Tuesday, November 4, 2025
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सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य : एक शासक जिसकी नीतियों ने भारत का इतिहास और भूगोल बदल दिया

ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में भारत के एक अति लोकप्रिय,जन हितैषी चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य हुए, जिन्होंने 321 ई.पू. से 297 ई. पू. तक शासन की बागडोर थामी। वे उच्च कोटि के अति प्रिय प्रतापी यशस्वी शासक के रूप में करीब 24 वर्षों तक शासन किया। वे प्रजा के हित में सदा कार्य किए। शासन कला में वे पूर्ण निपुण थे। इनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली थी। इसकी जानकारी यूनानी यात्री मेगास्थनीज के “इंडिका” नामक ग्रंथ तथा कौटिल्य के “अर्थशास्त्र” और अशोक के अभिलेखों एवं अन्य विद्वानों के उल्लेखों से मिलता है। इन्होंने ही मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। ग्रीक और लैटिन लेखो में इनका नाम “सैंडोकोटस” और “एंडोकोट्स” के रूप में मिलता है।

सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पिता महाराज चंद्रवर्धन और माता महारानी धर्मा थीं। इनकी दो पत्नियां थीं-एक महापद्मनंद की बेटी “दूर्धरा” तथा दूसरी सेल्यूकस निकेटर की पुत्री “हेलेना”। इनके उत्तराधिकारी बिंदुसार थे, जिनके पुत्र सम्राट अशोक महान् हुए। सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक ढांचा तैयार किया था। इस प्रशासनिक ढांचा की मुख्य विशेषता थी, कि राजा के हाथों में ही शक्ति का पूर्ण केंद्रीयकरण होगा। प्रशासन का मुख्य उद्देश्य था,राज्य को स्थायित्व प्रदान करना एवं विस्तार करना तथा लोगों की भलाई के लिए कर वसूलना और प्रजा की सारी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखना।

मौर्य शासन काल में प्रमुख शासन राजा के अधीन था। न्याय, धर्म, सेनापति की नियुक्ति आदि सभी राजा के अधीन थी। वह स्वयं प्रत्येक विभाग का निरीक्षण और राज्य के प्रमुख अधिकारियों एवं प्रमुख सेनापति के रूप में सैनिकों की नियुक्ति करता था। मंत्रीगण सम्राट की सहायता के लिए नियुक्त किए जाते थे। मंत्रियों की संख्या तीन या चार होती थी। मंत्री विश्वासी, ईमानदार, बुद्धिमान तथा कर्तव्य परायण होते थे। मंत्रियों की एक परिषद भी थी। मंत्री परिषद के सदस्यों की संख्या 12 से 20 तक होती थी।

शासन संचालन में मंत्री परिषद का महत्वपूर्ण योगदान होता था। मंत्री परिषद के प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे- पहला- जो कार्य अभीतक आरंभ नहीं हुआ हो उसे आरंभ करना, दूसरा- जो कार्य आरंभ हो गया हो उसे पूरा करना, तीसरा- जो कार्य पूर्ण हो गया हो उसे सुदृढ़ करना और चौथा- समस्त कार्यों के संपादन के लिए साधन एकत्र करना और उनका उपयोग करना था।

शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय शासन कई विभागों में विभक्त थे, जिनकी संख्या 18 थी। प्रत्येक विभाग एक महामात्य के अधीन होते थे। सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति राजा करते थे। कौटिल्य के अनुसार 18 अमात्य इस प्रकार थे– पुरोहित, मंत्री, सेनाध्यक्ष, दण्ड पाल, दौवारिक, युवराज, दुर्गपाल, अंतपाल, अंतरवशिक, प्रशास्त, सन्निधात्री, प्रदेष्टा, नायक, समाहर्ता, व्यवहारिक और कर्मान्तरिक। इनके अलावा भी कुछ अन्य विभागों के अध्यक्ष होते थे, जैसे– नौका-अध्यक्ष,संस्था-अध्यक्ष आदि।

आंतरिक सुरक्षा और अपराधियों पर नियंत्रण रखने के लिए पुलिस और गुप्तचरों की सुदृढ़ व्यवस्था थी। गुप्तचर प्रणाली अत्यंत ही सुव्यवस्थित और संगठित थी। संपूर्ण साम्राज्य में गुप्त चारों का जाल बिछा था। गुप्तचर वेश बदलकर सभी अपराधियों और प्रजा की गतिविधियों की सूचना राजा को देते थे। पुलिस का मुख्य कार्य था, रात में लोगों के घरों की निगरानी करना तथा अपराधियों का पता लगाना। लोगों के धन-माल की भी रक्षा करना इनका कार्य था। मौर्यकालीन सरकार उतनी ही कर लेते थे, जितना प्रजा बिना कष्ट के दे सके।

राज्य के आय का प्रमुख साधन विभिन्न प्रकार के कर थे। इसलिए आमतौर पर ऊपज का मात्र 1/6 भाग अथवा कभी-कभी 1/ 10 भाग कर के रूप में लिया जाता था। इसके अलावा समाहर्ता नहर- चुंगी, दुकान- कर, बिक्री- कर, पशु- कर आदि वसूलकर राज्य की आय का वृद्धि करते थे। समस्त साधनों से प्राप्त आय राज्य में सुरक्षा, यातायात, सार्वजनिक भवनों के निर्माण, सिंचाई साधनों की व्यवस्था, कर्मचारियों के वेतन भुगतान, विद्वानों, शिल्पकारों, अपाहिजों और अनाथों की सेवा करने में उपयोग किया जाता था। यूनानी यात्री ‘मेगास्थनीज’ के अनुसार प्रजा को न्याय मिले इसके लिए न्यायालय थे।

पाटलिपुत्र का केंद्रीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय था। इसके अलावा दो अन्य प्रकार के न्यायालय भी थे- एक ‘धर्मस्थीय’ और ‘दूसरा कंटक-शोधन’ । धर्मस्थीय न्यायालय में “दीवानी” मामलों का निपटारा होता था, वहीं कंटक- शोधन न्यायालय में “फौजदारी” संबंधी मामलों का निपटारा होता था। इस प्रकार मौर्यकालीन न्यायालय व्यवस्था अति उत्तम थी। प्रजा की सुख-सुविधा के लिए लगभग सभी महत्वपूर्ण नगरों को सड़कों द्वारा जोड़ दिया गया था और इन सड़कों के दोनों ओर फलदार वृक्ष लगाए गए थे। रास्ते में राहगीर को पानी पीने के लिए कुंए तथा विश्राम करने के लिए धर्मशालाएं बनवाई गई थी, जहां भोजन की भी पूर्ण व्यवस्था थी।

सिंचाई की सुविधा के लिए तालाबों और झीलों का निर्माण कराया गया था। स्वास्थ्य के लिए स्थान-स्थान पर अस्पताल खोले गए थे। अस्पतालों में योग्य चिकित्सकों की नियुक्ति दी गई थी तथा औषधीय व्यवस्था मुफ्त थी। सम्राट चंद्रगुप्त दीन-दुखियों, अनाथों तथा अकाल पीड़ितों की सहायता करना अपना पवित्र कर्तव्य समझते थे। वे अपने साम्राज्य में प्रजा के दुःख-सुख को जानने के लिए स्वयं वेष बदल कर भ्रमण करते थे।

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन काल अति उत्तम और जन हितकारी शासन काल माना गया है। मौर्य शासन की इस अद्भुत व्यवस्था को विदेशी विद्वानों ने भी खुब सराहा है और आश्चर्य प्रकट किया है कि इस प्रकार की शासन व्यवस्था ना तो प्राचीन यूनान के किसी नगर राज्य में उन दिनों थी और ना अकबर के ही शासन व्यवस्था में इस प्रकार की सुव्यवस्थित व्यवस्था थी।

चंद्रगुप्त को शासन संभालने के पूर्व लगभग समस्त भारत धनानंद के अधीन था। चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से नंद वंश को समाप्त करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने एक विशाल सेवा का गठन किया, जिसमें यवन, शक, कीरात, पारसिक ,वह्लिक,कंबोज आदि को सम्मिलित किया। मुद्राराक्षस से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा “पर्वतक” से संधि की थी। चंद्रगुप्त ने सबसे पहले अपनी स्थिति पंजाब को जीत कर सुदृढ़ की।

चंद्रगुप्त को यवनों के विरुद्ध पूर्ण सफलता माना जाता है कि 317 ईसवी पूर्व के बाद ही मिली, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिमी पंजाब के शासक क्षत्रप “यूदेमस” ने अपनी सेना सहित भारत को छोड़ा था। इससे चंद्रगुप्त को पंजाब और सिंध के प्रांत अधीन हो गए। किंतु चंद्रगुप्त का मुख्य युद्ध धनानंद के साथ हुआ।

बौद्ध ग्रंथ “महावंश” के अनुसार चंद्रगुप्त ने आरंभ में नंद साम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, जिससे कोई खास लाभ नहीं हुआ । तब सीमांत प्रदेशों पर वह आक्रमण कर पाटलिपुत्र को घेर लिया और जीत हासिल की तथा धनानंद को मार डाला। फिर उसने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया।

“मामुलानार” नामक प्रसिद्ध तमिल लेखक ने तिनेवेल्ली जिले कि पोदियिल पहाड़ियों तक मौर्य आक्रमणों का उल्लेख मिलता है। मैसूर से उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार चंद्रगुप्त द्वारा शिकारपुर के अंतर्गत नागर-खंड की रक्षा करने का उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र पर भी विजय प्राप्त की थी। किंतु, चंद्रगुप्त का अंतिम युद्ध सिकंदर के पूर्व सेनापति तथा उसके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट “सेल्यूकस” के साथ हुआ।

ग्रीक इतिहासकार “जस्टिन” के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में उसे प्राप्त हुआ। तब सेल्यूकस ने सिकंदर की भारतीय विजय की इच्छा पूर्ण करने के लिए आगे बढ़ा और सिंध के किनारे उपस्थित हुआ। किंतु चंद्रगुप्त की भारी भरकम सेना, शक्ति और पराक्रम को देखकर उसे सेल्यूकस के आगे झुकना पड़ा। तब सेल्यूकस ने सम्राट चन्द्रगुप्त से संधि करने की अपील की,जिसमें उसने अपनी पुत्री हेलेना (यवन सुन्दरी) और सिकंदर द्वारा विजीत क्षेत्र जो उसे प्राप्त हुए थे,उस क्षेत्र में से हेरात, कंधार, काबुल और बलूचिस्तान को देकर संधि कर ली। इसके बदले में सम्राट चंद्रगुप्त ने सेलूकस को 500 हाथी उपहार में देकर उसे विदा किया।

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