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हिन्दुत्व को दरकिनार करने की कीमतः विघटन की राह पर मजबूत राजनीतिक विचारधारा की एक पार्टी

शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा ही उसकी मूल पूंजी रही है। हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना शिवसेना की राजनीति का मूल आधार है, जो बाला साहब ठाकरे से होते हुए उद्धव ठाकरे के नेतृत्व तक पहुंचा। लेकिन उद्धव ठाकरे उस विचारधारा को, राजनीतिक विरासत की उस थाती को आत्मसात करने में असफल रहे, जिस पार्टी का राजनीतिक सफर ही हिन्दुत्व के साथ शुरू हुआ था। शिवसेना का भले ही महाराष्ट्र के बाहर बड़ा जनाधार नहीं है, लेकिन अपनी विचारधारा के बल पर राष्ट्रीय पार्टियों को हमेशा टक्कर देती रही है। महाराष्ट्र में शिवसेना का मजबूत कैडर वोट है और वह आने वाले समय में शिंदे गुट में ट्रासंफर हो सकता है।  बहरहाल, भारत में पहली बार हिन्दुत्व को लेकर किसी राज्य की सरकार गिरी है। 

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हिन्दुत्व विचारधारा से साथ 1966 में अस्तित्व में आई शिवसेना में दो फाड़ हो गया है। यहां तक कि उद्धव ठाकरे नेतृत्व शिवसेना का अस्तित्व भी खतरे में है। क्योंकि बागी एकनाथ शिंदे गुट शिवसेना के सिंबल पर भी दावा ठोकने जा रहा है। 40 विधायक टूटने के बाद अब खबर है कि शिवसेना के 12 सांसद भी बागी गुट में शामिल होने जा रहे हैं। वहीं ठाणे नगर निगम के शिवसेना के 67 पार्षद में से 66 पार्षद शिंदे गुट में शामिल हो गये हैं। जबकि नवी मुंबई नगर निगम के कई पार्षदों और पूर्व पार्षदों के सहयोग शिंदे गुट को मिलने की खबर है।

शिवसेना अध्यक्ष और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। राजनीतिक पार्टियों में बागी नेताआंें द्वारा किया जाना बगावत सामान्य बात हैं। लेकिन शिवसेना में यह मामला बगावत से दो कदम आगे निकल चुका है। शिंदे गुट द्वारा पार्टी पर कब्जा करने की रणनीति बनायी जा रही है। इसमें शिंदे गुट को शिवसेना के कैडरों का भरपूर समर्थन मिलता दिख रहा हैै। उद्धव ठाकरे को उन वजहों को भी जानकर अब कोई फायदा नहीं होने वाला है कि यह सब कैसे हो गया। जब समय था तब उन्होंने किसी की सुध नहीं ली। महाराष्ट्र में शिवसेना-कांग्रेस और एनसीपी की महाराष्ट्र अघाड़ी की सरकार बनने के बाद उद्धव ठाकरे पार्टी नेता और कार्यकर्ताओं से छह-छह महीने नहीं मिल पाते थे। जब शिवसेना के नेताओं-कार्यकर्ताओं का सब्र का बांध टूट गया तो उन्होंने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया।

यह सब अचानक नहीं हुआ है। 2019 से पनपे गतिरोध और अंतर्विरोध का परिणाम है कि उद्धव ठाकरे के पास बचाने के लिए शायद कुछ नहीं बचे। स्पष्ट है कि पार्टी की जड़ें हिल चुकी है और आने वाले समय में उद्धव ठाकरे को कई चुनौतियोें का सामना करना पड़ सकता है। इन सभी हालातों के लिए शिवसेना के वर्तमान अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्योंकि वह बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को सहीं तरह से संभाल पाने में नाकाम रहे। उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता के कारण एक मजबूत क्षेत्रीय पार्टी का विघटन शुरू हो गया है। उद्धव ठाकरे ने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है। वह वाया एमएलसी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनाये गये थे। उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते ही एमएलसी पद से भी इस्तीफा दे दिया। विदित हो कि, 2019 में महाराष्ट्र की सत्ता से बीजेपी को बाहर रखने के लिए उद्धव ठाकरे के सबसे नजदीकी माने जाने वाले संजय राउत ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर एक नया सियासी समीकरण बना दिया था। जबकि महाराष्ट्र में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और शिवसेना बीेजेपी के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ी थी।

महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी की सरकार तो बन गई, लेकिन तीनों पार्टियों की विचाराधारा अलग होने के कारण उद्धव ठाकरे के कार्यकाल के दौरान कई बार वैचारिक मतभिन्नता उभकरकर सामने आई जो सियासी गलियारों में चर्चा का विषय भी बनी।  शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा ही उसकी मूल पूंजी रही है। शिवसेना का भले ही महाराष्ट्र के बाहर बड़ा जनाधार नहीं है, लेकिन अपनी राजनीति विचारधारा के बल पर राष्ट्रीय पार्टियों को हमेशा टक्कर देती रही है। महाराष्ट्र में शिवसेना का मजबूत कैडर वोट है और वह आने वाले समय में शिंदे गुट में ट्रासंफर हो सकता है।

बाला साहब ठाकरे ने जिन पाटिर्यो को राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था, उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने उनकी वैचारिक विरासत को खूंटी में टांगकर कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में सरकार बना ली। पार्टी में गतिरोध और अंतर्विरोध की शुरूआत यहीं से हुई। क्योंकि उद्धव ठाकरे पार्टी की विचाराधाराओं, नीतियों से अलग जाकर सेक्युलर दलों को खुश करने के लिए हिन्दुत्व को दरकिनार करने लगे थे।

उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री रहते कई ऐसे मामलों पर खामोशी की चादर ओढ़ ली जब पूरे देश उबाल देखी जा रही थी। चाहे वह पालघर में साधुओं की बर्बर हत्या का मामला हो, या एक साजिश के तहत अभिनेता सुशांत सिंह की हत्या का मामला, जिस कारण बॉलीवुड के खिलाफ देशभर में आंदोलन होने लगे। लेकिन मुख्यमंत्री रहते उद्धव ठाकरे ने एक शब्द नहीं कहा। सरकारी दबाव में ही दो महीने से ज्यादा समय तक सुशांत सिंह की हत्या पर थाने में केस रजिस्टर नहीं हुए। चाहे 100 करोड़ वसूली में फंसे पूर्व कमिश्नर परमवीर सिंह, सचिन बाझे, अनिल देशमुख का मामला हो या वाया बॉलीवुड ड्रग्स रैकेट में फंसे कुछ सफेदपोश एवं सेलेब्रिटी का। इन सभी मामलों में सरकारी स्तर पर खुब लीपापोती हुई है।

भले ही यह मामला क्षेत्रीय स्तर पर हो, लेकिन इसकी गूंज राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देने लगी, क्योंकि इन मामलों में अंततः सीबीआई, एनसीबी, और इडी को शामिल होना पड़ा। इन सभी मामलों पर मुख्यमंत्री ने चुप्पी साध ली थी। क्योंकि एनसीपी और कांग्रेस उद्धव ठाकरेपर भरपूर दबाव बनाये हुई थी।

सरकार के इस रवैये को देखकर कट्टर शिवसैनिक अपने आपको असहज महसूस करने लगे। बागी गुट के कई विधायकों का कहना है कि सीएम रहते उद्धव ठाकरे से मिलना मुश्किल हो गया था। उद्धव ठाकरे अपनी ही पार्टी के विधायकों-कार्यकर्ताओं से छह-छह महीने मुलाकात और बात नहीं कर पाते थे। उद्धव ठाकरे को अपनी राजनीतिक भूल की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। यह उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। भविष्य में शिवसेना की कमान उनके हाथ में रहेगी, इसपर भी संशय है।

शिवसेना के 40 विधायक शिंदे गुट में शामिल होकर महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ मिलकर साझा सरकार बना ली है। हिन्दूत्व को लेकर पार्टी में बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे को बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया और बीजेपी के देवेन्द्र फड़नवीस उपमुख्यमंत्री बनाये गये हैं। उद्धव ठाकरे अपने ही तीर से घायल हुए हैं। हिंदुत्व को लेकर पहली बार कोई सरकार गिरी है। महाराष्ट्र के सियासी भूचाल को देखकर कई राज्यों की साझा सरकार हैरान-परेशान है। इतनी तेजी से महाराष्ट्र की सत्ता में बदलाव हुआ कि बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित हैरान हैं।

इसमें दोमत नहीं कि शिवसेना का अस्तित्व ही हिन्दुत्व की विचारधारा से है। शिवसेना पिछले चार दशकों से देश की राजनीतिक सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाती रही है। जिसके केन्द्र में हिन्दुत्व और राष्ट्रीय चेतना समाहित है।
शिवसेना के कैडर कोई सामान्य कैडर नहीं हैं। उनके भीतर राष्ट्रवाद का ज्वार उठता है। वह राष्ट्र, धर्म और भारत की संस्कृति के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते हैं।

हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना शिवसेना की राजनीति का मूल आधार है, जो बाला साहब ठाकरे से होते हुए उद्धव ठाकरे के नेतृत्व तक पहुंचा। लेकिन उद्धव ठाकरे उस विचारधारा को, राजनीतिक विरासत की उस थाती को आत्मसात करने में असफल रहे, जिस पार्टी का राजनीतिक सफर ही हिन्दुत्व के साथ शुरू हुआ था।

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