यह कैसी आजादी ?
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सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किये जाने के बाद अर्थात धारा 377 को हटा दिये जाने के बाद देश के गली-मोहल्लों, चौक चौराहों के साथ-साथ टीवी चैनलों के स्टूडियों में बहस हो रहे हैं। इस फैसले के बाद अब भारत में समलैंगिक संबंध अपराध नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सर्वमान्य है, लेकिन अब सवाल यह उठ रहे हैं कि क्या समलैंगिक स्त्री और पुरूषों के संबंधों से परिवार का विस्तार संभव है? सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या समलैंगिक संबंधों से मानवीय मूल्यों की कसौटी पर एक सभ्य समाज का निर्माण संभव है ? इसी तरह इससे जुड़े और भी कई प्रश्नों के उत्तर सभ्य भारतीय समाज के पैरोकारों को तलाशकर रखना होगा।
हालांकि, धर्म के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान भी यह मानता है कि समलैंगिक संबंध नेचर के विपरित है। जबकि नेचुरल सेक्स जिसपर परिवार और समाज का विस्तार आधारित है उसके लिए दो विपरित लिंगों का होना जरूरी है। भौतिकी विज्ञान में आकर्षण और विकर्षण के नियम दो असमान प्रकृति के वस्तुओं पर आधारित है। यही नियम इंसानों के परिदृश्य में भी देखे जा सकते है, लगभग सभी जीवों में देखे जा सकते हैं। लड़का और लड़की में लैगिक विभेद के कारण ही एक दूसरे के प्रति आकर्षण के गुण निहित हैं। जबकि लड़का-लड़का और लड़की-लड़की के बीच लैंगिकता का उद्देश्य महज सेक्स की पूर्ति है। हवस की भूख मिटाने के लिए वैसे लोगों की मानसिकता उस अवस्था में पहुंच जाती है जहां लैंगिक विभेद कर पाने में वह असमर्थ होते हैं। फिर उन्हें इस तरह की आदत पड़ जाती है। फिर उनके लिए सही क्या है गलत क्या है कोई मायने नहीं रखता।
इसलिए समान लैंंगिकोें के बीच अंतर्निहित संबंध को नेचर के प्रतिकूल बताया गया है। कई देशों में समलैंगिक संबंध पर कड़े कानून के प्रावधान है। कुछ देशो में तो मृत्यु दंड का प्रावधान है। भारत में भी समलैंगिकों के बीच संबंध को धारा 377 के तहत अपराध के दायरे में रखा गया था। लेकिन दशकों से यह मामला न्यायालय के चौखट पर न्याय की गुहार लगा रहा था। एलजीबीटी से जुड़े लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर धारा 377 को हटाने की मांग की थी।
गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मानवीय आजादी का हवाला देते हुए समलैंगिकों पर लगाये गये धारा 377 को हटा दिया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व में गठित बेंच ने धारा 377 को यह कहते हुए हटा दिया कि मानवीयता और और इंसान की आजादी को ध्यान में रखते हुए जो जिस रूप में है उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एलजीबीटी समुदाय के लोगों में जोश और उमंगों को देशभर में मेट्रो सिटीज की सड़कों पर देखा गया, और अभी भी उनका खुमार नहीं उतरा है। विशेषकर दिल्ली के कनॉट पैलेस में इनका बड़ा हुजूम आपको दिख जायेगा। जो अपने समलिंगी-सहमित्रों के साथ आपस में अजीब-अजीब तरह के व्यवहार करते दिख जायेंगे। जिससे आस-पास के लोग भी असहज महसूस करने लगते हैं। इसे वह अपने तरीके से जीने की आजादी कहते है।
हमारा संविधान भेद-भाव से परे समाज की अवधारना की बात करता है। संविधान के मुताबिक देश के हर नागरिक को अपने तरीके से जीने का अधिकार मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एलजीबीटी समुदाय को उनकी इच्छाओं को पूर्ति का अधिकार मिलना चाहिए। तमाम संदर्भो को जानने से पहले एलजीबीटी को जानना जरूरी है।
एल-(लेस्बियन) मतलब लड़कियों का लड़कियों के प्रति आकर्षण। जी-(गे) पुरूषों का आकर्षण पुरूषों के प्रति। बी-(बाइसेक्सुअल) इस तरह की प्रवृत्ति स्त्री और पुरूष दोनों में पायी जाती है। एक स्त्री मर्द के साथ-साथ महिला साथी से भी लैंगिक संबंध स्थापित करने की इच्छा रखती है। वही एक पुरूष स्त्री से संबंध बनाने के अलावा मर्दो से भी सेक्सुअल रिलेशन बनाता है। टी- (ट्रांसजेंडर) इसमें वो लोग आते हैं जिसमें बचपन से उनकी लैंगिक पहचान कुछ और थी लेकिन बाद मे वह अपनी लैंगिक पहचान बदल लेते है। इसमें कुछ लोग जेनेटिक डिसऑर्डर के कारण करते हैं। मतलब जिसकी पहचान बचपन सेें लड़की के रूप में थी वह बाद में अपना सेक्स चेंज कराकर लड़का बन गयी। जबकि कई ऐसे ट्रांसजेंडर हैं जो पैदा हुए लड़का के रूप में लेकिन बाद में सेक्स चेंज कराकर औरत के रूप में पहचान बनायी।
जानकार कहते हैं कि मेट्रो कल्चर में सेक्स चेंज कराने का एक ट्रेंड बनता जा रहा है। शौकिया तौर पर भी लोग सेक्स चेंज करा रहे हैं। इन्ही लोगों का एक समुदाय है एलजीबीटी। जिनके पैरोकार अब खुलकर सामने आने लगे हैं। एलजीबीटी समुदाय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से काफी खुश है वही भारत सरकार सहित उन सभी सगठनों, नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, धर्म और धार्मिकता की दुहाई देने वाले लोगों को इस फैसले से गहरा आघात लगा है। योग गुरू बाबा रामदेव कहते हैं कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है और ऐसे लोगों में कई गंभीर बीमारियों के होने का खतरा बढ़ जाता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और संगठनों के उन सभी दलीलों, तर्कों को नकारते हुए धारा 377 को हटा दिया।
बहरहाल, अब यह तय मानिये कि आने वाले कुछ वर्षों में भारतीय सामाजिक-पारिवारिक संरचना को छिन्न- भिन्न करने में एलजीबीटी समुदाय की बड़ी भूमिका होगी। और भी कई सवाल है जिसके जबाव भारतीय समाज को ढूंढकर रखना होगा। आने वाले कुछ वर्षो में क्या हम ये मानकर चलें कि जिस तरह लड़कियों की शादी के लिए घरवाले लड़कों की तलाश करते है। अगर उनके घर का कोई सदस्य एलजीबीटी समुदाय में शामिल हो गया हो तो क्या उसके लिए भी जीवन साथी की तलाश कर पाना किसी माता-पिता अथवा अभिभावक के लिए आसान होगा।
जबकि, अगर समलैंगिक जोड़ा संविधान और कानून का हवाला देकर उसी घर में रहना शुरू कर दे जिस घर में रिश्तों की पहचान माता-पिता, भैया-भाभी, दीदी-जीजा, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, दादा-दादी, के रूप में हो, तो समलैंगिक जोड़े को किस रूप में संबोधित किया जायेगा। विदेशी कल्चर में यह कोई नई बात नहीं है लेकिन भारतीय समाज के लिए यह नया जरूर होगा। अब इसे यथार्थ मे बदलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। अंततः यही कहा जा सकता है कि आने वाले समय में अगर एलजीबीटी का वर्चस्व समाज और परिवार पर बढ़ता है तो संयुक्त परिवार और एकल परिवार छोड़ दीजिए परिवार का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।