मृतप्राय हो चुके नहरों, तालाबों, पोखरों और कुओं को फिर से जिंदा करना होगा। जबकि शहरों के कूड़े-कचरों से मर रही नदियों को बचाने के लिए ठोस सरकारी नीतियों की दरकार है, जिसमें नियम और कानून तोड़ने वालों पर जुर्माने का भी प्रावधान किया जाना चाहिए। हालांकि नदियों को बचाने के लिए सरकारें कई कानून बनायी हैं, लेकिन वह निष्प्रभावी हैं।
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हम आधुनिकता की दौड़ में आगे रहने के लिए बहुत सी चीजों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। विकास की इस अंधी दौड़ में लोग प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो कर ही रहे हैं, उसके वजूद को भी नष्ट करने पर तुले हैं। खेतीहर जमीन पर अब मकान दिख रहे हैं और जंगलों को काटकर सड़कें और अट्टालिकायें बनायी जा रही हैं। मानव जाति ने अपने फायदे के लिए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ दिया है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नही है। महज तीन-चार दशकों के दौरान प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस कदर किया गया है जिसकी भरपाई कई सदियों में भी नहीं हो पायेगी। पिछले एक दशक से औसतन प्रत्येक साल तापमान में वृद्धि दर्ज की जा रही है। जंगलों की अंधाधूंध कटाई के कारण सूर्य की तपिस से बचने के लिए धरती को छांव नहीं मिल पा रहा है। लिहाजा अब पृथ्वी तेजी से गर्म होती जा रही है और पृथ्वी के नीचे पानी का कई लेयर सूख चुका है। कई शहरों में चापाकल बेकार हो चुके हैं। उन शहरों में अचानक पानी की किल्लत एक त्रासदी से कम नहीं है।
विपरित परिस्थितियों में भी नहर, तालाब, पोखर और कुआं इंसान की प्यास बुझाते रहे हैं, लेकिन आज ये कहीं दिखाई नहीं देते। जबकि नदियों को शहरीकरण ने मृतप्राय बना दिया। पहले कृषि नदी, नहर और तालाबों पर निर्भर थी, लेकिन फीटर और मोटर आ जाने के बाद लोगों ने इनका इस्तेमाल करना छोड़ दिया। शहर तो छोड़ दीजिए गांवों में भी अब कुआं देखने को नहीं मिलते हैं। नहर, तालाब और पोखर पहले ही विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। वो जगह या तो सड़कों में तब्दील हो गई या उन जगहों पर बिल्डिगें बना दीे गई। कहने का आशय है कि, पानी संग्रह करने के तमाम साधन इंसान खुद ही खत्म कर चुका हैं।
नहरों और तालाबों के अस्तित्व समाप्त होने की वजह से जन-जीवन पर दोहरी मार पड़ रही है। जानवर भी प्यासे मर रहे हैं। गरीब किसान अब किसानी छोड़कर शहरों में जाकर मजदूरी कर रहे हैं लेकिन पानी के अभाव में खेती करना वह उचित नहीं समझते। यह इस देश के ग्रामीण इलाकों के किसानों का मार्मिक चित्रण है जहां पानी के अभाव में किसान मजदूर बनने पर विवश हैं। अगर उनके सामने नहरों और तालाबों की सुविधाएं मौजूद होती तो वह किसानी छोड़कर मजदूरी करने शहर नहीं जाते। सवाल यहां सिर्फ कृषि का नहीं है, बल्कि आजीविका और अस्तित्व का भी है।
हम बहुत तेजी से अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। महानगरों की चकाचौंध दुनिया ने छोटे-छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है। महानगरों की तरह गांवो में भी जीवन शैली बदली है। वहां लोग अब जानवर पालने, और कृषि आधारित व्यवसाय करने से दूर भागने लगे हैं। नतीजा खेत अब या तो बंजर होते जा रहे हैं या उन जमीनों पर तेजी से मकान बनाये जा रहे हैं।
पिछले दिनों बिहार में जहानाबाद जिले के अंतर्गत एक प्रखंड (मखदुमपुर) में यह देखकर हैरानी हुई कि पानी की कमी के कारण वहां बोतलबंद पानी पर लोगों की निर्भरता बढ़ रही है। वहां के लोगों का कहना है कि पानी का लेयर बहुत नीचे चला गया है। इसलिए अधिकांश चापाकल बेकार हो गये हैं। वाटर सप्लाई की लाइन पूरी तरह नहीं बिछ पायी है, इसलिए हर जगहों पर सप्लाई का पानी उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग वहां के वार्ड प्रतिनिधि को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि, पानी की किल्लत से जूझ रहे इस इलाके में अगर चौराहे पर भी हाथी बोर (सरकारी चापा कल जिसकी बोरिंग 250-300 फीट होती है) को उपलब्ध करा देते तो कम से कम पचास घरों को राहत मिल जाती। लेकिन ऐसा नहीं होने के कारण उनलोगों के सामने बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। हालांकि कुछ लोगों ने अपने घरों में बोरिंग करा ली है, इसलिए उन्हें पानी की किल्लतों से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन सबके लिए ऐसा संभव नही है क्योंकि बोरिंग कराने में कई लाख रूपये खर्च बैठते हैं।
पानी की बढ़ती मांग को देखकर वहां बड़े-बड़े प्लांट लगाये जा रहे हैं। प्लांट से पानी भरकर 20-25 लीटर के जार को ओमिनी वैन अथवा ठेले के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुचाये जा रहे हैं। यह नजारा प्रतिदिन देखने मिलता है। जब गांवों में ऐसे हालात पनप गये हैं तो शहरों में क्या स्थिति होगी ? यह नजारा भविष्य में पानी के अभाव के कारण आने वाली मुसीबतों के संकेत है। जिससे शहर तो क्या गांव भी अछूता नहीं रहेगा। इसी तरह के हालातें कई और जगहों पर भी देखने को मिले। कई जगहों पर तो वहां के निवासी सड़क जाम कर पानी की समस्या से प्रशासन को अवगत करा रहे हैं। ऐसे हालात बहुत ही छोटे शहरों, गांवों और प्रखण्ड में देखने को मिल रहे है। जबकि, मेट्रो सिटीज में पानी की किल्लतें तो अब वहां के लोगों की नियति बन चुकी है। सरकारी टैंकरों से पानी के लिए आमजन की लंबी कतारें देश के विकास पर सवालिया निशान खड़ा करती है।
अगर देश के सियासतदानों, जनप्रतिनिधियों, समाजसेवकों और जागरूक जनता को पानी को लेकर भविष्य की चिंता है तो, तो उन विभीषिकाओं से बचने के लिए बिना देर किये जल संचयन के लिए ठोस कदम उठाना पड़ेगा। इसके लिए कानून भी बनानी होगी और जागरूकता भी फैलानी होगी। ताकि जल संचयन के साथ-साथ पानी की बर्बादी को भी रोका जा सके। मृतप्राय हो चुके नहरों, तालाबों, पोखरों और कुओं को फिर से जिंदा करना होगा। जबकि शहरों के कूड़े-कचरों से मर रही नदियों को बचाने के लिए ठोस सरकारी नीतियों की दरकार है, जिसमें नियम और कानून तोड़ने वालों पर जुर्माने का भी प्रावधान किया जाना चाहिए। हालांकि नदियों को बचाने के लिए सरकारें कई कानून बनायी है, लेकिन वह निष्प्रभावी हैं।
जल संचयन के लिए आधुनिक तकनीकों का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वाटर रिसाइक्लिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि यूज्ड वाटर को दोबारा इस्तेमाल किया जाये। इतना ही नही यूज्ड वाटर को जमीन के अंदर कैसे भेजा जाये इस पर भी जागरूकता फैलाने की जरूरत है। इसके साथ ही वृक्षारोपण को एक अभियान के रूप में लेने की जरूरत है ताकि पर्यावरण को संतुलित किया जा सके।
यूज्ड वाटर जमीन के अंदर भेजने का सोख्ता एक सरल माध्यम है। अब घरों के आगे सोख्ता बनाने का चलन बढ़ा है हालांकि ऐसे घरों की संख्या काफी कम है। वाटर हार्वेस्टिंग को लेकर सरकार को ग्रामीण स्तर पर प्रशिक्षण और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जागरूकता फैलाने पर पहल करनी चाहिए। सामाजिक संगठनों को भी बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लेने की जरूरत है।
इसी तरह जल संचयन की और भी तरकीबें वक्त के साथ इजाद किये जाने की जरूरत है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि पानी को बचाने के लिए सबसे पहले हम जागरूक हों। हम पानी का बेजा इस्तेमाल न करें। इस प्राकृतिक धरोहर को सहेजना हमारी जिम्मेदारियों में शामिल होनी चाहिए। अगर लोग आज नहीं सुधरे तो अगली पीढ़ी को बोतलबंद पानी भी नसीब नहीं होगा।
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