति और बिना खून-खराबे के किया गया तख्ता-पलट है तो उनकी नजर में हिंसा की परिभाषा क्या होगी ?