You are currently viewing संस्कार विहीन शिक्षा से हो रहा नैतिक मूल्यों का पतन

संस्कार विहीन शिक्षा से हो रहा नैतिक मूल्यों का पतन

इन परिस्थितियों के लिए सिर्फ युवा पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। माता-पिता और अभिभावकों को भी बदलते दौर को समझने की जरूरत है। माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चों में सहज रहने की प्रवृति विकसित करें। सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनो में साथ लेकर जायें और उन्हें भारतीय संस्कृति से अवगत करायें। उन्हें अपने धर्म, आस्था, परम्परा, त्योहारों और धार्मिक प्रतीकों के बारे में जानकारी दें। जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनकी सृजनात्मक क्षमता अन्य से अलग होगी और ये भारत की सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने में सक्षम होंगे।

————————————–

बच्चों में संस्कार के बीज बचपन में ही बोये जाते हैं। वह संस्कार ही आगे चलकर उन बच्चों को सफलता की राह दिखाते हैं। जिन बच्चों की परवरिश अच्छी तरह से नहीं होती है कि उसका प्रभाव भी उनकेे जीवन पर पड़ता है। वर्तमान दौर की शिक्षा प़द्वति में नैतिक शिक्षा का अभाव है। आधुनिक शिक्षा पद्वति के माध्यम से बच्चों में संस्कार दे पाना संभव नहीं लगता है। ऐसी स्थिति में उन बच्चों के माता-पिता और अभिभावकों को ही यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी कि कैसे उनका नैतिक विकास हो सके।

घर का माहौल, समाज का माहौल और अभिभावको के व्यवहार का प्रभाव बच्चों पर दिखता है। जिन घरों में परिवारों के बीच लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौच की स्थिति बनी रहती है, उन घरों के बच्चों की विशेषतौर पर नैतिक प्रगति रूक जाती है। इसलिए अभिभावकों को भी बदलते दौर की बिसंगतियों को समझने की जरूरत है।

कहते हैं कि एक कुम्हार मिट्टी का जैसा आकार देता है, बर्तन वैसा ही बनता है। उसी तरह बच्चों की सही परवरिश और उसके भीतर नैतिक संस्कारों का बोध कराने की एक निश्चित उम्र होती है। आज के पाठ्य पुस्तक में संस्कार, आस्था, नैतिकता, परिवार, राष्ट्रीयता एवं देश के महान विभुतियों से जुड़े विषय वस्तु नहीं के बराबर हैं। संस्कार विहीन शिक्षा से सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। यही कारण है कि आज भारत में गुरूकुल जैसी शिक्षा व्यवस्था की मांग की जा रही है।

आज शिक्षा के बाजारीकरण का प्रभाव बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों में भी देखा जा रहा है। महंगे स्कूल, महंगी किताबें, उंची फीस लेकिन बच्चों में संस्कार नाम की चीज नहीं है। सोशल मीडिया के दौर में बच्चों को सबकुछ आसानी से प्राप्त हो रहा है जिसे जानने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। यही वजह है कि आज के बच्चे कम उम्र में डिप्रेशन, हाइपरटेंशन जैसी बीमारियों की चपेट में आने लगे हैं।

कुछ साल बाद यही बच्चे उच्च शिक्षा के लिए कॉॅलेज में चले जाते हैं लेकिन संस्कारहीनता इनके व्यवहार सेें नहीं निकल पाती है। क्योंकि सामाजिक और शैक्षणिक परिवेश में इन बच्चों को जो खाद पानी दिया जा रहा है वह इनके संस्कार में दिखता है।

आज इस देश में 64 फीसदी आबादी ऐसे युवाओं की है जिनकी उम्र 15 वर्ष से 35 वर्ष के बीच है। इन्हीं युवाओं पर इस देश का भविष्य निर्भर है। लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा कि आज के ज्यादातर युवा नशे के आदी बन रहे हैं। वह कुकृत्य और कुंसंगति में लिप्त है। ज्यादातर युवा अपने कॅरियर बनाने की उम्र में गलत राह पर चले जाते हैं।

एनसीआरबी की रिपोर्ट देखें तो इस देश में जुआ, साइबर, चेन स्मोकिंग, पोर्न, एडल्ट क्राइम, फिरौती, गैंगवार, मर्डर जैसे अपराधों में बड़ी संख्या में युवा वर्ग शामिल हैं। इस देश का ज्यादातर युवा अपने तरीके से ऐश मौज की जिंदगी गुजारना चाहता है। माता-पिता की बातें उन्हें चुभने लगती है। यहां तक कि अपने माता-पिता से दूर भी रहने लगता है। आज के युवा-युवती अपने तरीके से जीवन जीना पसंद कर रहे हैं। उन्हें सामाजिक मर्यादाओं और शर्म लिहाज की भी जरा फिक्र नहीं है।

मेट्रो सिटीज में सिंगल फैमिली ज्यादा मिलेंगी। संयुक्त परिवार का टूटना भी सांस्कृतिक पतन का एक बड़ा कारण है। पाश्चात्य सस्कृति का प्रभाव सबसे ज्यादा युवा पीढ़ी पर पड़ रहा है। युवाओं के रहन-सहन और पहनावे के ढंग में पाश्चात्य संस्कृति की झलक दिखने लगी है।

आज के युवा अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं और शादी करके भी परिवार से अलग रहना चाहते हैं। जिस कारण बच्चों को उनके दादा-दादी का प्यार नसीब नहीं होता है। अगर कभी मुलाकात भी होती है तो महज ऑपचारिकता भर। इससे उन बच्चों में अपनापन का भाव नहीं दिखता है। वह अपने माता-पिता के सिवाय किसी सगे संबंधी से ज्यादा मेल-मिलाप नहीं रख पाते हैं। ऐसे बच्चे जब बड़े होते हैं तो अपने सगे-संबंधियों को पहचान भी नहीं पाते।

इन परिस्थितियों के लिए सिर्फ युवा पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। माता-पिता और अभिभावकों को भी बदलते दौर को समझने की जरूरत है। माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चों में सहज रहने की प्रवृति विकसित करें। सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनो में साथ लेकर जायें और उन्हें भारतीय संस्कृति से अवगत करायें। उन्हें अपने धर्म, आस्था, परम्परा, त्योहारों और धार्मिक प्रतीकों के बारे में जानकारी दें। जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनकी सृजनात्मक क्षमता अन्य से अलग होगी और ये भारत की सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने में सक्षम होंगे।

Leave a Reply