April 2, 2025

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नालंदा विश्वविद्यालय : खोई हुई विरासत को पुनर्जीवित करने का सार्थक प्रयास

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के नये परिसर का उद्घाटन

 

यूनेस्को द्वारा विश्वधरोहर में सम्मिलित “प्राचीन नालंदा महाविहार” का वैभव प्राचीन जमाने में विश्व में अति प्रसिद्ध था। 5 वीं सदी.सै12 वीं सदी तक यह विश्वविद्यालय ज्ञान के आलोक से विश्व को आलोकित करता रहा। यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल राजगीर धार्मिक केंद्र से मात्र 11:30 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। इस महाविहार के भग्नावशेषों को “अलेक्जेंडर कनिंघम” ने ढूंढ निकाला था। इस विश्वविद्यालय में पढ़ने आए चीनी यात्री ‘ह्वेनसांग’ और ‘इत्सिंग’ के यात्रा विवरणों से पता चलता है कि उस काल में यहां 10000 छात्र तथा 1510 आचार्य एवं 2000 शिक्षक कार्य करते थे। उन दिनों भारत के अलावा चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की आदि देशों के छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

भारत की शिक्षा, संस्कृति और परंपरा को पांचवीं सदी से 12वीं सदी तक ‘अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र’ के रूप में प्रतिस्थापित प्राचीन “नालंदा महाविहार” को पुनर्जागृत कर नालंदा को विश्व स्तरीय ज्ञान व शिक्षा का केंद्र बनाने हेतु भारत में तीसरी बार प्रधान मंत्री का सत्ता संभालने के बाद नरेंद्र मोदी 10 वें दिन नालंदा आकर “अंतर्राष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय” के नये परिसर का उद्घाटन किया।

“नालंदा विश्वविद्यालय” को पुनर्जीवित करने के विचार का 2007 में ही “दक्षिण पूर्व एशिया-शिखर सम्मेलन” में भाग ले रहे 16 देश के सदस्यों द्वारा समर्थन किया गया था। उसके बाद 2009 में चौथे “पूर्वी एशिया-शिखर सम्मेलन” के दौरान ऑस्ट्रेलिया, कोरिया, जापान, सिंगापुर सहित आसियान सदस्य देशों ने इसे समर्थन का वादा किया था। तब बिहार सरकार ने ‘नये नालंदा विश्वविद्यालय’ का नये परिसर में निर्माण के लिए स्थानीय लोगों से भूमि प्राप्त कर विश्व विद्यालय को सौंपा था। इसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारत के विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा से भेंट कर इस परियोजना के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित करने का आश्वासन प्राप्त किया था।

फिर भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने ‘नालंदा विश्वविद्यालय पुनरुद्धार’ के लिए 28 मार्च 2006 को “बिहार विधान मंडल” के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए इस विचार को रखा था, जिसे बिहार विधानसभा ने एक नए विश्वविद्यालय निर्माण के लिए एक ‘विधयक’ पारित किया । तब यह विश्वविद्यालय 25 नवंबर 2010 को अस्तित्व में आया। इसके पूर्व 21 अगस्त 2010 को राज्यसभा में और 26 अगस्त 2010 को लोकसभा में इसे पारित किया गया। इस बिल को 21 सितंबर 2021 को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई और यह अधिनियम लागू किया गया।
नये नालंदा विश्वविद्यालय ने अपना पहला शैक्षणिक सत्र 1 सितंबर 2014 को “स्कूल ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज” और “स्कूल आफ इकोलॉजी एंड एनवायरमेंटल स्टडीज” में 15 छात्रों के साथ आरंभ किया था,जहाँ अब 17 देशों के करीब 400 छात्र- छात्राएं विभिन्न संकायों में अध्ययनरत हैं।

यह विश्वविद्यालय 160 हेक्टेयर (करीब 400 एकड़) भूमि में आधुनिक तकनीक से बना आधुनिक परिसर रूप में फैला सुशोभित है। नये परिसर में बने नालंदा विश्वविद्यालय को उद्घाटन के पूर्व “भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना सर्किल” की अधीक्षण पुरातत्वविद् गौतमी भट्टाचार्य ने प्रधानमंत्री को प्राचीन खंडहरों के बारे में जानकारी दी और पुरावशेषों का अवलोकन कराया। प्रधानमंत्री “संग्रहालय” भी गए। इस प्राचीन विश्व विद्यालय में ‘ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों’ का सबसे समृद्ध भंडार था। ताड़ की पत्तियों की उनकी पुस्तकों और चित्रित लकड़ी के पन्नों में से केवल कुछ मुट्ठीभर ही आग की लपट से बच पाए,जिन्हें भागते हुए भिक्षुओं ने अपने साथ ले गए थे। यहां बौद्ध और हिंदू धर्म की उत्खनन से बड़ी संख्या में मूर्तियां मिली हैं,जिसे संग्रहालय में बड़े ही सुरक्षित ढंग से प्रदर्शित किया गया है।

नव परिसर स्थित भव्य “नालंदा महाविहार” भारत के बिहार राज्य में नालंदा जिले के राजगीर स्थित वैभार पर्वत की तलहटी में 55 एकड़ में बना एक सार्वजनिक केंद्रीय/संघ विश्वविद्यालय है। इस राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को “आईएनआई” और “उत्कृष्टता”प्राप्त मानक के रूप में नामित किया गया है। इस विश्वविद्यालय को भारत के राष्ट्रपति विश्वविद्यालय के “कुलाध्यक्ष” के रूप में कार्य करते हैं।

यूनेस्को द्वारा विश्वधरोहर में सम्मिलित “प्राचीन नालंदा महाविहार” का वैभव प्राचीन जमाने में विश्व में अति प्रसिद्ध था। 5 वीं सदी.सै12 वीं सदी तक यह विश्वविद्यालय ज्ञान के आलोक से विश्व को आलोकित करता रहा। यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल राजगीर धार्मिक केंद्र से मात्र 11:30 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। इस महाविहार के भग्नावशेषों को “अलेक्जेंडर कनिंघम” ने ढूंढ निकाला था। इस विश्वविद्यालय में पढ़ने आए चीनी यात्री ‘ह्वेनसांग’ और ‘इत्सिंग’ के यात्रा विवरणों से पता चलता है कि उस काल में यहां 10000 छात्र तथा 1510 आचार्य एवं 2000 शिक्षक कार्य करते थे। उन दिनों भारत के अलावा चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की आदि देशों के छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। यहां छात्रों का नामांकन द्वारपाल द्वारा लिए गए अंतर्विक्षा के माध्यम से होता था।

यहां के प्रसिद्ध आचार्यों में – शीलभद्र,धर्मपाल,गुणमति,स्थिरमति तथा चंद्रपाल आदि प्रमुख है। यहां नौ तालों का विराट पुस्तकालय़ था, जिनमें लगभग 3 लाख से अधिक पुस्तकें और पांडुलिपियों का अनुपम भंडार था। वे “रत्नरंजक”, “रत्नोदधि” तथा “रत्न-सागर” नामक नामों के विशाल भवनों में स्थापित थे। विश्वविद्यालय के छात्रों को शिक्षा, भोजन, वस्त्र और औषधि सभी निःशुल्क मिलते थे।

विश्व का यह प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान लगभग 12वीं शताब्दी तक अपने ज्ञान के आलोक से विश्व को प्रकाशित करता रहा। “शून्य” के आविष्कारक और गणितज्ञ “आर्यभट्ट” यहां पढे़ तथा अध्यापन भी किये। गुप्त सम्राट “कुमार गुप्त प्रथम” (450-470) के काल में यह न केवल एक विश्वविद्यालय था,वरन् शिक्षा का एक स्मारक केंद्र भी था, जो दुनिया भर के विद्वानों को आकर्षित करता था।
परंतु, लगभग 1206 ईस्वी में “इख्तियारुद्दीन मुहम्मद विन बख्तियार खिलजी” के आक्रमण ने इसे पूरी तरह नष्ट कर इसके वैभव को मिट्टी में मिला दिया।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा वर्ष 1915 से 1937 तथा 1974 से 1982 ई. तक के दौरान बड़े पैमाने पर उत्खनन कार्य करवाए गए। उत्खनन में लगभग एक वर्ग किलोमीटर से ज्यादा बड़े क्षेत्र में इंटों से निर्मित सुव्यवस्थित क्रम में 6 बृहद मंदिर और 11 विहारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां पर उत्तर से दक्षिण की तरफ 100 फीट चौड़ा मार्ग है, जिसके पश्चिम में ‘मंदिर’ तथा पूर्व में ‘विहार’ क्रमवार रूप में स्थित है। सभी विहारों की संरचना तथा स्वरूप लगभग एक समान है, जिसकी आंतरिक बनावट में एक खुले विशाल आंगन के चारों तरफ बरामदायुक्त कक्ष, मूल्यवान वस्तुओं को रखने के लिए गुप्त कक्ष, ऊपरी मंजिल पर पहुंचने के लिए सीढ़ियां, रसोईघर,कुंआ, अन्नागार, एकल-प्रवेशद्वार तथा पूजा के लिए सामान्य कक्ष आदि मिले हैं।

उक्त स्थल के दक्षिणी छोर पर स्थित मंदिर संख्या- 3* यहां का सबसे बड़ा एवं भव्य मंदिर है,जो चारों तरफ से मनौती स्तूपों से घिरा है। इस मंदिर के चारों कोने पर चार ऊंचे शिखर थे, जिसमें दो अभी भी मौजूद हैं। ये शिखर चूना-मिट्टी से निर्मित भगवान बुद्ध व बोधिसत्व की प्रतिमायुक्त-आलों की पंक्तियों से सुसज्जित हैं एवं गुप्तकालीन कला-शैली के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है। मंदिर संख्या- 2* अन्य मंदिरों की संरचना तथा वाह्य बनावट से काफी भिन्न है। इस मंदिर की एक रोचक विशेषता यह है कि इसके चबूतरे के निचले भाग पर बनी 211 मूर्ति-युक्त अलंकरण हैं।

इस प्राचीन परिसर के नजदीक एक अन्य टीला है, जो “सराय-टीला” नाम से जाना जाता है। यहां से एक मंदिर के अवशेष मिले हैं,जिसमें भित्ति-चित्र व चूना-मिट्टी से निर्मित भगवान बुद्ध की पांच मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल की और भी खुदाई की आवश्यकता महसूस की जा रही है। संभावना है कि यहां से और भी खुदाई में बहुमूल्य कला-कृतियां प्राप्त हो सकेगी, जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनने में चार चांद लगा पायेगी।

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