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युवाओं में कौशल विकास की कमी के लिए शिक्षा का स्तर भी जिम्मेदार है

कई सर्वेक्षणों और रिपोर्ट के मुताबिक, डिग्री और डिप्लोमाधारी युवाओं को कारपोरेट सेक्टर की ज्यादातर कंपनियां नौकरी के योग्य नही मानती है। तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल पर कुछ फीसदी युवा ही खरे उतरते हैं।

केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार अपने बयानों के कारण चर्चा में हैं। वह उत्तर भारत के युवाओं को नौकरी के योग्य नहीं समझते। उनका मानना है कि देश में रोजगार की कमी नहीं है लेकिन योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते हैं, जिसकी वजह से बेरोजगारी बढ़ रही है। उनका यह भी मानना है उनमें क्वालिटी (बौद्धिक/शैक्षिक गुणवत्ता) की कमी है। संतोष गंगवार मोदी सरकार के कैबिनेट में श्रम मंत्री हैं।

विपक्षी दल भले ही गंगवार के बयान पर हमलावर हो जायें, लेकिन उनकी बातों में सच्चाई भी है। संतोष गंगवार से गलती सिर्फ इतनी ही हुई है कि उन्होंने सिर्फ उत्तर भारतीयों का नाम लिया है। जबकि इस मसले पर तो राष्ट्रीय स्तर पर आंकलन करने की जरूरत है।

कुछ आंकडें और रिपोर्ट बताते हैं कि तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल पर कुछ फीसदी छात्र ही खरे उतरते हैं। बाजार प्रबंधकीय कोर्स सहित अन्य डिग्री होल्डर युवाओं को कारपोरेट सेक्टर की ज्यादातर कंपनियां नौकरी के योग्य नही मानती है। आईबीएम प्रमुख गिनी रोमेटी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि भारतीयों को डिग्री पाने के साथ-साथ तकनीकी, प्रबंधकीय और व्यवहारिक स्तर पर भी कौशल विकसित करनी चाहिए। गिनी रोमेटी ने संपूर्ण भारतीयों को लेकर कहा था जबकि संतोष गंगवार ने उत्तर भारतीयों को लेकर कहा है। गंगवार पर विपक्ष इसीलिए हमलावर है कि इन्होंने क्षेत्र विशेष के युवाओं पर निशाना साधा है।

2011 में फिक्की की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीयों में कौशल विकास की कमी है। आंकड़ें बताते हैं कि हर साल देश भर में सात लाख युवा स्नातक की डिग्री प्राप्त करते हैं लेकिन जब वह नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो इस कारण उन्हें नौकरी नहीं मिल पाती, क्योंकि उनमें कौशल विकास की कमी पायी जाती है। नेशनल सैम्पल ऑफ सर्वे के मुताबिक भारत मेें 10 प्रतिशत लोग ही प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। प्रशिक्षित नहीं होने के कारण उन्हें नौकरियां मिलने में कठिनाई होती है। जबकि आईटी सेक्टर में भी क्षमता योग्य युवाओं की कमी महसूस की जा रही है।

संतोष गंगवार ने बहुत हद तक सच ही कहा है कि भारत में योग्य/प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी महसूस की जा रही है। उसकी कई वजहें हैैं। बाजारवाद के इस दौर में शिक्षा का स्तर गिर गया है। बड़े-बड़े शहरों में काफी महंगे शिक्षण संस्थान खुल रहे हैं, जिनके उद्देश्य छात्रों से सिर्फ मोटा पैसा वसूल करना हैं। छात्र भी नामी शिक्षण संस्थानों से डिग्री हासिल करने की होड़ में रहते हैं। रट्टा मारकर पास कराने की चलन ने युवाओं की बौद्धिकता को चोट पहुंचायी है। किताबी ज्ञान देकर उन संस्थानों की जिम्मेदारी पास कराने तक रहती है।

जब डिग्री लेकर युवा नौकरी की खाक छानते हैं तब उन्हें सच से वाकिफ होना पड़ता है कि किताबी ज्ञान के साथ-साथ कौशल विकास की कितनी जरूरत है। लेकिन, इसके लिए सिर्फ ये युवा जिम्मेदार नहीं है जिन्हें अयोग्य कहा जा रहा है। जिम्मेदारी तो उनके उपर भी तय होनी चाहिए जो शिक्षा का स्तर गिरा रहे हैं और डिग्रीधारी बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं। वैसे शिक्षण संस्थानों पर सरकारों को सख्ती बरतने की जरूरत है। कुछ शिक्षण संस्थानों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षण संस्थानों में रोजगारपरक कौशल विकास एवं विषयों से जुड़ी प्रेक्टिकल शिक्षा के प्रर्याप्त साधन नहीे हैं।

अब तो नामी शिक्षण संस्थानों की फ्रेचाइजी छोटे-छोटे शहरों में भी खुलने लगी हैं। जिनका उद्देश्य युवाओं को डिग्री दिलवाना ही रह गया है। शिक्षा के नाम पर महज औपचारिकता पूरी करने वाले ऐसे संस्थान सरकारी मानदंडों पर कितना खरा उतरते हैं, ये तय करना सरकार का काम हैै।

संतोष गंगवार ने बेरोजगारों की दुखती रग पर हाथ रख दी है और अब उन्हें अयोग्य और नकारा साबित किया जा रहा है। छोटे शहरों से बड़े ख्वाब लेकर महानगरों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों को यह नहीं पता चलता है कि कौन उनके भविष्य से खिलवाड़ करने वाला है। बड़ी-बड़ी होर्डिग्स, बैनर, टीवी एवं अन्य माध्यमों से होने वाले प्रचार को देखकर युवा भ्रमित हो जाते हैं और यह तय नहीं कर पाते हैं कि कि कौन संस्थान उनका सही मार्गदर्शक बन सकता है। बहरहाल, केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों को शिक्षा का स्तर सुधारने की जरूरत है, ताकि भविष्य में शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ कम हो सके।

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