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अभिव्यक्ति की आजादी पर पूर्वनिर्धारित मानदंडों में बदलाव की दरकार

भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपुर शर्मा द्वारा पैगम्बर मोहम्मद के संदर्भ में दिये गये बयान ने मोदी विरोधियों को एक संजीवनी प्रदान कर दी है। बीजेपी के खिलाफ देशभर मेें प्रदर्शन किये जा रहे है। देश के कई राज्यों में इसकी प्रतिक्रिया देखी जा रही है। शहर-दर शहर दंगाई सरकारी संपत्तियों को नष्ट कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कानुपर से शुरू हुआ यह दंगा अगले अगले शुक्रवार तक आते-आते कई राज्यो में फैल गया।

तय है कि कोई न कोई संगठन इसे लीड कर रहा। पुलिस छोटी-छोटी मछलियों को पकड़ रही है। लेकिन ऐसा लगता है कि पर्दें के पीछे देश के खिलाफ एक गहरी साजिश रची जा रही है, और इस खेल का रिमोट किसी और के हाथ मे है। वह सियासी चेहरा भी हो सकता है या सीमा पार बैठा आतंकी भी। लेकिन इसमें दोमत नहीं कि उसे भारत के अंदर धार्मिक उन्माद फैलाने वालों का जबरदस्त समर्थन मिल रहा है।

इसपर सियासी चाल चलने वाले अपना फायदा उठाना चाह रहे हैं और देश को नुकसान पहुंचाने की फिराक में बैठे आतंकी संगठन भटके हुए मुसलमानों से अपना हित साध रहे हैं। लेकिन भारत का विकास चाहने वाले लोग इन दोनों से परेशान हैं। अब समय आ गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर फिर से विचार किया जाना चाहिए। इसे फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। आप अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी के धर्म, मजहब, आस्था, रीति रिवाजों, परम्पराओं का मजाक उड़ाने का एक चलन बन गया है।

संसद द्वारा मान्य भाषायी स्तर पर इसे कैटेगराइज करने की जरूरत है कि क्या सही है और क्या गलत है। इसका चयन किया जाना जरूरी है किन शब्दोें से किसी की आस्था को चोट पहुंच सकती है, किसी की धार्मिक भावना आहत हो सकती हे। लेकिन समस्या यह है कि इस गलत और सही का घालमेल हो गया है। पार्टी, सम्प्रदाय, पंथ इसी घालमेल का गलत फायदा उठा रहे है। जो गलत है वह सभी के लिए गलत है। लेकिन पार्टीगत विचारधारा इसपर अलग-अलग दिखती है। विरोध ही करना है तो सबका करो।

अधिकांश राजनीतिक दलों में दो-चार ऐसे चेहरे मिल जायेंगे जो दूसरों की आस्था और धार्मिक मान्यताओं का मजाक उड़ाने मंें जरा भी संकोच नहीं करते। जब विवाद बढ़ता है तो पार्टी नेतृत्व या पार्टी के शीर्ष नेता यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि यह उनका निजी विचार हो सकता है। पार्टी का इससे कोई लेना देना नहीं है। आज के डिजिटल युग में कई नेताओं के विवादित बयान पब्लिक डोमेन मे हैं।

भाजपा नेतृत्व की तारीफ करनी चाहिए कि नुपुर शर्मा को उनके बयान को लेकर पार्टी से बाहर निकाल दिया। बयानबाजी को लेकर किसी प्रवक्ता को पार्टी को निष्कासित करने वाली शायद यह पहली पार्टी होगी।
जबकि दूसरे दल तो अपने प्रवक्ता के बचाव में उतर जाते हैं। यह दोहरा रवैया आज देश के लिए घातक साबित हो रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर दोहरा मानदंड क्यों। इस देश में जब कोई राम सीता का मजाक उड़ाता है, हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीर उकेरता है, सड़कछाप कॉमेडियन दर्शकों से भरी ऑडिटोरियम में देवी देवताओं पर फब्तियां कसता है, सनातन आस्था और मान्यताआंें पर चोट पहुचाता है, तो उसपर तालियां बजती है। उसके पक्ष में यह कहा जाता है कि कि वह तो कलाकार है। वह रचनाधर्मी प्रयोग कर सकता है। यह तो उसकी क्रिएटिविटी है।

वैसे सड़कछाप कॉमेडियन, शो कॉल्ड आर्टिस्ट को राजनीतिक दलों का संरक्षण प्राप्त हो जाता है। उसकी ब्रांडिंग शुरू हो जाती है। उनके शो के लिए पार्टी विशेष सहयोग प्राप्त होता है। उन्हें पार्टीगत शीर्ष पदों से नवाजा जाता है। भीड़ इकट्ठा करने के लिए उन्हें पार्टी का चेहरा बनाया जाता है। यही कारण है कि वेसे लोग किसी की आस्था पर चोट पहुंचाना अपना मौलिक अधिकार समझते है।

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी को भी किसी की आस्था पर चोट पहुंचाने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। अब समय आ गया कि फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के दायरे में तयशुदा मानदंडों को हटाकर नये मानदंड स्थापित किये जायें। ताकि कोई किसी की आस्था का मजाक नहीं उड़ाये। उन राजनीतिक दलों को भी इसपर गौर करना चाहिए कि ऐसे लोगों को ब्रांडिंग नहीं करें। उन्हंें राजनीतिक संरक्षण प्रदान नहीं किया जाना चाहिए।

देश के कुछ नेता ऐसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण देने लगते हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश को तोड़ने की बात करते है। उनके बयान और पड़ोसी देशों के बयान में कोई अंतर नहीं दिखता है। देश के खिलाफ साजिश में उनकी संलिप्तता उजागर होती हैं।

अब समय आ गया है एक बड़ी लकीर खींचने का। वक्त की नजाकत को समझते हुए केन्द्र सरकार को इसपर अमल करना चाहिए। ताकि भारत का कोई भी नागरिक अभिव्यक्ति के नाम पर उस लकीर को क्रॉस नहीं कर सके। कार्रवाई ऐसी की जानी चाहिए कि अभिव्यक्ति राग अलापने वाले अपने अधिकारों के साथ-साथ संवैधानिक कर्तव्यों को भली भांति समझ जाये।

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